सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह उस व्यक्ति की जेल की सजा को माफ कर दिया जिसने बैंक में अपने खाते में पर्याप्त पैसा नहीं होने के बावजूद चेक जारी किया था।
इस व्यक्ति को 6 महीने के कठोर कारावास की सजा देने के अलावा भारी-भरकम हर्जाना देने का भी आदेश दिया गया था। नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स ऐक्ट की धारा 138 के तहत सामान्य तौर पर कैद की सजा सुनाई जाती है।
मालूम हो कि शुरू में एक निचली अदालत ने उसे बरी कर दिया था। लेकिन उच्च न्यायालय ने इस मामले में उसे दोषी पाया और उसे जेल की सजा सुना दी। यह व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय की शरण में चला गया।
इस ‘टी आर सचदेवा बनाम मैसर्स गुजराल टूल्स ऐंड फोर्जिंग्स’ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह महसूस किया कि इस अपराध के लिए हर्जाने के तौर पर 4 लाख रुपये का भुगतान ही पर्याप्त है और उसकी जेल की सजा को रद्द कर दिया।
दो बीमा कंपनियों से मुआवजा नहीं
मोटर वाहन दुर्घटना के लिए एक ही व्यक्ति दो बीमा कंपनियों से मुआवजा हासिल नहीं कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने यह बात ‘नैशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सेबेस्टियन के. जैकब’ मामले में कही है।
बीमा कंपनी केरल उच्च न्यायालय की शरण में चली गई और उसने यह दलील दी कि याचिकाकर्ता इसी दुर्घटना के लिए ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से पहले ही मुआवजा हासिल कर चुका है। इसलिए वह उसी दुर्घटना के लिए नैशनल इंश्योरेंस से दोबारा मुआवजे का दावा नहीं कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने कंपनी के तर्क पर सहमति जताई और केरल उच्च न्यायालय से दोहरा लाभ हासिल किए जाने के इस मामले की पुन: जांच करने को कहा है।
बंबई उच्च न्यायालय का फैसला निरस्त
सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले पर बंबई उच्च न्यायालय के अनुमोदन को निरस्त कर दिया है कि किसी भी फर्म से कोई भी साझेदार दूसरे साझेदार से संपत्ति की वसूली या अपनी फर्म को बंद कराने के मकसद से अदालतों से संपर्क कर सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने ‘वी सुब्रमण्यम बनाम राजेश राघवेंद्र राव’ मामले में अपील को मंजूर कर लिया और कहा, ‘अगर बेईमान साझेदार का कारोबार पर नियंत्रण है या वह ज्यादा ताकतवर है तो वह अपने साझेदार को साझेदारी के लाभ से वंचित रख सकता है।
यह बेहद कठोर और अन्यायपूर्ण हो सकता है। भुक्तभोगी साझेदार के पास कोई उपाय नहीं रह जाता है। वह पंजीकरण में सहयोग करने के लिए नुकसान पहुंचाने वाले साझेदार को बाध्य करने के लिए न तो मुकदमा कर सकता है, क्योंकि ऐसा मुकदमा विचारार्थ मंजूर करे जाने योग्य नहीं होगा, और न ही वह मध्यस्थता का सहारा ले सकता है।’ इसलिए यह फैसला अनुच्छेद 300ए, 14 और 19 (1) (जी) के तहत संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है।
केरल स्टेट कैश्यू डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की अपील खारिज
सर्वोच्च न्यायालय ने केरल स्टेट कैश्यू डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की अपील को खारिज कर दिया है जिसमें रिक्यूजीशनिंग ऐक्ट के तहत काजू फैक्टरियों रिक्विजिशन अवधि को अनिश्चित काल के लिए जारी रखे जाने पर जोर दिया गया था। न्यायालय ने जोर देकर कहा कि दरअसल, निगम ‘रिक्विजिशन’ के नाम पर कॉरपोरेशन इकाइयों की स्थायी रूप से खरीद नहीं कर सकता।
मांग की अवधि संक्षिप्त और निश्चित होनी चाहिए। यह अधिग्रहण से अलग है। सर्वोच्च न्यायालय ने केरल स्टेट कैश्यू डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के उस तर्क को भी खारिज कर दिया कि उसने काजू उद्योग में काम कर रहे श्रमिकों के लाभ को ध्यान में रख कर ही ऐसा किया था।