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जिंदगी की अधूरी दास्तान

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 05, 2022 | 9:11 PM IST

एक आत्मकथा के रूप में आडवाणी की किताब उम्मीदों पर पूरी तरह खरी नहीं उतरती है।


फिलहाल देश के सबसे वरिष्ठ राजनेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में 60 साल से भी ज्यादा के अपने सार्वजनिक जीवन (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी) के बारे में बहुत कुछ लिखा है।


लेकिन उन्होंने कराची के अपने अनुभवों या अपने परिवार के बारे में कुछ भी अहम जानकारी नहीं दी है। आडवाणी ने अपने जीवन के शुरुआती 20 साल कराची में ही गुजारे थे।


यह बात हम सभी जानते हैं कि जब उनकी उम्र 13 साल थी, तभी उनकी मां का देहांत हो गया था और उनके पिता व्यवसायी थे। देश विभाजन के बाद आडवाणी के पिता अपनी 80 साल की बूढ़ी मां को लेकर काशी गए थे और साथ ही उन्होंने अपना बाकी जीवन गुजरात में गुजारा था।


एल. के. आडवाणी ने महज कुछ पन्नों में इस बात को सिमटा दिया है कि किस तरह उन्होंने शादी करने का फैसला किया (संघ के प्रचारक से अपेक्षा की जाती है कि वे विवाह न करें), ऑर्गेनाइजर में नौकरी की और मुंबई की एक लड़की से शादी कर पारंपरिक गृहस्थ जीवन शुरू किया। यह बात कमोबेश सभी लोग जानते हैं कि वह अपने स्कूल के दिनों में एक मेधावी छात्र थे, लेकिन हमें यह बात नहीं मालूम है कि स्कूल के दौरान ही आरएसएस में शामिल होने के लिए वह किस तरह प्रेरित हुए।


सिवाय इसके कि उन्हें इसकी प्रेरणा अपने दोस्त से मिली थी, जो एक दिन लॉन टेनिस का गेम बीच में ही छोड़कर आरएसएस की बैठक में शामिल होने के लिए चला गया था।मुमकिन है कि पाठकों की असंतुष्टि की प्रमुख वजह उनके द्वारा अपनाई गई लेखन शैली रही हो। उनकी आत्मकथा 5 खंडों में विभाजित है।


हालांकि यह आत्मकथा विषयवस्तु से भटकती नजर आती है। मसलन कराची स्थित रामकृष्ण मिशन के स्वामी रंगनाथनंदा के प्रवचन की ओर आकृष्ट होने की वजहों की चर्चा करते वक्त वह स्वामीजी और रामकृष्ण मिशन द्वारा किए गए कार्यों की तारीफ करने लगते हैं। इसके साथ ही एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान और बीजेपी के वरिष्ठ नेता के रूप में अपनी भूमिका का जिक्र भी करने लगते हैं। यह भटकाव उनकी राजनीतिक विकास यात्रा के विश्लेषण की कीमत पर हुआ है।


वह आजाद भारत के सबसे अनुभवी राजनेताओं में शामिल हैं, जिसे आजादी के बाद होने वाले तमाम महत्वपूर्ण घटनाक्रमों का अनुभव है। चाहे वह 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी लगाए जाने का मामला हो या जनता पार्टी के गठन (जिसमें वह मंत्री भी रहे) या फिर अयोध्या आंदोलन शुरू करने मामला, जिस वजह से उनकी पार्टी 1998 में केंद्र में सत्ता पर काबिज हो सकी।


आत्मकथा में रंगनाथनंदा का जिक्र काफी महत्वपूर्ण है। रामकृष्ण मिशन के इस प्रचारक के बारे के आडवाणी ने बताया है कि इस शख्स के विचारों ने उन्हें जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर ) का तमगा देने में परोक्ष रूप से काफी हद तक प्रभावित किया। आडवाणी ने 2005 में अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताया था। इसी तरह अहम आर्थिक मसलों पर भी उन्होंने खुलकर अपनी राय जाहिर नहीं की है।


उन्होंने एनडीए सरकार के बहुचर्चित प्रचार अभियान ‘इंडिया शाइनिंग’ पर अपनी असहमति जताई है, जिसके जरिए उनकी पार्टी ने 2004 का आम चुनाव जीतने की कोशिश की थी, लेकिन बुरी तरह नाकाम रही थी।


बहरहाल यह बात सच है कि कंधार संकट संबंधी खुलासे के कारण यह किताब काफी सुर्खियों में है। इसके अलावा इसमें कुछ ऐसी बातें भी लिखी गई हैं, जिसके जरिए पाठकों को समझने में मदद मिलेगी कि आडवाणी को क्यों अक्सर अवसरों का लाभ उठाने में माहिर राजनेता के रूप में देखा जाता है। यह बात किताब में उनके द्वारा अयोध्या आंदोलन की कहानी बयां करने से भी जाहिर होती है, जिसे वह अपने राजनीतिक जीवन के टर्निंग पॉइंट के रूप में देखते हैं।


एक ओर जहां वह धर्मनिरपेक्षता मामले में कांग्रेस की ढुलमुल नीति का पर्दाफाश करते नजर आते हैं (शाह बानो मामले में राजीव गांधी की भूमिका और बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में कांग्रेस की लापरवाही), वहीं दूसरी तरफ   अयोध्या मामले को लेकर उनका रवैया भी उतना ही ढुलमुल नजर आता है।


वह बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर दुख भी प्रकट करते हैं, वहीं दूसरी ओर अयोध्या आंदोलन में हिंदुओं के भारी समर्थन मिलने पर संतुष्टि और खुशी को नहीं छिपाते। गौरतलब है कि इस वजह से पूरे देश में सांप्रदायिक संकट पैदा हो गया था।


आडवाणी खुद को वास्तविक धर्मनिरपेक्षता का रहनुमा मानते हैं, जबकि सभी राजनीतिक पार्टियों और उसके नेताओं को छद्म धर्मनिरपेक्ष मानते हैं। उनका मानना है कि वोट बैंक के लिए ये पार्टियां और उनके नेता इसका सहारा लेते हैं। अपनी किताब में आडवाणी कहते हैं, ‘ छद्म धर्मनिरपेक्षता और वास्तविक धर्मनिरपेक्षता विभिन्न रूपों में आज भी मौजूद है।


मैं यह कहने से नहीं डरता कि भारत का भविष्य इस संघर्ष के नतीजों पर निर्भर करेगा।’ मुमकिन है कि वह बीमारी को पहचानने में सफल रहे हों, लेकिन वह इस बात को साबित करने में नाकाम रहे हैं कि उनके द्वारा अपनाया गया राजनीतिक तौर-तरीका इसका इलाज ढूंढने में सहायक हो सकता है।


किताब : माई कंट्री माई लाइफ 
लेखक : लालकृष्ण आडवाणी
प्रकाशक : रूपा ऐंड कंपनी
मूल्य : 595 रुपये

First Published : April 10, 2008 | 11:40 PM IST