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संपादकीय: देश में गर्मी का प्रकोप

जलाशयों के जलस्तर में 35 फीसदी तक की गिरावट आ चुकी है, ऐसे में जल संकट आसन्न है, जैसा कि इस साल हम बेंगलूरु में देख चुके हैं।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- May 20, 2024 | 10:48 PM IST

देश के एक बड़े हिस्से में लू (Loo) का प्रकोप चल रहा है। इससे लोगों की सेहत और उत्पादकता पर खतरा गंभीर हो सकता है। विश्व बैंक (World Bank) के एक अध्ययन के मुताबिक, देश का करीब 75 फीसदी कार्यबल कृषि और निर्माण क्षेत्र में गर्मी का सीधे सामना करने वाले श्रम पर निर्भर करता है।

इसके मुताबिक साल 2030 तक गर्मी के प्रकोप से जुड़ी उत्पादकता में गिरावट की वजह से दुनिया भर में कुल होने वाली नौकरियों के नुकसान में अकेले भारत का योगदान करीब 43 फीसदी तक हो सकता है।

सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि लू (Loo) का प्रसार और घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यह फैलाव साल 2009 के नौ राज्यों से बढ़कर साल 2020 में 23 राज्यों तक (2020 महामारी का वर्ष था जब लॉकडाउन की वजह से आर्थिक गतिविधियां ठप पड़ गई थीं) हो गया। इसी अवधि में लू के औसत दिनों की संख्या तेजी से बढ़ते हुए 7.4 दिन से 32.2 दिन तक पहुंच गई। यह उत्साहजनक है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने इस समस्या का संज्ञान लिया है और तत्परता से कदम उठाए गए हैं।

उदाहरण के लिए साल 2016 से ही, जब लू से 2,000 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी, केंद्र सरकार ने लू की रोकथाम और प्रबंधन के लिए राज्यों में कार्य योजना बनाने के लिए एक व्यापक ढांचे के रूप में राष्ट्रीय दिशानिर्देश तैयार किए।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) ने निर्धारित किया है कि किसी इलाके में लू की घोषणा तब की जानी चाहिए, जब वहां वास्तविक अधिकतम तापमान 45 डिग्री सेल्सियस से ऊपर बना हुआ हो, सामान्य अधिकतम तापमान कुछ भी हो। इस मामले में सबसे उपयोगी दस्तूर यह अपनाया जाता है कि भारतीय मौसम विभाग लू की एक चेतावनी जारी करता है और इससे बचने के लिए क्या करें, क्या न करें का एक मानक पैकेज होता है।

नियोक्ताओं ने इस मामले में कुछ कदम उठाए। गर्मी के संपर्क वाले काम को रात के थोड़े ठंड वाले घंटों के लिए टाल दिया दिया गया, एक ऐसा बदलाव जिसे कुछ समय पहले कृषि श्रमिकों ने अपनाया था।

इन सबका नतीजा यह हुआ कि लू से संबंधित मौतों की संख्या 2015 के 2040 से तेजी से घटकर 2020 में केवल 27 रह गई है। वैसे तो ये संख्या सराहनीय हैं, लेकिन आगे के लिए बड़ी चुनौती यह है कि लू प्रबंधन को किस तरह से एक सतत अनिवार्यता के रूप में विस्तारित और संस्थागत बनाया जाए। इसके लिए सिर्फ लू की चेतावनी और परामर्श जारी करने से काम नहीं चलने वाला; सूक्ष्म और वृहद नीति स्तरों पर ठोस और व्यावहारिक नीतियां अपनाने की जरूरत है।

उदाहरण के लिए जलाशयों के जलस्तर में 35 फीसदी तक की गिरावट आ चुकी है, ऐसे में जल संकट आसन्न है, जैसा कि इस साल हम बेंगलूरु में देख चुके हैं। इसके लिए शहरी प्रशासन द्वारा सभी ऊंची इमारतों में जल संचयन प्रणाली को लागू करने के लिए तत्काल कवायद की आवश्यकता है, एक ऐसा आदेश जिसका पानी की कमी वाले शहरों में उल्लंघन अधिक देखा जाता है।

नीतिगत स्तर पर, राज्य सरकारों को निश्चित तौर पर राजनीतिक नुकसान वाले कड़े कदम उठाने होंगे तथा पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में सिंचित क्षेत्रों में गन्ना और चावल जैसी पानी की अधिक खपत वाली फसलों को प्रोत्साहन देने की नीति में बदलाव करते हुए कम जल की जरूरत वाले श्री अन्न जैसे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा देना होगा जिनमें लोगों की सेहत में सुधार करने की क्षमता भी है।

अन्य स्पष्ट उपायों में सार्वजनिक स्थानों पर अधिक पेड़ लगाना शामिल हो सकता है जिसे कि दुबई और सिंगापुर जैसे शहरों के वास्तुशिल्प मानकों में अनिवार्य और निर्धारित किया गया है जिससे एयर कंडीशनिंग पर दबाव कम होता है। साथ ही, दफ्तरों के काम के घंटों में भी बदलाव कर दिन में थोड़ा और पहले शुरू करने और दिन के तापमान चरम से पहले समाप्त करने की व्यवस्था की जा सकती है।

बिजली की मांग चरम पर होने के कारण प्रदूषण फैलाने वाले कोयले से चलने वाले संयंत्र भारी मात्रा में कोयला उठा रहे हैं। ऐसे में बैटरी भंडारण प्रौद्योगिकियों को अपनाने में तेजी लाने की कुछ तत्परता दिखानी होगी ताकि पवन और सौर जैसे नवीकरणीय स्रोत बिजली उत्पादन में अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकें। भारत, जो कि इस तरह के चलन का केंद्र बन गया है, यहां अगले दशकों में लू का जोखिम और तेजी से बढ़ने की आशंका है, इसलिए इसे पहले से काफी तेज गति से काम करना होगा।

First Published : May 20, 2024 | 10:21 PM IST