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भारत का सिनेमाई राष्ट्रवाद और मनोज कुमार का असर

यह मनोज कुमार की स्मृति को समर्पित लेख नहीं है। यह उनके उस प्रभाव के बारे में है, उन्होंने 1962- 72 तक के 2 दशकों में भारतीयों की दो पीढ़ियों में देशभक्ति को परिभाषित किया।

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- April 06, 2025 | 10:12 PM IST

बीते छह दशकों में भारतीय राष्ट्रवाद या देशभक्ति किस तरह विकसित हुई है इसे समझने का एक नजरिया इस बात पर नजर डालना भी हो सकता है कि सिनेमा, खासकर बॉलीवुड ने अलग-अलग दौर में इसे किस तरह परिभाषित किया।

‘भारत’ मनोज कुमार (वास्तविक नाम हरिकृष्ण गिरि गोस्वामी) के निधन ने हमें यह अवसर दिया है कि हम अतीत पर नजर डालें। किसी भी अन्य अभिनेता की तुलना में उन्होंने देशभक्ति, राष्ट्रवाद, अच्छी नागरिकता, विधिपूर्ण जीवन और बेहतर जीवन शैली को अधिक परिभाषित किया। अपने चुने हुए नाम ‘भारत’ के तहत उन्होंने कई किरदार निभाए जो एक परिपूर्ण भारतीय की छवि पेश करता है। यह 1996 में कमल हासन द्वारा निभाए गए ‘हिंदुस्तानी’ के किरदार से तीन दशक से अधिक पुरानी बात है। ‘हिंदुस्तानी’ ने हमें आदर्श भारतीय का कहीं अधिक समकालीन चित्र दिखाया जो अपने ‘राष्ट्रविरोधी’ बेटे को भी मार सकता है।

यह मनोज कुमार को श्रद्धांजलि नहीं है बल्कि यह उनके प्रभाव के बारे में है जिसने भारतीयों की दो पीढ़ियों के लिए देशभक्ति को परिभाषित किया। इस क्रम में उन्होंने भारत के रूप में कई विविधतापूर्ण, बलिदानी, नायकत्व से भरे और विजेता के रूप में उभरने वाले चरित्र निभाए। ‘उपकार’ (1967) में एक सामान्य सैनिक (और हरियाणा के एक किसान के बेटे) , ‘पूरब और पश्चिम’ (1969) में एक धोखा खाए स्वतंत्रता सेनानी के सुपुत्र तथा रोटी, कपड़ा और मकान (1974) में एक बेरोजगार इंजीनियर की भूमिका उन्होंने निभाई। ये सभी तेजी से बदलते भारत की थीम दर्शाते हैं। इसकी शुरुआत इंदिरा गांधी के शुरुआती दौर से हुई और यह सिलसिला आपातकाल से ही भंग हुआ जब एक नाराज युवा सामने आया। यह बीड़ा अमिताभ बच्चन ने उठाया।

सन 1965 में आई ‘शहीद’ फिल्म में मनोज कुमार ने भगत सिंह की भूमिका निभाई थी। फिल्म कामयाब रही और उनकी ओर लोगों का ध्यान गया। कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उसी समय ‘शहीद’ फिल्म देखी थी, उनसे उनकी मुलाकात हुई। शास्त्री ने उनसे कहा कि वह ‘जय जवान, जय किसान’ की थीम पर फिल्म क्यों नहीं बनाते? इसके बाद ही 1967 में ‘उपकार’ फिल्म बनी जिसे पश्चिमी दिल्ली और हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में शूट किया गया था। भारत एक विनम्र किसान था जिसने एक जवान के रूप में 1965 की जंग में हिस्सा लिया था। आपको ऐसे पोस्टर्स मिल जाएंगे जिनमें भारत ने धोती-कुर्ता पहना है और एक हल थामे हुए है तो वहीं दूसरी ओर वह सेना की पोशाक में राइफल थामे भी नजर आएगा।

