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दुनिया को मुट्ठी में करने का मंत्र

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 05, 2022 | 5:12 PM IST

लॉर्ड मेघनाद देसाई का कहना है कि आने वाले दिनों में चीन महाशक्ति बन जाएगा, जबकि भारत महज एक बड़ा लोकतंत्र होगा।


फर्ज कीजिए कि लॉर्ड देसाई की भविष्योक्ति को नजरअंदाज करते हुए भारत महाशक्ति का दर्जा हासिल कर ले। यह भी फर्ज करें कि इस दर्जे को हासिल करने के लिए 4 चीजों का होना जरूरी है – आर्थिक आकार (बड़ी और गतिशील अर्थव्यवस्था), सैन्य ताकत (जिसमें परमाणु हथियारों का जखीरा शामिल है), ताकत का ‘लचीला’ रूप और वैश्विक आर्थिक एकीकरण।


और आखिर में यह मान लीजिए कि भारत पहली 3 शर्तों को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। इसके बाद मामला वैश्विक आर्थिक एकीकरण के मसले पर आकर फंसता है। अब सवाल यह पैदा होता है कि इस लक्ष्य को कैसे हासिल कर इसका बेहतर प्रबंधन किया जाए?


पहले हम विश्व के 3 प्रमुख आर्थिक संस्थानों के इतिहास और इन संस्थानों में भारत की भूमिका पर चर्चा करते हैं। इन संस्थानों में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमफ), विश्व बैंक और गैट (अब विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ) शामिल हैं। इन संस्थानों में भारत की भूमिका के निहितार्थ में जाएं तो उसकी सहभागिता अपने देश की संप्रुभता को सुरक्षित रखने की कवायद के रूप में नजर आती है।


स्ट्रोब टालबोट के शब्दों में कहें तो भारत का रेकॉर्ड सिर्फ ‘संप्रुभता के सिपाही’ के रूप में रहा है। भारत सिर्फ इसी बात के लिए जी-जान से कोशिश करता रहा है कि जो कुछ वह नहीं करना चाहता है, उसे ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं होना पड़े। चाहे वह बैंक से उधार लेने से जुड़ा हुआ मामला हो या फिर गैटडब्ल्यूटीओ के तहत नियमों या फंड प्राप्त होने की बात। व्यापार के संदर्भ में संप्रभुता का मतलब वैसे नियमों से देश को बचाना है, जिनके पालन से भारत की आजादी छिन जाएगी।


जाहिर है इस आर्थिक सिध्दांत की कीमत भारत को चुकानी पड़ी। लंबे अर्से तक भारत को आर्थिक उदारीकरण और बाजार के खुलने का फायदा नहीं मिल सका। बाद में भारत ने उदारीकरण के फायदे को महसूस किया। हालांकि, भारत को बाहरी दुनिया के निर्देशों के पालन के बजाय रफ्तार को तेज करने के लिए और कुछ करने की जरूरत है। बहरहाल, पिछले 2 दशकों में न सिर्फ भारत के आर्थिक सिध्दांतों में बदलाव देखने को मिला है, बल्कि हितों की अवधारणाएं भी बदली हैं। 


इस बदलाव का फायदा आने वाले वर्षों में भी देखने को मिलेगा। पहला यह कि भारत का सर्विस सेक्टर अपने वजूद और विकास के लिए काफी हद तक विदेशी बाजारों पर निर्भर है। इसके मद्देनजर भारतीय निर्यात के मद्देनजर बनाई जाने वाली आर्थिक नीतियां पहले के मुकाबले अब ज्यादा महत्वपूर्ण होंगी। संरक्षणवादी विचार भले ही काफी लोकप्रिय हों, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ये काफी खतरा साबित हो सकते हैं।


दूसरा बदलाव यह हुआ है कि अब भारत सिर्फ माल और सेवाओं का बड़ा निर्यातक ही नहीं रह गया है। हमारा देश प्रंबधकीय और उद्यमकारी पूंजी का भी निर्यातक बन गया है। भारत की बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूरी दुनिया में काम कर रही हैं। भविष्य में इनका और विस्तार होगा। ऐसे में संप्रुभता के संरक्षण के मायने काफी बदल जाएंगे, क्योंकि भारत अपनी नीतियों और कार्यों से ही प्रभावित नहीं होगा, बल्कि उसके आर्थिक साझीदारों की नीतियां भी काफी प्रभावकारी होंगी।


कुल मिलाकर वैश्विक आर्थिक नीतियों की निर्माण संबंधी रणनीति में बदलाव करना होगा। सामरिक स्तर पर होने वाले इस बदलाव की वजह से कई तकनीकी सवाल पैदा होंगे। जब रणनीति में संप्रुभता का मसला अहम हो तो कोई भी देश दूसरे देशों के साथ आर्थिक लेनेदन और सौदेबाजी में निष्पक्ष रवैया (अपने देश के हित में) अख्तियार कर सकता है।


लेकिन जब संप्रुभता एक ऐसी संपत्ति बन जाती है जिसके जरिये कारोबार की जरूरत महसूस की जाने लगे, तो किसी भी देश के पास विकल्पों के अपेक्षाकृत ज्यादा संपन्न और बेहतर मेन्यू उपलब्ध हो जाते हैं। मसलन, भारत को किसके साथ डील करना चाहिए। क्या क्षेत्रीय या द्विपक्षीय संबंधों के बजाय बहुपक्षीय संबंधों को तरजीह देनी चाहिए? इसके मद्देनजर भारत के पास खेलने के लिए कई पत्ते होंगे।


इसे एक उदाहरण के जरिये इस तरह पेश किया जा सकता है। व्यापार के मामले में जब संरक्षण के हक का सिध्दांत पूरी तरह से हावी था, भारत ने सभी क्षेत्रीय संबंधों को दरकिनार करते हुए सिर्फ बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के तहत काम किया। अब जबकि एक वैश्विक शक्ति बनने की दिशा में भारत का कदम तेजी से बढ़ा रहा है, (खासकर ज्ञान पर आधारित निर्यात और तकनीकी श्रम निर्यात के मामले में), यह साफ नहीं है कि बहुपक्षीय सिस्टम ही एकमात्र विकल्प है।


कई ऐसी वजहें हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि प्रमुख साझीदारों (मसलन अमेरिका) के साथ द्विपक्षीय समझौते डब्ल्यूटीओ समझौते से ज्यादा फायदेमंद हो सकते हैं।इन परिस्थितियों के मद्देनजर यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या भारत को द्विपक्षीय व्यापारिक रिश्ते बनाने चाहिए और अगर हां तो कैसे? जहां तक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (आईएफआई) की बात है, कई मामलों में इन संस्थानों में भारत की सहभागिता बढ़ी है, लेकिन वास्तव में इन संस्थानों के प्रति दिलचस्पी घटने लगी है।


कुछ हद तक यह आईएफआई के काम करने के तरीके में बदलाव और संस्थानों के प्रमुखों की नियुक्ति में प्रमुख देशों की घटती दिलचस्पी को जाहिर करता है। ये संस्थान पुराने पड़ चुके हैं और नए खिलाड़ियों (मसलन भारत और चीन) को पैदा करने में नाकाम रहे हैं। अगर इसको बड़े नजरिये से देखें तो यह भारत के आधाकारिक तौर पर उधार लेने की घटती जरूरत को प्रतिबंबित करता है।


हालांकि इन संस्थानों में भारत की घटती दिलचस्पी दूरदर्शी साबित नहीं होगी। चीन की तरह आईएफआई संस्थानों से भारत का रिश्ता भी सिर्फ उधार लेने तक नहीं जुड़ा हुआ है। इस देश ने गरीब देशों को अपनी सहायताएं मुहैया करानी शुरू कर दी हैं। इसके मद्देनजर भारत इस सहायता के जरिये गरीब देशों से अपने संबंध सुनिश्चित कर सकता है। भारत अब महज एक अलग-थलग टापू बनकर नहीं रह सकता।


उसे 3 दशकों तक चली आर्थिक सुस्ती की विरासत और औपनिवेशिक शासन की वजह से मिले बोझ को त्यागना होगा। अगर आप किसी को जोड़ना चाहते हैं तो इसके लिए आपको अपनी बंदिशों को छोड़ना होगा। इस बात पर यह निर्भर करेगा कि भारत कितनी जल्दी महाशक्ति बन सकेगा। हालांकि इसका एक और विकल्प उपलब्ध है। वह यह है कि 30 साल तक लगातार 10 फीसदी की दर से विकास करें। 
 
(लेखक पीटर्सन इंस्टिटयूट फॉर इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स और सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट में सीनियर फेलो और जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी में सीनियर रिसर्च प्रोफेसर हैं।)

First Published : March 27, 2008 | 11:26 PM IST