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भारत को चाहिए नई पीढ़ी की उद्यमिता

हमारी नई पीढ़ी के उद्यमियों को जोखिम लेने वाला होना चाहिए। उन्हें नवाचारी भी होना चाहिए और वैश्विक स्तर पर महत्त्वपूर्ण कारोबारी भी। बता रहे हैं नितिन देसाई

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नितिन देसाई   
Last Updated- May 30, 2025 | 11:04 PM IST

देश में उद्यमिता के क्षेत्र में दो विशेषताओं का होना आवश्यक है। पहला, उसे इस कदर नवाचारी होना चाहिए कि वह अपनी कारोबारी योजना के अंतर्गत नए उत्पाद सामने लाए और नई प्रक्रियाओं को प्रस्तुत करे। दूसरा, उसकी मार्केटिंग भी वैश्विक होनी चाहिए ताकि वह भारत में विदेशी आपूर्तिकर्ताओं से निपट सके और वैश्विक बाजारों में भी उनका सामना कर सके।

अतीत में ऐसा होता रहा है। लक्ष्मी सुब्रमण्यन की एक अत्यंत पठनीय किताब आज़ादी के पहले के दौर में उद्यमिता को लेकर उपयोगी सूचनाएं मुहैया कराती है। मुगलों के दौर में नवाचार को प्रमुखता नहीं दी जाती थी क्योंकि वह औद्योगिक क्रांति के पहले का युग था। उस समय वित्त का महत्त्व था जिस पर शासकों का बहुत अधिक नियंत्रण नहीं था। वित्तीय और कारोबारी नेटवर्क पर उद्यमियों का दबदबा था। इसके दो प्रमुख उदाहरण हैं बंगाल के बैंकर जगत सेठ और सूरत के कारोबारी मुल्ला अब्दुल गफ्फूर जिनके पास जहाजों का बेड़ा था और जिनका प​श्चिम एशिया के कारोबार पर दबदबा था।

भारत पश्चिम एशिया के लिए प्रमुख निर्यातक देश था, जहां दो बड़े साम्राज्य यानी सफ़वी और ओटोमन बहुत बड़े बाजार थे। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि मुगल काल में निजी उद्यमिता के अधीन काफी आर्थिक तेजी देखने को मिली। उस समय वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में भारत की हिस्सेदारी 24 फीसदी थी जो 1820 तक घटकर 16 फीसदी रह गई। पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के विस्तार के बाद यह गिरावट बढ़ी।

उपनिवेशकाल में हालात बदले। भारतीय अर्थव्यवस्था में कारोबार, सैकड़ों की तादाद में मौजूद अनौपचारिक, असंगठित बाजारों की मदद से आकार लेता था जो उत्पाद के स्रोत और खपत के क्षेत्रों को जोड़ते थे। इन पर भारतीय बैंकरों और फाइनैंशर्स का दबदबा था और वे लेनदेन के रिकॉर्ड और फंड के लेनदेन के लिए हुंडी पर निर्भर रहते थे। औपनिवेशिक शासक इससे संतुष्ट नहीं थे लेकिन शासन के आरंभिक दिनों में वे भारतीय बैंकरों पर निर्भर थे।

हालांकि, जब वैश्विक व्यापार की बात आती तो भारतीय कारोबारी ब्रिटिश कारोबारी समूहों द्वारा स्थापित एजेंसियों के बढ़ते दबदबे के कारण हाशिए पर पहुंच जाते। सुब्रमण्यन ने दो लोगों का उल्लेख किया- जमशेदजी जीजीभॉय और द्वारकानाथ टैगोर। उनके मुताबिक ये दो भारतीय कारोबारी थे जिन्होंने औपनिवेशिक दबदबे को चुनौती दी और अफीम और नील के वैश्विक व्यापार में प्रमुखता से उभरे।

औपनिवेशिक काल की एक और प्रमुख बात है औद्योगिक क्षेत्र में भारतीय कंपनियों का उभार। सुब्रमण्यन स्टील और जलविद्युत के उत्पादन में जमशेद टाटा के नवाचारों और उनकी सक्रियता का खास उल्लेख करती हैं। इसके साथ ही उन्होंने तालों, टाइपराइटर और आत्मविकास के अन्य उत्पाद तैयार करने में गोदरेज की भूमिका और बाद में किर्लोस्कर, बजाज और टीवीएस सुंदरम की भूमिकाओं को रेखांकित किया। यह उस समय हुआ जब औपनिवेशिक शासकों ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारतीय कंपनियों के लिए हालात आसान बना दिए थे। मैं वालचंद हीराचंद के काम को इसमें जोड़ना चाहूंगा जिन्होंने नवाचारी इकाइयों की स्थापना की।

उदाहरण के लिए आज की हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट, नौवहन कंपनी सिं​धिया, विशाखापत्तनम में पोत निर्माण उपक्रम और प्रीमियर ऑटोमोबाइल्स। आज़ादी के पहले के दौर में कई भारतीय उद्यमियों ने नई परियोजनाओं की शुरुआत की और वैश्विक व्यापार को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई। मुगल काल में सरकार उद्यमों पर अधिक निर्भर थी न कि उद्यम सरकार पर। बाद में औपनिवेशिक काल में स्वदेशी उपक्रमों को सरकार से शायद ही मदद मिली। प्रथम विश्व युद्ध के समय अल्पकाल के लिए जरूर उनको जरूरी सहायता मिली।

