इस साल की शुरूआत में जब दुनिया के बड़े खदान समूहों ने लौह अयस्क की कीमतों में 75 फीसदी और कोकिंग कोल की कीमतों में 320 फीसदी का इजाफा किया जो स्टील उद्योग से जुड़े लोगों के होश फाख्ता हो गए थे।
वैश्विक स्तर पर इन संसाधनों की बहुत ज्यादा मांग है। चीन और भारत में इस समय स्टील की मांग बेहद जोर पर है और इन दोनों देशों को काफी मात्रा में लौह अयस्क और कोकिंग कोल खरीदना पड़ता है। दूसरी ओर ऑस्ट्रेलिया जैसे देश हैं जो इन पदार्थों के बड़े आपूर्तिकर्ताओं में से हैं। ऐसे में उत्पादन को बरकरार रखने के लिए इन देशों की कंपनियों के पास आपूर्तिकर्ताओं की शर्तों को मानने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।
स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) के चेयरमैन सुशील के रूंगटा का कहना एकदम सही था कि लौह अयस्क और कोकिंग कोल की कीमतों में हुई जोरदार बढ़ोतरी के बावजूद इनका जनता पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि जनता इनको नहीं खरीदती है।
दूसरी ओर कच्चे माल की कीमतों में बेतहाशा बढोतरी होने की वजह से स्टील कंपनियों की लागत में बहुत तेजी से इजाफा हुआ। स्टील बेहद बुनियादी जरूरत वाली वस्तु है। इसलिए इसकी कीमतों में बढ़ोतरी से जनता में नाराजगी फूटना स्वाभाविक है। जाहिर है इसकी तीखी प्रतिक्रिया तो होनी ही थी। रूंगटा ने यह भी कहा कि कम समय में कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ी हैं।
सरकारी कदम
सरकार ने स्टील की कीमतों को काबू में करने के लिए कुछ प्रावधान किए हैं। इसमें किसी को शक नहीं है कि कंपनियां कच्चे माल की कीमतों की तुलना में कुछ ज्यादा ही कीमतें बढ़ा रही हैं। निजी कंपनियां चाहती हैं कि कच्चे माल की कीमतों पर कुछ सरचार्ज लगा दिया जाए। स्टील बहुत ही संवेदनशील कमोडिटी है। सकल घरेलू उत्पाद में इसकी 2 फीसदी की हिस्सेदारी है।
इसके अलावा औद्योगिक उत्पादन और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में भी इसकी अहम हिस्सेदारी है। बेतहाशा बढ़ती कच्चे माल की कीमतों की मार से बचने के लिए जो दवाब दिया जा रहा है वो काफी हद तक जायज लगती है। लेकिन कीमतों को निर्धारित करने में एक चीज सवाल उठाती है वो ये कि पिछले कुछ समय से स्टील की मांग में तेजी आई है लेकिन उत्पादन उस अनुपात में नहीं बढ़ा है।
देश में स्टील के सालाना उपभोग में 13 फीसदी की तेजी आई है जबकि उत्पादन में केवल 7 फीसदी का इजाफा हुआ है। इसमें अंतर की वजह से देश को स्टील का आयात करना पड़ता है। वर्ष 2007-08 के दौरान स्टील का आयात बढ़कर 67 लाख टन हो गया जबकि केवल 27 लाख टन स्टील का निर्यात किया गया।
सरकार के एक प्रश्न के जवाब में सार्वजनिक क्षेत्र की एक स्टील कंपनी ने कहा है कि 2007-08 के दौरान एक टन स्टील की उत्पादन लागत में प्रति टन के हिसाब से 5,200 रुपये का इजाफा हुआ है जबकि बिक्री योग्य स्टील की कीमतों में 12,300 रुपये की वृद्धि हुई है।
दूसरी ओर सरकार का कहना है कि देश में अन्य देशों की तुलना में कम लागत में स्टील का उत्पादन होता है। इसके बावजूद भी यहां चीन और दक्षिण कोरिया की तुलना में उपभोक्ता कीमतें ज्यादा हैं। इसके लिए एक कीमत निगरानी समिति भी है जो कीमतों में उतार-चढ़ाव पर नजर रखती है।
पिछले साल इस समिति की 4 बार बैठक बुलानी पडी। ऌसका एक ही परिणाम नजर आता है कि या तो समिति अपना काम ठीक से नहीं कर रही है या फिर सरकार ही समय पर प्रतिक्रिया नहीं कर पा रही है। स्टील सचिव आर बी पांडे कहते हैं कि अगले तीन-चार सालों तक हमे आयात करना ही होगा जब तक की हम क्षमता विस्तार नहीं कर लेते।
उम्मीद की किरण
वैसे इस्पात मंत्री ने कहा है कि 2010 तक देश का स्टील उत्पादन बढ़कर 1240 लाख टन हो जाएगा और 2020 तक इसके 3000 लाख टन तक पहुंचने की उम्मीद है। पहले 2020 तक 2000 लाख टन के उत्पादन की उम्मीद लगाए हुए थे लेकिन अब लगता है कि ये 3000 लाख टन तक पहुंच जाएगा। जब चीन 1999 में अपने 1230 लाख टन उत्पादन को बढ़ाकर 2007 में 4900 लाख टन तक पहुंचा सकता है तो फिर भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता?