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रुपये को और ज्यादा इतराने दिया जाए

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 06, 2022 | 12:03 AM IST

महंगाई दर (मुद्रास्फीति) में हुई हालिया बढ़ोतरी से यह बहस एक दफा फिर से गर्म हो गई है कि रुपये को और मजबूत होने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए या नहीं।


दूसरे शब्दों में कहें तो रुपये की विनिमय दर में और इजाफा होने दिया जाए या नहीं। इसकी पैरोकारी करने वालों का तर्क है कि रुपये की मजबूती से आयात सस्ता होगा। इस कदम के पक्षधरों का कहना है कि महंगाई दर पर नकेल सकने में यह किसी जादुई कदम से कम नहीं होगा, पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) अब तक भ्रम की स्थिति में है और उसने इस कदम की अनदेखी की है। 


पर दूसरी ओर, इस पहल का विरोध करने वालों की दलील है कि ऐसा किए जाने से निर्यात के मामले में बड़ा नुकसान होगा। इस अखबार में मेरे कुछ सहयोगी स्तंभकार भी देश भर से जुटाए गए आंकड़ों के हवाले से यह बात कह चुके हैं कि रुपये की विनिमय दर में किसी तरह की तब्दीली से महंगाई दर पर काबू पाने में किसी तरह की मदद नहीं मिलने वाली।


लिहाजा ऐसे वक्त में तथ्यों के आधार पर इस पूरे मामले की पड़ताल जरूरी है। पहली बात, ग्लोबल लेवल पर कमोडिटी की बढ़ रही कीमतों के मद्देनजर आरबीआई विनियम दर के विकल्प को काफी सक्रियता के साथ खंगाल चुका है।


डॉलर के मुकाबले रुपये की मौजूदा विनियम दर 40 के आसपास है, जो जुलाई 2006 में 46.80 तक हो चुकी थी। पिछले साल भर या डेढ़ साल में डॉलर के मुकाबले रुपये की विनिमय दर में 15 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।


मेरी राय में रुपये में दर्ज की गई मजबूती रिजर्व बैंक की उस ठोस योजना का हिस्सा थी, जो केंद्रीय बैंक द्वारा ग्लोबल लेवल पर कच्चे तेल की कीमतों में हो रही बढ़ोतरी के मद्देनजर अपनाई गई थी। पर उस वक्त रिजर्व बैंक की निंदा इस बात के लिए की जा रही थी कि वह रुपये की विनिमय दर के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं कर रहा और रुपये की मजबूती रोकने के लिए उसे और कारगर कदम उठाने चाहिए।


सचाई यह है कि रुपये की विनियम दर में ठीकठाक बढ़ोतरी के बावजूद आज महंगाई दर 7 फीसदी से ज्यादा हो चुकी है। इससे यह बात साबित होती है कि रुपये की मजबूती की मात्रा वैसी नहीं रही, जितनी होनी चाहिए। ऐसे में यह सवाल उठता है कि रुपये को और कितना मजबूत होना चाहिए था? या यूं कहें कि रुपये की किस स्तर की मजबूती को सही मजबूती माना जाना चाहिए?


इस बारे में मेरा सुझाव काफी सरल है। महंगाई दर की मौजूदा बढ़ोतरी की जड़ में ग्लोबल मार्केट में कमोडिटी की कीमतों में इजाफा होना है। लिहाजा रुपये के और मजबूत होने से ही महंगाई दर पर काबू पाया जा सकता है। कमोडिटी की कीमतें डॉलर में मापी जाती हैं।


यदि डॉलर के मुकाबले रुपये की विनियम दर को इस हिसाब से एडजस्ट किया जाए कि डॉलर की विनिमय दर में होने वाली बढ़ोतरी और रुपये की विनियम दर में होने वाली बढ़ोतरी दोनों बराबर हो जाएं, तो कमोडिटी के मोर्चे पर मुद्रास्फीति शून्य हो जाएगी। जुलाई 2006 से फरवरी 2007 के बीच, सीआरबी-रॉयटर्स कमोडिटी इंडेक्स (सभी कमोडिटी का डॉलर प्राइस इंडेक्स) में 44 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया।