फिल्म के गाने सुपरहिट रहे और कई पीढ़ियों ने उन्हें गुनगुनाया। एक गीत याद कीजिए: ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती….’। दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायाधीश प्रतिभा सिंह ने इन पंक्तियों का इस्तेमाल जेएनयू के विद्यार्थी रहे कन्हैया कुमार की जमानत के आदेश में भी किया था।

सन 1969 में ‘पूरब और पश्चिम’ फिल्म के साथ वह भारत के किरदार को एक अलग स्तर पर ले गए। आज के दौर में जब इंडिया के बजाय भारत को तरजीह दी जाती है, अगर वह फिल्म अब बनी होती तो यकीनन उसे टैक्स फ्री किया जाता और प्रधानमंत्री, उनकी पूरी कैबिनेट, अधिकांश मुख्यमंत्री और यहां तक कि सर-संघचालक भी उसे देखते। ‘उपकार’ के उलट यह फिल्म सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर केंद्रित थी। धोखा खाए और मार दिए गए एक स्वतंत्रता सेनानी का बेटा लंदन पहुंचता है। वहां वह जिस मित्र परिवार की बेटी के साथ उसका रिश्ता जुड़ना है वह यानी सायरा बानो बुरी तरह पश्चिमी सभ्यता की गिरफ्त में है। वह धूम्रपान करती है, शराब पीती है, बालों पर सुनहरी विग लगाती है। वह कभी भारत नहीं आई और न ही उसके परिवार को इसकी परवाह है।

उस पीढ़ी के एनआरआई भारत के प्रति अवज्ञा का भाव रखते थे किंतु यह भारत उन्हें समझाने में जुट जाता है। जब कोई उसे ताना मारता है कि भारत ने दुनिया को कुछ नहीं दिया सिवाय एक बड़े शून्य के तब वह जवाब देते हुए एक गीत भी गाता है- ‘जब जीरो दिया मेरे भारत ने…’। इसके अलावा वह सायरा बानो को इस तरह ठीक करता है कि आज के दौर में उसे भारी स्त्री विरोधी कहा जाता। वह उसे तब तक अपमानित और प्रताड़ित करता है जब तक कि वह भारतीय नारी नहीं बन जाती। वह राजेश खन्ना जैसे मेगास्टार के उभार का समय था लेकिन ‘पूरब और पश्चिम’ उनकी दो सफल फिल्मों के बीच भी अपनी जगह बनाने में कामयाब रही। फिल्म ने भले ही एनआरआई का मजाक उड़ाया लेकिन वह लंदन में लगातार 50 सप्ताह तक चलती रही।

करीब चौथाई सदी बाद 1994 में ‘हम आपके हैं कौन’ ने उसके रिकॉर्ड की बराबरी की। सन 1965 के बाद के वर्षों के सैन्य उफान के बाद भारत की चिंताएं बेरोजगारी, भूख, रिश्वत और भ्रष्टाचार पर केंद्रित हो गई थीं। ऐसे में ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ से एक नए भारत का उदय हुआ। यह एक पढ़ा लिखा इंजीनियर था जिसे साफगोई के चलते नौकरी नहीं मिल रही थी और वह गीत गाकर आजीविका चला रहा था। परंतु वह संघर्ष करता है और कामयाब होकर हम सबको रास्ता दिखाता है। इस बीच शोर फिल्म आती है इसमें भी कहानी एक पीड़ित किंतु बहादुर हिंदुस्तानी, एक श्रमिक हड़ताल और अमीरों के विरुद्ध संघर्ष के इर्दगिर्द घूमती है। इस फिल्म का गीत ‘इक प्यार का नगमा है…’ आज भी गुनगुनाया जाता है। ये साल भारत के लिए कई तरह से अंधेरे और अवसाद भरे थे। इंदिरा गांधी का समाजवाद मृतप्राय था।

