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‘सच्चे न्याय’ की आस में अपील पर अपील

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 05, 2022 | 9:11 PM IST

अदालती मुकदमेबाजी में फंसे किसी शख्स को दो चुनौतियों से दो-चार होना पड़ता है। पहली चुनौती मुकदमे की सुनवाई के बार-बार टलने यानी तारीख पर तारीख पड़ने से है।


उनकी दूसरी चुनौती का सरोकार बार-बार अपील से संबधित है, जिसका सिलसिला सुप्रीम कोर्ट तक चलता है। यदि बात सिर्फ एक अपील तक सीमित हो, तो अच्छा है, पर कानूनन छह अपीलें जायज हैं। मुकदमे में मात खा चुके अपने मुवक्किल को वकील यही नसीहत देते हैं कि वह अगली उच्च अदालत में अपील दायर करे। ऐसे मामलों में कुछ लोगों को कामयाबी भी मिलती है, क्योंकि यह मुमकिन होता है कि अगली अदालत उनके पक्ष से सहमत हो।


इन बातों को ध्यान में रखते हुए यह जरूरत महसूस की गई कि किसी मामले को लंबा खिंचने से बचाने के लिए या उसे लंबी अदालती प्रक्रिया से बचाने के लिए कुछ कानूनी प्रावधान किए जाएं। इसी के मद्देनजर नागरिक प्रक्रिया संहिता (सिविल प्रोसिजर कोड) 1976 में संशोधन किया गया।


संशोधन के मुताबिक, हाई कोर्ट किसी मामले में दूसरी अपील (सेकंड अपील) को तब तक स्वीकार नहीं करेगा, जब तक उसमें इस बात का जिक्र न हो कि उस खास मसले का सरोकार ‘कानून के महत्वपूर्ण सवाल’ से है। हालांकि संशोधन के बावजूद हाई कोर्ट द्वारा इस नियम का उल्लंघन अक्सर किया जाता है, चाहे उसकी वजह दबाव हो या फिर कुछ और।


पिछले साल सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे 50 मामलों पर अपना फैसला दिया, जिनका सरोकार दूसरी अपील से था। इन मामलों पर फैसला देते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने कई उच्च न्यायालयों की तीखी आलोचना की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कई उच्च न्यायालयों ने ऐसे मुकदमों को दूसरी अपील के लिए स्वीकार किया, जिनका संबंध कानून के महत्वपूर्ण सवाल से था ही नहीं।


दूसरी ओर, सचाई यह है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाई कोर्टों को लगातार आड़े हाथों लिए जाने के बावजूद यह चलन कानूनी तंत्र का हिस्सा बन चुका है। इस कड़ी में सबसे ताजातरीन मामला कश्मीर सिंह बनाम हरनाम सिंह का है, जिसमें पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई।


इसमें हाई कोर्ट के फैसले पर इस बात के लिए ऐतराज जताया गया था कि हाई कोर्ट ने इस मामले से जुड़ी दूसरी अपील पर सुनवाई की, बावजूद इसके कि मामले का सरोकार कानून के महत्वपूर्ण सवाल से नहीं था।जबकि नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 100 के तहत ऐसा होना कानूनी रूप से अनिवार्य है।


सुप्रीम कोर्ट ने भी पाया कि हाई कोर्ट ने इस मामले में इस नियम का पालन नहीं किया है और सुप्रीम कोर्ट ने यह मामला वापस हाई कोर्ट को सुपुर्द कर दिया और आदेश दिया कि हाई कोर्ट इस मामले पर दोबारा विचार करे और इस बात का निर्धारण करे कि इसमें ‘कानून के महत्वपूर्ण सवाल’ का पहलू शामिल है या नहीं।


इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा – ‘ऐसा बार-बार देखा गया है कि अपील से संबंधित ज्ञापन पर कानून के महत्वपूर्ण सवाल का जिक्र किए बगैर हाई कोर्ट दूसरी अपील से संबंधित मामलों को दाखिल कर लेता है। हाई कोर्ट नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 100 के तहत कानून के महत्वपूर्ण सवाल की जांच किए बगैर दूसरी अपील स्वीकार कर उन पर फैसला दे रहे हैं। पर धारा 100 के तहत किए गए प्रावधानों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए।


दूसरी अपील को स्वीकार किए जाने की वजह महज तथ्यात्मक नहीं होनी चाहिए। तथ्य से जुड़े महत्वपूर्ण सवालों और कानून के महत्वपूर्ण सवालों में फर्क किया जाना जरूरी है।’हालांकि ‘कानून के महत्वपूर्ण सवाल’ की ठोस और स्पष्ट परिभाषा दिया जाना संभव नहीं है, फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दशक में अपनी ओर से इसे स्पष्ट करने की कई कोशिशें की हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी ही एक कोशिश सेंचुरी एसपीजी ऐंड मैन्युफैक्चरिंग कंपनी के मामले में की थी।


सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा किसी खास मामले की इस जांच के लिए कि उसका सरोकार कानून के महत्वपूर्ण सवाल से है या नहीं, यह देखा जाना जरूरी है कि यह मामला सामान्य अहमियत का है या फिर यह मुकदमे की पार्टियों के अधिकारों को सीधे तौर पर या मूल रूप से प्रभावित करता है। हाई कोर्ट के पास इस बात की जांच करने का अधिकार नहीं है कि ट्रायल कोर्ट ने संबंधित मुकदमे का फैसला किन आधारों पर दिया। यानी हाई कोर्ट फैसला दिए जाने के आधारों पर सवाल खड़े नहीं कर सकता।


हालांकि हाई कोर्ट यदि यह पाता है कि निचले अपीलीय कोर्ट द्वारा निकाले गए नतीजे गलत हैं, या फिर ये कानून के प्रावधानों या बड़ी अदालतों द्वारा की गई कानून की व्याख्या के खिलाफ हैं, तो वह इसमें दखल दे सकता है। हाई कोर्ट तब भी दखल दे सकता है यदि उसे यह लगे कि निचली अदालत ने उन साक्ष्यों के आधार पर फैसला दिया है, जो अदालत में मान्य नहीं हैं, या फिर भौतिक साक्ष्यों की अनदेखी की है।


बहुत मुमकिन है कि निचली अदालत ने काफी गंभीर गलती की हो, क्योंकि निचली अदालतें अब भी योग्य जजों की किल्लत से जूझ रही हैं, फिर भी हाई कोर्ट को ऐसे मामलो में दखल देने और प्रक्रिया को नए सिरे से शुरू करने का कोई अधिकार नहीं है। गुरदेव कौर बनाम काकी (2006) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था कि बेहिचक की जाने वाली दूसरी अपीलों की वजह से हाई कोर्टों में ऐसे मामलों का एक लंबा पुलिंदा तैयार हो गया है।


लोगों की ‘चरम सत्य’ से पर्दा उठाने की मानसिकता को देखते हुए भी अपीलों की संख्या पर नकेल कसे जाने की पहल की गई। विधि आयोग की 54वीं रिपोर्ट (जिसके आधार पर नागरिक प्रक्रिया संहिता में संशोधन किया गया) में भी कुछ ऐसी ही बात कही गई थी।


आखिरकार सच्चा न्याय हासिल करने की हदें कहीं तो तय होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसला में कहा है – ‘मुकदमे में उलझे लोगों को पूर्ण संतुष्टि वाला न्याय हासिल करने की मानसिकता से बचाए जाने की जरूरत है।’ शायद सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा इसलिए कहा है कि कई लोगों की पूरी जिंदगी ही कानूनी लड़ाई में गुजर जाती है।

First Published : April 10, 2008 | 11:25 PM IST