भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थकों को निराशा में खुद से यह पूछने के लिए माफ किया जा सकता है कि उन्हें अच्छी खबर कब मिलेगी। पार्टी लोक सभा चुनावों में पिछले चुनाव की 303 सीट से घटकर 240 पर आने के बावजूद साझेदारों की मदद से केंद्र में सरकार बनाने में सफल रही। नामित सदस्यों के सेवानिवृत्त होने के बाद 245 में से 90 सीट के साथ अब राज्य सभा में पार्टी का बहुमत नहीं है। जुलाई के आरंभ में हुए विधान सभा उपचुनावों में भाजपा को 13 विधानसभा क्षेत्रों में से केवल दो पर जीत मिली।
पार्टी की विफलताओं का क्रम अलग-अलग तरह से सामने आ रहा है लेकिन राज्यों की राजनीति में यह सबसे अधिक स्पष्ट है। 36 में से 18 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में जहां भाजपा की सरकार है (कुछ जगह गठबंधन के साथ) और वहां सरकारें अपने बचाव में आक्रामकता दिखा रही हैं। इसके साथ ही कांग्रेस तथा ‘इंडिया’ गठबंधन के अन्य साझेदार भी अब पहले की तुलना में अधिक आक्रामक हैं। राजनीतिक और नीतिगत संघर्ष अचानक तीव्र हो गया है।
राजस्थान का उदाहरण लें तो भाजपा को 2023 के विधान सभा चुनावों में 58 फीसदी सीट पर जीत मिली। पार्टी के पास 200 में से 115 सीट हैं और उसके बहुमत पर कोई संदेह नहीं है। सत्ता गंवाने वाली कांग्रेस के पास केवल 69 सीट हैं। दिसंबर 2023 से जून 2024 तक राजस्थान में विपक्ष की बात करें तो वह मोटे तौर पर सुषुप्तावस्था में नजर आया। कांग्रेस आंतरिक तनावों में उलझी नजर आई।
परंतु उसके बाद हुए लोक सभा चुनावों में भाजपा को 25 में से केवल 14 सीट पर जीत मिली। कांग्रेस को आठ सीट पर और अन्य दलों को तीन सीट पर जीत मिली। ऐसे में 4 जुलाई को आरंभ हुआ विधान सभा का बजट सत्र कांग्रेस की ओर से अप्रत्याशित आक्रामकता से भरा हुआ है। विपक्ष के विधायक रोज सवाल करते हैं और कामकाज को बाधित करते हैं।
गत सप्ताह कांग्रेस विधायकों ने आरोप लगाया कि लोक निर्माण विभाग उनके इलाकों में सड़क निर्माण के पहले सलाह मशविरा नहीं कर रहा है। उन्होंने कहा कि वहां सड़क निर्माण अभी भी हारे हुए भाजपा विधायकों के इशारे पर हो रहा है। भाजपा जवाबी कार्रवाई में वही कर रही है जो उसका मूल कार्यक्रम है: सरकार एक विधेयक तैयार कर रही है जिसमें धर्मांतरण पर कठोर दंड की व्यवस्था होगी। वह 2008 में पारित एक अन्य विधेयक को हटा रही है जिसे वसुंधरा राजे सरकार ने पारित किया था लेकिन उसे कभी राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिल सकी। राजे ने भी 2013 से 2018 के बीच दोबारा मुख्यमंत्री होने पर भी उसे वापस नहीं लाया।
ओडिशा में बीजू जनता दल के 24 साल के शासन के बाद भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिला है। राज्य में पहली बार पार्टी की सरकार बनी। 147 सदस्यों वाली ओडिशा विधानसभा में भाजपा को 78 सीट के साथ स्पष्ट बहुमत मिला। बीजू जनता दल को केवल 51 सीट पर जीत मिली। राज्य के 21 लोक सभा क्षेत्रों में से 20 में भाजपा को जीत मिली और एक सीट कांग्रेस के खाते में गई।
लंबे समय तक बीजू जनता दल कांग्रेस को अपना प्रमुख शत्रु मानता रहा। परंतु अब न केवल पार्टी ने राज्य सभा में भाजपा से समर्थन वापस ले लिया है बल्कि उसने भाजपा सरकार के मंत्रियों के कामकाज पर नजर रखने के लिए ‘शैडो’ भी नियुक्त किए हैं। इनमें से कई पहली बार विधायक बने हैं और उन्हें सरकार या विधान सभा का कोई अनुभव नहीं है।
हालांकि बीजू जनता दल ने ‘इंडिया’ गठबंधन की ओर कोई सकारात्मक रुख नहीं दिखाया है लेकिन इसमें भी बदलाव आ सकता है। भाजपा का नीतिगत रुख स्पष्ट नहीं है: क्या वह पिछली सरकार के लोकलुभावन कार्यक्रमों को जारी रखने वाली है? क्या वह नवीन पटनायक और उनके नामांकित लोगों को खारिज करने जा रही है? उड़िया पहचान को लेकर संवेदनशील राज्य में क्या सरकार डबल इंजन की बात करेगी? ऐसे में बीजू जनता दल का आरोप होगा कि ओडिशा की पहचान को खतरा है और वह भी भाजपाशासित राज्यों में से बस एक और राज्य बनकर रह जाएगा।
उत्तर प्रदेश में लोक सभा चुनाव परिणामों से उत्साहित समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने 10 विधानसभा सीट के उपचुनाव को लेकर बातचीत शुरू कर दी है जिनकी घोषणा कभी भी हो सकती है। अतीत में मतांतर के चलते दोनों दल विधानसभा चुनावों में साथ नहीं आए।
पंजाब में भाजपा के केवल दो विधायक हैं। परंतु लोक सभा की सीट गंवाने के बावजूद उसका मत प्रतिशत अब तक के उच्चतम स्तर पर है। यही वजह है कि पार्टी ने चुनाव हारने के बावजूद रवनीत बिट्टू को केंद्र में मंत्री बनाया है। हालांकि भाजपा प्रदेश में अपनी स्थिति कैसे मजबूत बनाती है यह देखना दिलचस्प होगा।
आने वाले दिनों में आर्थिक सुधार, खासकर समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर राज्यों के समर्थन की आवश्यकता होगी। मौजूदा परिदृश्य में राजनीतिक रुख कड़े हैं और प्रतिरोध भी। ऐसे में सहमत बनाने के लिए बातचीत और नरमी की आवश्यकता होगी।