कोई इसे महज हो-हल्ला बता रहा है तो कोई यह कह रहा है कि मामला संगीन है।
किसी की राय में बाहरी कारकों से नहीं बल्कि खुद की गलतियों से आर्थिक हालात डांवाडोल हुए हैं। बहरहाल, इतना तो तय है कि सरकारी कवायद जोरों-शोरों पर है और लोगों के बीच बहस भी। मसला बस एक ही है…और वह यह कि आर्थिक मंदी की ओर तो नहीं बढ़ रहा है देश
अमेरिकी मंदी का असर बस हो-हल्ला
मंदी और मुद्रास्फीति दो विपरीत स्थितियां हैं पर जब दोनों स्थितियां एक साथ परिलक्षित हों तो ऐसी स्थिति स्थैतिक स्फीति कही जाती है। स्थैतिक स्फीति से अभिप्राय उच्च बेरोजगारी दर के साथ मुद्रास्फीति की ऊंची दर के होने से है।
इस परिप्रेक्ष्य में केंजवादी और मुद्रावादी(मिल्टन फ्रीडमैन) दोनों नीतियां असफल दिखाई देती हैं और पूर्ति पक्ष भी इसका समाधान ढूंढने में नाकाम रहती है। ऐसे में नीति-निर्माताओं को सैद्धान्तिक रूप से बहुत ही कम सहयोग मिल पाता है। पर सूक्ष्म तौर पर इसकी पड़ताल करने पर कोई न कोई समाधान मिल ही जाता है। अमेरिकी मंदी का असर मेरे विचार से यह सिर्फ हो-हल्ला है। – अमित कुमार यादव, रसूलाबाद, तेलियरगंज,इलाहाबाद
आमदनी अठन्नी खर्चा रुपइया
किसी भी अर्थव्यवस्था में उत्पाद की कीमत उसकी मांग और आपूर्ति पक्ष से तय होती हैं। चूंकि मौजूदा परिप्रेक्ष्य में महंगाई सुरसा की तरह मुंह बाये जा रही है नतीजतन आमदन अठन्नी खर्चा रुपइया वाली स्थिति हो गयी है।
नियमित वेतन से एक परिवार की आवश्यकता की तमाम चीजें जुटा पाना मुश्किल ही है। ऐसे में स्वाभाविक है कि उत्पाद का मांगपक्ष प्रभावित होगा और अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ेगी। थोक और खुदरा जिंस कारोबार में 30 फीसदी और सर्राफा बाजार में 60-70 फीसद की रिकॉर्ड मंदी के ही शुरूआती लक्षण हैं। सरकार को चाहिए कि सांप के बिल में जाने पर लकीर पीटने की आदत छोड़े। – हर्षवर्धन कुमार, डी-5556 , गांधी विहार, नई दिल्ली-110009
आर्थिक मंदी की मार से देश बेहाल
तेल जला, सोना तपा, रुपया हुआ शिकार,
दुनिया भर में मच गया, धन का हाहाकार।
शेयर गिरे, घाटा हुआ, लोग हुए बेजार-
ऊपर से धम-धम पड़ी महंगाई की मार।
महंगाई की मार, सभी का बुरा हो गया हाल,
आर्थिक मंदी मार से, देश हुआ बेहाल। – गुलाबचंद वात्सल्य, बुधवारी बाजार, छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश-480001
तूफानों से टकराते हैं, हवाओं से है डर
तूफानों से टकराना चाहते हैं पर हवा के थपेड़ों से डर लगता है। आर्थिक मंदी की मार से दुनिया की बड़ी से बड़ी सत्ता भी खौफ खा रही है, पर यह कुछ गलत कदमों का ही परिणाम है। कुदरत के समानांतर दुनिया बनाने वाला आदमी अब अपने ही बनाये जाल में उलझा जा रहा है।
यदि समय रहते कदम न उठाये गये तो इसके भयावह परिणाम देखने को मिलेंगे। कमल के फूल को देखकर सभी खुश होते हैं पर कीचड़ को देख नाक-भौं सिकोड़ने की आदत अच्छी बात नहीं है। ऊंचे भवन और बड़ी कारें देखकर खुश होने वालों को आर्थिक मंदी से घबराने की बजाय सही उपाय अपनाकर इससे निपट लेना चाहिए। – विकास कासट,
विवेक विहार ,सोड़ाला, जयपुर
यह आर्थिक मंदी है क्या बला?
आज सारा विश्व अमेरिका में घटी एक घटना के चलते आर्थिक मंदी की कगार पर खड़ा है। पर सबसे पहले जेहन में तो यही सवाल उठता है कि यह आर्थिक मंदी है क्या? यह शब्दावली ही दुनिया की आधी आबादी की समझ से ही परे है। इसकी वजह तो यही है कि इनका जीवन रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करने में ही बीत जाता है। महंगाई तो इनकी समझ में आता है पर इस मंदी से उनकी समझ का बहुत दूर तक कोई नाता नहीं है। – राजेश कंचन, झांसी
महंगाई के बादलों से बरसेगी मंदी
इसमें कोई दो राय नहीं कि संपूर्ण विश्व पर महंगाई के काले बादल मंडरा रहे हैं। ये बादल कभी भी आर्थिक मंदी की बारिश कर सकते हैं। आज तीसरी दुनिया के ही नहीं बल्कि पहली दुनिया के देश भी महंगाई के मार से आहत हैं। अर्थशास्त्र की मांग और आपूर्ति का नियम सामानों की कीमत तय करता है।
दिनोदिन विकराल होती आबादी की समस्या से भी वित्तीय संकट गहराता जा रहा है। मांग तो बढ़ी है पर आपूर्ति इसके अनुरूप नहीं बढ़ी है। आखिर प्राकृतिक संसाधनों की भी एक सीमा है। तिस पर कृषि योग्य जमीन पर लगातार कंक्रीट के जंगल लगाये जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि खाद्यान्न संकट लगातार गहरा होता जा रहा है। दैनिक उपभोग की वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही है। – मनोज कुमार बजेवा, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार
अभी मंदी कहना जल्दबाजी होगी
आर्थिक मंदी एक व्यापक संकल्पना है। इस कारण अगला पड़ाव आर्थिक मंदी कहना जल्दबाजी होगा। अमेरिका की आर्थिक मंदी का असर जरूर भारत में देखा जा रहा है। महंगाई दर 7.41 फीसदी को छू चुकी है, लिहाजा इसका असर भारतीय अर्थव्यस्था पर भी साफ देखा जा रहा है। इस पर लगाम के लिए सरकार को ब्याज दरें बढ़ानी होंगी, जो कि टेढ़ी खीर होगा। इन सबके मद्देनजर आर्थिक मंदी तो नहीं लेकिन विकास दर को बरकरार रखना जरूर चुनौती है। – चंद्रमोहन जोशी, प्राध्यापक, अर्थशास्त्र विभाग, कीर्ति एम. डुंगरसी महाविद्यालय, मुंबई
भारत के बारे में बदलनी होगी धारणा
इस समय सारी दुनिया आर्थिक मंदी की चपेट में है लेकिन मैं समझता हूं कि भारत के बारे में यह धारणा बदलनी होगी। अमेरिका और अन्य यूरोपीय बाजारों की तरह इस पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। अब भारत की अर्थव्यवस्था में काफी हद तक सुधार आ गया है क्योंकि बीते कुछ दिनों से सेंसेक्स 14500-15500 के बीच घूम रहा है, नहीं तो यह और नीचे भी जा सकता था। – संतोष त्रिवेदी
बच नहीं सकते अंतरराष्ट्रीय असर से
मैन्यूफैक्चरिंग में बढ़ोतरी दर एक तिहाई हो जाना, रिलायंस के एक हजार पेट्रोल पंप की बंदी, रिलायंस फ्रेश का घाटे में चलना, नए मॉल्स में कमी, स्वर्णाभूषणों की मांग घटना आदि मंदी के स्पष्ट संकेत हैं। खाद्यान्न की कीमतें असामान्य रूप से बढ़ रही हैं।
चारों ओर तरलता की समस्या है, जो मंदी का प्रमुख कारण होता है। वैश्वीकरण के दौर में अंतरराष्ट्रीय प्रभावों से हम बचकर नहीं रह सकते हैं। आईएमएफ तक मान चुका है कि वर्तमान वित्तीय संकट 1930 में आई भयंकर मंदी जैसा है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की बर्बादी के कारण ही भारत भी अन्य देशों की तरह मंदी की ओर बढ़ रहा है। – प्रो. मानचंद खंडेला, आर्थिक विश्लेषक एवं स्तंभ लेखक,जयपुर, राजस्थान
बिल्कुल सामने है आर्थिक मंदी
जिस प्रकार महंगाई दर ने वर्ष 2004 के आंकड़े को पार किया है, उससे साफ जाहिर होता है कि हम आर्थिक मंदी के पड़ाव पर पहुंच चुके हैं। अमेरिका की आर्थिक मंदी और वहां के बैंकों के दीवालिया होने से यह संभावनाएं और भी मजबूत हो जाती हैं। – पूनम यादव, छात्रा, बैकिंग एंड इंश्योरेंस, मुंबई
कच्चे तेल ने लगाई है यह आग
पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत का बढ़ना ही सबसे प्रमुख है। यह कहना कि कर कम हो गया है पूरी तरह से गलत है। पहले बिक्री कर प्रथम बिंदु पर लगता था पर वैट के तहत कर सभी बिंदुओं पर लगने लगा है। – सुनील पुरवार, स्टेशन रोड, इटावा
गांवों की डगर पर चलते तो…
भारत में तीव्र आर्थिक विकास की कल्पना कृषि की उपेक्षा करके नहीं की जा सकती है। पिछले कुछ सालों में देश की आर्थिक विकास दर 8 से 9 फीसदी की रही है। पर खेती के लिए 4 फीसदी का लक्षित 4 प्रतिशत विकास दर भी सपने के समान रहा है। हमारे देश की 65 फीसदी आबादी पूरी तरह से कृषि पर निर्भर है। लेकिन जीडीपी में इसका हिस्सा लगातार कम होते-होते 15 फीसदी तक आ पहुंचा है।
शहर और उद्योग केंद्रित नीतियों ने गांव और कृषि को आकर्षणविहीन घाटे का सौदा बना दिया। ऐसे में ग्रामीण जनता की क्रयशक्ति कम होना लाजिमी है। जिस देश की अधिकांश आबादी खेती पर आश्रित हो वह इसके बगैर किस दम पर 10 फीसदी विकास का सपना देख सकता है।
खतरे की घंटी महाराष्ट्र, आंध्रपदेश और पंजाब के किसानों की आत्महत्या से ही बज चुकी थी। पर शेयर बाजार की चमक ने किसानों की मौत को अनसुना कर दिया। यह भारत केकिसानों का दुर्भाग्य है कि जब पैदावार अच्छी होती है तो फसल खेतों में ही सड़ने लगती है और पैदावार अच्छी न हो तो खाने के लाले पड़ जाते हैं। ऐसे माहौल में किसान केंद्रित योजनाओं का निर्माण और समुचित क्रियान्वयन न हो तो घोषित और अघोषित मंदी का दौर चलता ही रहेगा। – विवेक कुमार सिंह, सहायक प्रबंधक, एसबीआई, सिलीगुड़ी-734001
पुरस्कृत पत्र
खेती की अनदेखी से उपजी है मंदी
महंगाई के इस दौर के बाद दीवार पर लिखी इबारत साफ है कि आर्थिक मंदी का दौर आने वाला है और हमें इसके लिए तैयार रहना होगा। जिस देश की 74 फीसदी जनता आज भी खेती पर निर्भर है, वहां इस क्षेत्र की अनदेखी हमें भारी पड़ने वाली है। आज से नहीं वर्ष 1991 से खेती की हम उपेक्षा करते आ रहे हैं।
उत्पादकता बढ़ाने का कोई उपाय हमने नहीं किया है और यही भूल अब भारी पड़ने जा रही है। उत्पादकता बढ़ाने पर विशेष जोर देना होगा। आखिरकार 74 फीसदी के विकास के बिना कुछ बनने वाला नहीं है। किसान को उपज का वाजिब दाम मिले, तभी देश मंदी से उबर सकेगा। अगर एक बार आर्थिक मंदी का दौर शुरु हो गया तो इसे 3-4 साल तक रोक पाना आसान न होगा। – रमेश यादव, आइएएस (रिटा), लखनऊ
आखिर क्यों आई ऐसी नौबत
महंगाई को नियंत्रित करना सरकार के लिए टेढ़ी खीर बनता जा रहा है। ऊपर से अर्थव्यवस्था में रह-रहकर उतार-चढ़ाव आर्थिक मंदी की संभावना को और बलवती बना रही है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि मंत्रियों के अनुसार अगर सरकार को इसके कारण और प्रभाव का पता था तो फिर ऐसी नौबत आयी ही क्यों? हकीकत तो यही है कि आर्थिक उदारीकरण के मदमस्त बयार में हमने अपनी मार्केट इकनॉमी मेकनिज्म को कुछ ज्यादा ही लचीला और उदार बना दिया है। – सुशीला देवी, पूर्वी लोहानीपुर, पटना-800003
महंगाई छोड़ जाती है मंदी की लकीरें
अभी हम महंगाई का पहला पड़ाव ही पार कर रहे हैं पर इसका अगला पड़ाव आर्थिक मंदी का है। यह तो निश्चित है कि महंगाई जब-जब बढ़ती है, वह अपने पीछे आर्थिक मंदी की लकीरें छोड़ जाती है। आज महंगाई केवल घरेलू मोर्चे तक ही न रहकर वैश्विक स्तर तक फैल गई है। सवाल है कि महंगाई कहां तक बढ़ेग़ी? यह कहना मुश्किल पर महंगाई की रेल अपने पीछे आर्थिक मंदी का धुंआ छोड़ते जा रही है। लोगों को ज्यादा पैसे देकर सामान खरीदना पड़ता है जिससे जमापूंजी कम होती जाती है। – विकास वात्सल्य, बुधवारी बाजार, छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश-480001
यह अर्थव्यवस्था का संक्रमण काल है
जीडीपी की मौजूदा प्रवृत्तियों का गहन विश्लेषण करें तो पायेंगे कि यह जो दौर है असल में वह हमारी अर्थव्यवस्था के बदलाव का दौर है। अब हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आश्रित से बदलकर सर्विस आश्रित अर्थव्यवस्था में तब्दील हो रही है। इस लिहाज से यह संक्रमण का दौर है। इसी हफ्ते हमारे प्रधानमंत्री ने बाजार को और खोलते हुए 34 वस्तुओं पर से आयात शुल्क को घटा दिया है। हालांकि सामानों की कीमत तो कम होगी पर इससे हमारा काफी पैसा अंतरराष्ट्रीय बाजार में जाएगा। – ज्योति प्रकाश, लखनऊ विश्वविद्यालय
मंदी नहीं सुस्ती का दौर है अभी
महंगाई फिलहाल पूरे शबाब पर है। यह ऐसी चीज है जो किसी भी सरकार और उसकी जनता के लिए परेशानी का सबब होता है। पर इसका मतलब यह नहीं कि आगे देश में मंदी का माहौल कायम हो जाएगा। मेरा मानना है कि इसका अगला पडाव आर्थिक मंदी तो कतई नहीं होगा। किसी दूसरे क्षेत्र की तरह ही हमारे यहां का सर्विस सेक्टर फल-फूल रहा है। यह क्षेत्र रोजगार के लिहाज से बहुत ही महत्वपूर्ण है। निकट भविष्य में अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी होने की संभावना है। – प्रभजोत कौर, एचडीएफसी बैंक, चंडीगढ़
बकौल विश्लेषक
भूमंडलीकरण के ओवरडोज से हुई है तबियत नासाज
देश में इस वक्त आर्थिक मंदी काफी गहरी है और आने वाले समय में यह और गहरा सकती है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारा देश आर्थिक मंदी की ओर तेजी से बढ़ रहा है। आर्थिक मंदी के मुख्य रूप से दो कारण हो सकते हैं- एक तो अंदरूनी और दूसरा बाहरी कारण। हमारे देश में पिछले 15 सालों में इंफ्रास्ट्रक्चर (बुनियादी जरूरतों) में जितना विकास होना चाहिए था, उतना हो नहीं पाया है।
हम लोगों ने कुछ ज्यादा ही भूमंडलीकरण कर दिया है। ऐसा नहीं कि भारत में पहली बार मंदी आई है। जब फाइनेंशियल मार्के ट में इस तरह की गिरावट आती है तो आर्थिक मंदी और तेज हो जाती है। वर्तमान में मुद्रास्फीति की दर बढ़ने की वजह से भी आर्थिक मंदी तेज हुई है। कुल मिलाकर कहा जाए तो हमारी अर्थव्यवस्था में काफी तेजी से गिरावट आएगी। यह गिरावट अमूमन सभी सेक्टरों- इंडस्ट्रियल, फाइनेंशियल, सर्विसेज और रियल एस्टेट आदि में देखने को मिलेगी।