स्वतंत्रता ने अतीत का सिलसिला पलट दिया और सरकार और निजी उपक्रमों के बीच मजबूत रिश्ता कायम हुआ। लाइसेंस राज के दौरान और उसके बाद भी ऐसा हुआ। हालांकि, सरकार ने विकास प्रक्रिया पर अपना नजरिया आरोपित करने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए उत्पादन संबद्ध पहल और निजी क्षेत्र को अधोसंरचना विकास योजनाओं में शामिल करने का निर्णय, चूंकि इस क्षेत्र में सरकार का एकाधिकार है इसलिए सरकार द्वारा निवेशकों का विशिष्ट चयन आवश्यक होता है।

नवाचार की बात करें तो लाइसेंस वाले दौर में इसका उभार हुआ लेकिन मुख्य रूप से वह नए सरकारी उपक्रमों के माध्यम से सामने आया। बहरहाल, इसमें अक्सर वह गति नहीं थी जो प्रबंधन स्वामित्व के माध्यम से आती है और इनमें से कई सरकारी पहलों का अंत हो गया। निजी कारोबारी क्षेत्र पर निर्भरता में 1980 के दशक में इजाफा हुआ और निजी क्षेत्र पर वास्तविक निर्भरता की शुरुआत 1991 में लाइसेंस राज समाप्त होने के बाद हुई। इसमें वित्तीय तंत्र के जबरदस्त उदारीकरण का भी योगदान था।

हाल के दशकों में उद्यमिता के क्षेत्र में प्रमुख उन्नति सॉफ्टवेयर, कारोबारी सेवाओं और डिजिटल इकनॉमी से संबंधित कारोबारी कंपनियों की तेज वृद्धि के रूप में सामने आई। भारत में कुशल श्रमिकों की किफायती उपलब्धता ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है। इसका एक सटीक उदाहरण है भारत में विदेशी स्वामित्व वाली कंपनियों की स्थापना जो वैश्विक चिप डिजाइन में 20 फीसदी की हिस्सेदार हैं। ये कंपनियां भारतीय श्रमिकों पर निर्भर हैं लेकिन भारतीय उद्यमियों पर नहीं। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि चिप निर्माण या असेंबली में स्वदेशी उद्यमों की भागीदारी का स्तर बहुत कम है।

इसके कारण सरकार को औद्योगिक विकास के लिए भारी सब्सिडी आधारित नज़रिया अपनाना पड़ता है। इस क्षेत्र में सरकार की संबद्धता का पैमाना 70 फीसदी पूंजीगत लागत सब्सिडी से पता चलता है जो गुजरात में बनाए जा रहे एक नए सेमीकंडक्टर संयंत्र को दी गई। यह राशि तकरीबन दो अरब डॉलर है। इन प्रयासों के बावजूद भारत में नवाचार का पैमाना चीन, दक्षिण कोरिया और ताईवान जैसे देशों से पीछे है। कई प्रमुख उद्यमी जो अधिक नवाचारी और वैश्विक रुझान रखने वाले हैं उन्होंने रिटेल फाइनैंस जैसे अपेक्षाकृत कम प्रौद्योगिकी वाले क्षेत्र में विविधता लाने का निर्णय लिया है। इससे भी अधिक परेशान करने वाला रुझान है बीते कुछ दशकों में विनिर्माण निवेश में धीमी वृद्धि।

हमें भारतीय उपक्रमों को नवाचार पर केंद्रित करना होगा और वैश्विक व्यापार के साथ संबद्धता बढ़ानी होगी। उद्यमिता पर एक सरकारी नीति की स्थापना करनी होगी और ऐसी प्रतिस्पर्धा की व्यवस्था करनी होगी जो बाजार की शक्तियों की ताकत को चिह्नित करे और बाजारोन्मुखी माहौल को बढ़ावा दे बजाय कि चुनिंदा कारोबारों या क्षेत्रों को बढ़ावा देने के।

पारिवारिक स्वामित्व वाली कंपनियों में प्रवर्तकों की शक्ति पर नियंत्रण और पेशेवर तरीके से कॉरपोरेट प्रबंधन में घरेलू और विदेशी संस्थागत निवेशकों के प्रभाव में इजाफा करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। स्टार्टअप्स को विस्तार देना होगा ताकि नए उत्पाद और प्रक्रियाएं सामने आ सकें। काफी कुछ वैसे ही करना होगा जैसा कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान में हो रहा है। छोटे उपक्रमों के लिए संगठित वित्तीय मदद बढ़ानी होगी। 2017 के व्यापक अध्ययन के मुताबिक अपनी वित्तीय जरूरतों के 85 फीसदी हिस्से के लिए इन्हें अनौपचारिक माध्यमों पर निर्भर रहना पड़ता है। एक ऐसी व्यापार नीति बनानी होगी जो मजबूत कारोबारी प्रोत्साहन की मदद से निर्यात का तेजी से विस्तार करे। यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि विदेशी निवेश स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा दे और तकनीकी ज्ञान का प्रभावी प्रसार हो।

अब जबकि भारत वैश्विक विकास के मोर्चों की ओर बढ़ रहा है, इसके उपक्रमों को कम लागत वाले कुशल श्रमिक मुहैया कराने की अपनी मौजूदा भूमिका से परे जाना होगा। उन्हें महत्त्वपूर्ण नवाचार करना होगा और वैश्विक व्यापार में नेतृत्व करने वाला बनना होगा। सरकार और शेयर बाजार को जोखिम लेने वाले उद्यमियों, नवाचार करने वालों और प्रमुख वैश्विक व्यापारिक गतिविधियों की मदद करनी होगी जो भारत द्वारा प्रबंधित कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय व्यापार और तकनीक में उन्नत बना सकें। वैसे ही जैसे पूर्वी एशिया के देशों ने सैमसंग जैसी कंपनियों या ताइवान ने सेमीकंडक्टर विनिर्माण कंपनी के साथ किया है।

First Published : May 30, 2025 | 10:54 PM IST