ब्याज दरों में और बढ़ोतरी से अर्थव्यवस्था शेयर बाजारों में लगातार जारी उठापठक और अगले साल विकास दर में कमी की आशंका का मतलब यह लगाया जाना चाहिए कि छोटे निवेशक इक्विटी से पूरी तरह अपने हाथ खींच लेंगे।
अगर हम सैध्दांतिक नजरिये से देखें तो ऐसी हालत में ऐसे निवेशकों के लिए एकमात्र विकल्प बॉन्ड रह जाता है। हालांकि हालिया चलन इस सिध्दांत को मुंह चिढ़ाता नजर आ रहा है। बॉन्डों की कीमतों में कमी देखने को मिल रही है। बाजार में इस बात पर एक राय है कि इनकी कीमतें अभी और गिरेंगी।
जो लोग कीमतों के बजाय रिटर्न पर ज्यादा तवज्जो देते हैं, (याद रहे कि रिटर्न और कीमतें एक-दूसरे के विपरीत चलती हैं) उनके लिए अच्छी खबर यह है कि रिटर्न में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और भविष्य में भी यह बढ़ोतरी जारी रहने की संभावना है। इस महीने 10 साल के बॉन्ड रिटर्न का स्तर फरवरी के मुकाबले 0.5 फीसदी बढ़ा है। बैंकों के बॉन्ड का कारोबार करने वालों को पूरा यकीन है कि अभी इसमें और बढ़ोतरी की गुंजाइश है।
इस पहेली को समझने के लिए हमें भारतीय परिस्थिति को पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था के स्टैगफ्लेशन के हल्के रूप की तरह देखना होगा। स्टैगफ्लेशन से मतलब अर्थव्यवस्था की वैसी हालत से है, जिसके तहत विकास दर में मंदी के साथ-साथ महंगाई की दर में बढ़ोतरी भी जारी रहती है। बुनियादी आर्थिक सिध्दांत भी इस बात की पुष्टि करते हैं।
एक तरफ जहां उत्पादन के प्रवाह और संबंधित आंकड़े विकास दर में कमी की ओर इशारा करते हैं, वहीं महंगाई की दर में लगातार तेजी का आलम है। मसलन बीते जनवरी में औद्योगिक उत्पादन की विकास दर महज 5.6 फीसदी रही। फरवरी के अंतिम हफ्ते में क्रेडिट ग्रोथ ( मांग की परिस्थिति का सटीक सूचक) 22 फीसदी दर्ज किया गया। पिछले साल साल इसी अवधि के दौरान औद्योगिक क्रेडिट की मांग में 29 फीसदी से भी ज्यादा की बढ़त दर्ज की गई थी।
हालांकि महंगाई की दर में बढ़ोतरी का दौर पिछले हफ्ते से जारी है, लेकिन 15 मार्च को खत्म हुए हफ्ते में महंगाई की दर का 6.7 फीसदी तक पहुंचना काफी हैरान करने वाला था, जो भारतीय रिजर्व बैंक की तय दर 5 फीसदी से 1.7 फीसदी ज्यादा है।संक्षेप में कहें तो विकास के धीमा पड़ने की आशंका और इसके साथ मांग में मंदी कीमतों पर काबू करने में नाकाम रहे हैं। नतीजतन विकास दर को सहारे के लिए मौद्रिक नीतियों में दी गई छूट भी अपनी प्रांसगिकता खोता जा रहा है।
केंद्रीय बैंक विकास के बजाय महंगाई की दर को लेकर ज्यादा चिंतित रहते हैं और महंगाई दर के इस स्तर पर भारतीय रिजर्व बैंक की ब्याज दरों में कटौती की संभावना नहीं के बराबर है। अप्रैल में घोषित होने वाली नई मौद्रिक नीति के मद्देनजर बॉन्ड बाजार कीमतों के हचलच के दौर से गुजर रहा है और कारोबारी बॉन्डों की खरीद के मामले में ठंडे पड़ गए हैं। दूसरी तरफ इक्विटी निवेशक भी विकास के सूरत-ए-हाल से नाखुश हैं और अपने शेयरों को धड़ाधड़ बेच रहे हैं।
हकीकत यह है कि राजकोषीय नीति के विस्तार के दौर में होने के बावजूद इसका बॉन्ड बाजार पर कोई सकारात्मक असर नहीं दिख रहा है। गरीब किसानों के लिए कर्जमाफी और वेतन में बढ़ोतरी जैसे कदमों की वजह से आय का बडा हिस्सा सरकार से उपभोक्ताओं तक पहुंच रहा है। इसके अलावा उपभोक्ताओं तक पेट्रोल और डीजल की कीमतों की मार नहीं पहुंचे, सरकार इसके लिए भारी सब्सिडी वहन कर रही है।
