उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को अपनी व्यवस्था में कहा कि पुत्रियों को समता के उनके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है और संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में उनका समान अधिकार होगा, भले ही हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन कानून, 2005 बनने से पहल ही उसके पिता की मृत्यु हो गई हो।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर और न्यायमूति एमआर शाह के पीठ ने अपने फैसले में कहा कि हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 की धारा 6 के प्रावधान में बदलाव के बाद भी इस संशोधन के पहले या इसके बाद जन्म लेने वाली पुत्रियों की सहदायिकी का दर्जा पुत्र के अधिकारों और दायित्वों की तरह ही रहता है। पीठ ने अपने फैसले में कहा कि 9 सितंबर, 2005 से पहले जन्मी बेटियां धारा 6 (1) के प्रावधान के तहत 20 दिसंबर, 2004 से पहले बेची गयी या बंटवारा की गयी संपत्तियों के मामले में इन अधिकारों पर दावा कर सकती हैं। चूंकि सहदायिकी का अधिकार जन्म से ही है, इसलिए यह जरूरी नहीं है कि नौ सितंबर 2005 को पिता जीवित ही होना चाहिए। इस फैसले ने स्पष्ट कर दिया है कि पूर्वजों की संपत्ति में पुत्रियों को समान अधिकार देने का प्रावधान करने संबंधी हिन्दू उत्तराधिकार कानून, 1956 में संशोधन पिछली तारीख से प्रभावी होगा। शीर्ष अदालत ने कहा कि इस मुद्दे पर विभिन्न उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ अदालतों में लंबे समय से अपील लंबित हैं और परस्पर विरोधी फैसलों की वजह से उत्पन्न कानूनी विवाद के कारण इस मामले में पहले ही काफी विलंब हो चुका है।
पीठ ने कहा, ‘बेटियों को धारा 6 में प्रदान किए गए समता के उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है। हम अनुरोध करते हैं कि सभी लंबित मामलों का यथासंभव छह महीने के भीतर फैसला कर दिया जाए।’ शीर्ष अदालत ने पैतृक संपत्ति में पुत्रियों को समान अधिकार देने का प्रावधान करने के लिये हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 में किए गए संशोधन से उठे इस सवाल पर यह फैसला सुनाया कि क्या यह पिछली तारीख से प्रभावी होगा।