यदि इस अवधि में रुपये की विनिमय दर में भी 44 फीसदी का इजाफा दर्ज किया जाता, तो भारत में आयात होकर आने वाली वस्तुओं की कीमतों में इस अवधि के दौरान व्यावहारिक तौर पर कोई अंतर नहीं आता। यानी जुलाई 2006 में वस्तुओं के आयात पर रुपये की जो मात्रा खर्च होती, फरवरी 2007 में भी वही मात्रा खर्च होती, क्योंकि इस अवधि में ‘आयातित मुद्रास्फीति’ शून्य पाई जाती।


यह शायद सबसे आसान तरीका है जो मुद्राओं की विनिमय दर में तब्दीली से एक-दूसरे पर पड़ने वाले असर का मायने ही खत्म कर देता है। गैर-कमोडिटी आयातों पर भी इससे कोई असर नहीं पड़ता। सस्ते दर पर सामान के आयात से घरेलू मोर्चे पर उत्पादकों को होने वाली परेशानी भी इस कदम से बेअसर हो जाती।


ऐसे में इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि महंगाई दर पर काबू पाने के लिए रुपये का मजबूत होना जरूरी है और अब तक रुपये में जो मजबूती देखने को मिली है, उससे कहीं ज्यादा मजबूती की दरकार है।अब जरा दूसरे तर्क पर गौर करें। फर्ज करें कि रुपये को कमजोर कर दिया जाता और 1 डॉलर की विनिमय दर 35 रुपये पर आ गई होती। यदि ऐसा होता तो महंगाई की दर कमोबेश काबू में होती।


पर यहां दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली यह कि यदि आरबीआई रुपये की विनिमय दर में तब्दीली कर महंगाई दर पर काबू पाने की पहल करता, तो उसे सबसे पहले रुपये की विनिमय दर में या तो बहुत ज्यादा बढ़ोतरी करनी पड़ती या फिर विनिमय दर में काफी ज्यादा गिरावट लानी होती। डॉलर के मुकाबले रुपये की विनिमय दर में 50 पैसे या 1 रुपये की कमी या बढ़ोतरी किए जाने से बात नहीं बनती।


दूसरी बात यह कि आरबीआई को व्यापक रणनीति बनानी पड़ी होती और इस बात का ख्याल रखना होता कि कमोडिटी की कीमतों में बढ़ोतरी से मुकाबले के लिए रुपये को उसी हिसाब से मजबूत बनाया जाए।यहां दो तरह के सवाल खड़े होते हैं। पहला, क्या देश की अर्थव्यव्था रुपये में इस तरह की मजबूती बर्दाश्त करेगी? दूसरा, यदि आरबीआई मुद्रा बाजार से अपने हाथ बाहर रखता, तो क्या रुपया उस अनुपात में मजबूत होता, जितना उसे होना चाहिए था? पहले सवाल की बात करें।


आरबीआई ने हाल ही में रुपये की मजबूती रोकने के लिए कदम उठाया है। आरबीआई ने साफ तौर पर कहा है कि मुद्रा की स्पध्र्दा का मसला ज्यादा महत्वपूर्ण है न कि विनियम दर में छेड़छाड़ के जरिये महंगाई दर पर काबू पाना।


हालांकि मुझे नहीं लगता कि आरबीआई का यह कदम बहुत सार्थक है। पिछले साल रुपये की मजबूती की वजह से निर्यात पर पड़ रहे असर के बारे में जैसी दुहाई दी गई, उसका असर उतना गंभीर भी नहीं रहा। निर्यात पर पड़ने वाला असर नगण्य रहा। अप्रैल 2007 से फरवरी 2008 के बीच निर्यात में 23 फीसदी की अच्छी बढ़ोतरी दर्ज की गई।


मेरा मानना है कि महंगाई दर पर काबू और निर्यात के मुद्दे पर देश को ज्यादा स्पर्ध्दी बनाए जाने के मामलों को नए संदर्भ में देखे जाने की जरूरत है। कोई जरूरी नहीं कि इस मामले में पिछले परंपरागत किस्म के कदम ही दोहराए जाएं। यदि ग्लोबल लेवल पर कमोडिटी की कीमतों में तेजी की वजह से महंगाई दर का बढ़ना तय है, तो क्यों न इससे निपटने के लिए रुपये की विनिमय दर में बढ़ोतरी का रास्ता ही चुना जाए।

First Published : April 28, 2008 | 2:43 PM IST