1973 के बाद तेल का झटका लगा था, रोजगार समाप्त हुए थे और हम राशन की कतारों में लगने को विवश थे। इस बीच मुद्रास्फीति 30 फीसदी से ऊपर निकल गई थी। बेरोजगारी में इजाफा था। गुलजार ने उस दौर में ‘मेरे अपने’ नामक फिल्म बनाई थी। मनोज कुमार ने भी जल्दी ही इसे अपनाया। हालांकि रोटी, कपड़ा और मकान का रूपक हिंदुस्तानी नहीं था। पाकिस्तान के सबसे बड़े सामंती नेताओं में से एक ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो अक्सर इसका इस्तेमाल करते थे जो खुद को इंदिरा गांधी से भी बड़ा समाजवादी साबित करने में लगे थे।

आपातकाल ने मनोज कुमार की गति को भंग कर दिया लेकिन उनके भारत ने जिन सामाजिक-राजनीतिक हालात से संघर्ष किया था उन्होंने एक नाराज युवा को जन्म दिया और ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘कालिया’ और ‘कुली’ के साथ अमिताभ बच्चन बच्चन का उदय हुआ। 1980 के दशक के मध्य में राजीव गांधी के आशावादी ‘मेरा भारत महान’ के रूप में एक नई अवधारणा आई। बॉलीवुड की देशभक्ति को तब समांतर सिनेमा के रूप में अभिव्यक्ति मिली। यह सिनेमा जातिवाद, पितृसत्ता और अन्य तरह के अन्यायों से जूझ रहा था। ‘आक्रोश’, ‘मिर्च मसाला’, ‘अर्द्ध सत्य’, ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’ और ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ आदि ऐसी ही फिल्में थीं।

सन 1992 में आई तमिल फिल्म ‘रोजा’ के साथ कठोर राष्ट्रवाद की वापसी हुई। इस फिल्म में तेल क्षेत्र के एक वरिष्ठ अधिकारी के दोराईस्वामी का कश्मीरी आतंकवादी अपहरण कर लेते हैं। इसमें अरविंद स्वामी द्वारा निभाया गया किरदार उस समय पूरे देश में चर्चा में था। फिल्म को हिंदी में भी डब किया गया था और वह कामयाब रही थी। रोजा से दो बातें हुईं। पहली, जरूरी नहीं था कि मुस्लिम अच्छे व्यक्ति ही हों और हीरो के लिए अपनी जान कुर्बान कर देते हों। अब वे आतंकवादी थे। नया राष्ट्रवाद पाकिस्तान के साथ जंग पर आधारित था। मैंने पहली बार ‘रोजा’ फिल्म तमिल में मद्रास सिनेमा हॉल में देखी थी। मैं इंडिया टुडे के तमिल संस्करण की संपादक वासंती के साथ यह फिल्म देखने गया था। मैंने उनसे कहा कि टॉलीवुड ने एक बड़ा राष्ट्रवादी रुझान पैदा किया है। रोजा ने दिखाया कि पाकिस्तान के साथ नाराजगी का भाव केवल उत्तर भारतीय अवधारणा नहीं है।

उसके बाद शुरू हुआ सिलसिला आज तक जारी है। ताजा मिसाल है फिल्म ‘स्काई फोर्स’ जो भारतीय वायु सेना के 1965 के एक लड़ाकू पायलट के नायकत्व की कथा कहती है। इस बीच हमने सनी देओल का दौर भी देखा जहां आतंकवादी नजदीक स्थित मस्जिद की अजान से जागता था और बुरे व्यक्ति जो प्राय: मुस्लिम होते थे, चैन से नहीं रह पाते थे। करगिल की जंग ने अलग तरह की बेवकूफाना और बचकानी युद्ध आधारित फिल्मों को जन्म दिया जिसका चरम चुनाव के पहले आई ‘उरी द सर्जिकल स्ट्राइक’ से हुआ। 1997 में बनी फिल्म ‘बॉर्डर’ इन सबकी प्रेरणा बनी थी।

मनोज कुमार के ‘भारत’ आज क्या करते? उपकार में उन्होंने युद्ध की बुराइयां गिनाई थीं लेकिन आज अगर वह होते तो उनको युद्ध जीतना ही होता और मृत दुश्मन की बेइज्जती भी करनी होती। आखिर दुश्मन मूर्ख है और भारत का उभार हो चुका है, वह तो विकसित हो चुका है।

First Published : April 6, 2025 | 10:12 PM IST