वह बोर्ड जहां से चंद्रशेखर आजाद रावण (Chandrashekhar Azad Ravan) की यात्रा शुरू हुई थी वह आज भी अपनी जगह पर लगा हुआ है। रावण उत्तर प्रदेश की नगीना लोक सभा सीट से सांसद बन चुके हैं।
इस बोर्ड में गर्व के साथ लिखा गया है, ‘दा ग्रेट चमार डॉ. भीमराव अम्बेडकर गांव घड़कौली आपका अभिनन्दन करता है।’ सहारनपुर के निकट स्थित घड़कौली गांव में ब्राह्मणों और राजपूतों के अलावा बड़ी तादाद में दलित-चमार और मुस्लिम समुदाय के लोग रहते हैं।
गांव को दा ग्रेट चमार गांव बताने वाला बोर्ड 2016 में लगाया गया था। गांव के उच्च जातियों के लोगों ने इस पर आपत्ति की थी। दलितों ने इसे हटाने से मना कर दिया था। दोनों जातियों के बीच बातचीत विफल रही और एक दिन इस बोर्ड को बिगाड़ दिया गया।
उस समय चंद्रशेखर आजाद मोटरसाइकिल सवारों के दस्ते के साथ ‘जय भीम’ और ‘जय भीम आर्मी’ के नारे बुलंद करते हुए पहुंचे। तनाव बढ़ा। दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर पत्थर फेंके और जांच के लिए भेजे गए पुलिसकर्मियों तक को घसीट दिया गया।
इसके साथ ही सीधे टकराव वाली दलित राजनीति का दौर शुरू हुआ जो युवा पीढ़ी ने नहीं देखा था। उसी महीने राजपूत राजा महाराणा प्रताप के जन्मदिवस के अवसर पर जिले में और अधिक ठाकुर-दलित झड़पें हुईं।
राज्य सरकार ने आजाद की भीम आर्मी को हिंसा भड़काने का दोषी माना। आजाद ने दावा किया कि सरकार उस आंदोलन को मलिन करने के लिए उसे निशाना बना रही है और ऊंची जातियों के अपराधियों को बचा रही है। राज्य प्रशासन ने आजाद को गिरफ्तार कर लिया। मामला न्यायालय में पहुंचा और उच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया।
परंतु इसके कुछ ही घंटे के भीतर योगी आदित्यनाथ की सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत दोबारा गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। नागरिक अधिकार समूहों के भारी विरोध के बीच उन्हें दोबारा जेल में डाला गया और इसी दबाव में उन्हें छोड़ा भी गया।
जेल से बाहर आने के बाद 2020 में आजाद ने आजाद समाज पार्टी का गठन किया और चुनाव लड़ने का इरादा जताया। आजाद समाज पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) के कड़े प्रतिरोध के बीच 2022 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया।
बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने भी उसका विरोध किया क्योंकि उसे अपने किले में सेंध लगती नजर आ रही थी। आजाद ने गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़ा लेकिन 4,000 से थोड़े अधिक मतों के साथ वह चौथे स्थान पर रहे। परंतु इन बातों ने उन्हें राजनीतिक परिदृश्य पर स्थापित कर दिया।
जब वह जेल और अस्पताल में थे तब प्रियंका गांधी ने उन्हें फोन किया। आजाद ने इस सप्ताह के आरंभ में घोषणा की कि वह इंडिया गठबंधन का समर्थन करेंगे। उनकी इस घोषणा को उस दौर में बने संबंधों की परिणति माना जा सकता है।
चंद्रशेखर आजाद का जन्म सहारनपुर के घड़कौली गांव में एक चमार परिवार में हुआ था। उन्होंने ठाकुर समुदाय द्वारा संचालित एक कॉलेज में अध्ययन किया और दलित छात्रों के साथ भेदभाव को करीब से देखा। उन्होंने इससे लड़ने की ठानी। उनके पिता एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे।
उन्होंने आजाद को सलाह दी कि वह अपनी लड़ाई में न्याय के साथ खड़े हों। यह बात अधिक लोग नहीं जानते लेकिन आजाद ने अपना राजनीतिक करियर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के साथ शुरू किया था जो भारतीय जनता पार्टी का छात्र संगठन है। वह अपने साक्षात्कारों में कह चुके हैं उन्होंने भाजपा छोड़ने का निर्णय लिया क्योंकि उन्होंने देखा कि दलितों और मुस्लिमों के बीच लड़ाई में तो भाजपा दलितों का साथ देती लेकिन ऊंची जातियों और दलितों के बीच लड़ाई में वह गायब हो जाती।
एक आंबेडकरवादी और कांशीराम (लेकिन मायावती नहीं) के प्रशसंक होने के नाते उन्होंने भी दलितों को एकजुट करने के लिए कांशीराम के ही तौर तरीके अपनाने की ठानी। उन्होंने शिक्षा, अफसरशाही और आत्मरक्षा का मार्ग चुना।
आजाद समाज पार्टी की पूर्ववर्ती भीम आर्मी ने 18 वर्ष से अधिक आयु के दलितों से आग्रह किया कि वे उसके साथ जुड़ें। अधिकांश सदस्य चमार समुदाय या उसकी उपजाति जाटव से हैं लेकिन यहां मुस्लिमों का भी स्वागत है। इसका कोई औपचारिक ढांचा नहीं है लेकिन दावा है कि सहारनपुर में तथा उसके आसपास इसके हजारों सदस्य हैं।
इसका जोर दलितों के सम्मान की रक्षा, उसके बचाव और उसकी बहाली के लिए सीधी लड़ाई लड़ने पर है। यह सहारनपुर जिले में 300 से अधिक भीम आर्मी स्कूल चलाती है जहां बच्चों को जाति और लिंग से परे नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती है। यह आत्मरक्षा की कक्षाएं भी चलाती है और दलितों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करती है कि वे जातीय संघर्ष वाली हर जगह पर मोटरसाइकिल का जुलूस लेकर पहुंचें ताकि उच्च जातियों का मुकाबला किया जा सके।
2022 के विधानसभा चुनाव के पहले आजाद ने समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव से बात की ताकि किसी तरह का समझौता हो सके। बातचीत नाकाम रही क्योंकि दोनों पक्ष एक दूसरे पर भरोसा नहीं कर सके।
आजाद को लगा कि समाजवादी पार्टी दलितों के वोट बैंक को इस्तेमाल करना चाहती है लेकिन उनकी समस्याओं को हल करने की इच्छुक नहीं है। उन्होंने 2024 का चुनाव अपने बूते पर लड़ने का फैसला किया। उनकी जीत दिखाती है कि एक प्रतिबद्ध नेता को रोका नहीं जा सकता है।
जाहिर सी बात है कि बहुजन समाज पार्टी उन्हें चुनौती मानती है। परंतु भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी दोनों तेजी से बढ़ रहे हैं जबकि बहुजन समाज पार्टी कमजोर पड़ रही है। अभी यह कहना बहुत जल्दबाजी होगी कि चंद्रशेखर आजाद के तौर तरीके और रणनीति बहुजन समाज पार्टी को कमजोर करके उसका स्थान ले सकेगी या नहीं।
वह दलित हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक सामाजिक शक्ति के रूप में उभरी है। परंतु अभी उसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहर एक राजनीतिक शक्ति के रूप में अपनी जगह बनानी है।