ये उपाय थोड़े दिनों के लिए भले ही विकास दर में बढ़ोतरी में सहायक हो सकते हैं, लेकिन आखिरकार इससे सरकार का बजट घाटा बढ़ता है और नतीजतन उसे काफी कर्ज की जरूरत पड़ती है। इस राशि को जुटाने के लिए सरकार बॉन्ड बाजार का रुख करती है और भारी तादाद में बॉन्ड जारी करती है। इसके फलस्वरूप बॉन्ड की कीमतों में गिरावट होती है, जबकि इससे होने वाली आय बढ़ती है।
वित्त वर्ष 2008-09 के बजट में बाजार से 1,45,146 करोड़ रुपये जुटाने के ऐलान पर बाजार का रवैया काफी सकारात्मक रहा था। हालांकि, सरकारी कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोतरी जैसे खर्चों की खबर का बाजार में काफी प्रतिकूल असर देखने को मिला। बॉन्डों से होने वाली कमाई में बढ़ोतरी के एक और मायने हैं, जो पोर्टफोलियो चॉइस से भी परे है। बॉन्ड रिटर्न आखिरकार ब्याज दरों की स्थिति को दर्शाते हैं। अगर रिटर्न में बढ़ोतरी होती है, तो अर्थव्यवस्था में ब्याज दरों में भी बढ़ोतरी होगी।
सवाल यह है कि क्या हम अभी ब्याज दरों में बढ़ोतरी को बर्दाश्त कर सकते हैं?स्टैगफ्लेशन से लड़ने की कोशिश का मतलब भारतीय रिजर्व बैंक को महंगाई की बेकाबू दर को रोकने या विकास दर में कमी से निपटने में से किसी एक को चुनना होगा। अब तक केंद्रीय बैंक विकास दर को सहारा देने के बजाय महंगाई की दर पर लगाम लगाने को ज्यादा इच्छुक नजर आ रहा है। अपनी इस नीति को आगे बढ़ाने में बैंक को कुछ बातों का ख्याल रखना होगा।
पहला यह कि हम यह मानने की आजादी नहीं ले सकते कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी के बावजूद निवेश की मांग में बढ़ोतरी जारी रहेगी। पूंजीगत सामान के उत्पादन में गिरावट का दौर जारी है और सरकारी और संबंधित कंपनियों के आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं। ब्याज दरों में और बढ़ोतरी से अर्थव्यवस्था ऐसी हालत में पहुंच जाएगी, जहां पूंजी की उपलब्धता प्रभावित होगी और इसके लंबे समय तक चलने की आशंका पैदा हो सकती है।(1990 के आखिरी कुछ साल याद करें)
दूसरी बात यह कि पिछले कुछ साल में मौद्रिक नीतियों को और कड़ा करने की वजह से कई सेक्टरों मसलन हाउसिंग में उछाल में कमी आई है। इस दौरान मॉर्गेज लेंडिंग में भी काफी कमी देखने को मिली है। बहरहाल दुनियाभर के केंद्रीय बैंक इस बात पर एकमत हो चुके हैं कि जब ग्लोबल कमॉडिटी कीमतें किसी भी देश की महंगाई की दर को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभा रही हों, पारंपरिक मौद्रिक उपाय इसके लिए और खतरनाक साबित हो सकते हैं।
यूरोपीय सेंट्रल बैंक की मिसाल के जरिये हम इसे बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। महंगाई की दर के आदर्श स्थिति से काफी ऊपर पहुंचने के बावजूद यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने ब्याज दरों में कोई बढ़ोतरी नहीं की। इसके मद्देनजर भारतीय रिजर्व बैंक को भी ऐसा करने से परहेज करना चाहिए, खासकर ऐसी हालत मे जब किताबी बातों पर आधारित भविष्यवाणियां गलत साबित हो रही हैं।