कहा जाता है कि अमेरिका में छींक भी आ जाए तो पूरी दुनिया में आंधी चलने लगती है। तो अगर उस आंधी से बचना है तो काफी हद तक हमें अपनी अर्थव्यवस्था को दोबारा से बंद करना होगा। खासकर उन नाजुक क्षेत्रों में, जहां मंदी के असर पड़ने की संभावनांएं अधिक है।
यहां अर्थव्यवस्था को बंद करने का अर्थ देश की कंपनियों को ज्यादा सुरक्षा देने से है। इसके बाद जो हमारी डिमांड है, उसे जेनरेट करना पड़ेगा। लिहाजा हमें सामाजिक और आर्थिक इन्फ्रास्ट्रक्चर पर निवेश करना होगा। सरकार को चुंगी कर बढ़ाना चाहिए, जिससे बाहर से माल कम आए और उत्पादन तेज हो सके। – अरुण कुमार, प्रोफेसर (अर्थशास्त्र), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
बातचीत: पवन कुमार सिन्हा
इस भवंर से बच जाएंगे, गर आरबीआई का मिला सहारा
दुनिया के आर्थिक हालत दिनों-दिन खराब ही होते जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमफ) ने भी हाल में गहरी आर्थिक मंदी की पुष्टि की है। अमेरिका में बैंक और वित्तीय संस्थानों की आधार पूंजी का अच्छा खासा-हिस्सा डूब चुका है।
आर्थिक विकास को जो वैश्विक मंदी प्रभावित कर रही है, वह महंगाई की रिकॉर्ड ऊंची दर की वजह से और ज्यादा खराब होती जा रही है। तेल के नए भंडार नहीं खोजे जाने और खाद्य पदार्थों की वैश्विक आपूर्ति अब तक के अपने न्यूनतम स्तर पर मौजूद होने से दुनिया में महंगाई की इतनी ऊंची दर पहले कभी नहीं देखी गयी थी।
हालांकि इस बात पर लगभग आम सहमति है कि वित्तीय वर्ष 2008-09 में आर्थिक विकास की पटरी पर भारत की गाड़ी 7 से 7.5 फीसदी की रफ्तार से तो दौड़ेगी ही। इस रफ्तार की वजह (अप्रैल 2008 में स्टेटसगुरु के चार्ट के अनुसार) इसका कारण यह है कि इस बुरे दौर में भी कारपोरेट जगत अपना निवेश नहीं खींच रहा है। इसके अलावा खुशी का एक कारण छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट भी है।
यदि केंद्र सरकार के ही नक्शे कदम पर चलते हुए ही राज्य सरकारों ने भी वेतन में बढ़ोतरी कर दी तो इससे खपत मांग में जीडीपी के आधा फीसदी की अतिरिक्त वृद्धि हो जाएगी। पर चिंता की वजह आरबीआई के वे कदम हैं, जो वह ब्याज दर और सीआरआर बढ़ाकर बाजार से तरलता कम करने के लिए उठाना जारी रख सकता है।
पहले ही ऊंची ब्याज दर की वजह से औद्योगिक विकास और उपभोक्ता मांग सुस्त हो चुकी है। यदि यह आगे भी जारी रहा तो इससे निवेश पर भी असर पड़ेगा। अब उद्योग जगत ऊंची ब्याज दर पर भी बैंकों से लोन लेने के लिए और ज्यादा निर्भर हो गया है। – सुनील जैन, एसोसिएट एडिटर, बिजनेस स्टैंडर्ड
…और यह है अगला मुद्दा
सप्ताह के ज्वलंत विषय, जो कारोबारी और कारोबार पर गहरा असर डालते हैं। ऐसे ही विषयों पर हर सोमवार को हम प्रकाशित करते हैं व्यापार गोष्ठी नाम का विशेष पृष्ठ। इसमें आपके विचारों को आपके चित्र के साथ प्रकाशित किया जाता है।
साथ ही, होती है दो विशेषज्ञों की राय। इस बार का विषय है ब्याज दरों की संभावित बढ़ोतरी झेल सकेंगे कारोबारी ? अपनी राय और अपना पासपोर्ट साइज चित्र हमें इस पते पर भेजें:बिजनेस स्टैंडर्ड (हिंदी), नेहरू हाउस, 4 बहादुरशाह जफर मार्ग, नई दिल्ली-110002, फैक्स नंबर- 011-23720201
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आशा है, हमारी इस कोशिश को देशभर के हमारे पाठकों का अतुल्य स्नेह मिलेगा।