पिछले कुछ हफ्तों से इस बात की वकालत की जा रही है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी को आरक्षण मिलने से इन संस्थानों के स्तर में गिरावट नहीं होगी।
ऐसा कहने वाले लोगों की दलील है कि इन संस्थानों में पहले से ही अनसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान है और इसके बावजूद शिक्षण संस्थानों का स्तर कम नहीं हुआ है।
अगर शिक्षा के स्तर और आर्थिक समृध्दि का आपस में कोई संबंध है, (जो है भी) तो जाहिर है कि आर्थिक रूप से संपन्न समुदायों में कॉलेज जाने वालों की तादाद ज्यादा होगी। इसका मतलब यही निकलता है कि ओबीसी समुदाय के शिक्षा का स्तर अनुसूचित जाति और जनजाति से बेहतर है।
मेरे मित्र और नौकरी डॉट काम के प्रमुख संजीव बिखचंदानी ने टीवी पर बयान देकर एक तरह से इसका समर्थन भी कर डाला। उनका कहना था कि आईआईएम अहमदाबाद को अपने मैनेजमेंट कोर्स में अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों को लेने के लिए कट ऑफ मार्क्स महज 2 फीसदी कम करना पड़ा।
यानी अगर आईआईएम के जनरल कैटिगरी के छात्र देश के टॉप 1 फीसदी छात्रों में शामिल हैं, तो इन संस्थानों के अनसूचित जाति और जनजाति के छात्र टॉप 3 फीसदी में आते हैं। इसे बहुत बड़ी त्रासदी नहीं माना जा सकता।
मैं इस विश्लेषण से सहमत नहीं था और इस वजह से मैंने आईआईएम अहमदाबाद के कुछ प्रोफेसरों से बात की। इन प्रोफेसरों ने ऑफ द रिकॉर्ड बताया कि जनरल कैटिगरी और अनसूचित जाति और जनजाति का अंतर 5 फीसदी से ज्यादा है। हालांकि इसे भी बहुत कम नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस लिहाज से भी अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्र कैट रैकिंग के मामले में देश के टॉप 6 फीसदी छात्रों में शुमार हैं।
जब मैंने आईआईटी बॉम्बे के प्रतिनिधियों से बातचीत में भी कुछ इसी तरह की बातें जानने को मिली। हालांकि यह भी ऑफ द रिकॉर्ड था।यहां के एक सीनियर प्रोफेसर ने बताया कि संस्थान के डीन ने अपने एक प्रेजेंटेशन में बताया था कि अनसूचित जाति और जनजाति के छात्रों का प्रदर्शन जनरल कैटिगरी के छात्रों से बुरा नहीं है। हालांकि कुछ खास वजहों से कोई भी शख्स इससे जुड़े आंकड़ों को सार्वजिनक करने को इच्छुक नहीं था।
दिलचस्प बात यह है कि अगर ये आंकड़े सच हैं, तो यह एक अहम नतीजा है और कोटे की खिलाफत करने वाले (जिसमें मैं भी शामिल हूं) लोगों की दलील की जड़ पर हमला है। हालांकि हाल में मैरियाने बर्टरैंड, रेमा हाना और सेंडहिल मुलैंयतन द्वारा की गई एक स्टडी के जरिये हम एक नई हकीकत से रूबरू होते हैं।
ये तीनों क्रमश: यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो, न्यूयॉर्क और हारवर्ड से ताल्लुक रखते हैं। इस बाबत हुई स्टडी में भारत के किसी राज्य में 1996 में इंजीनियरिंग के लिए अप्लाई करने वाले छात्रों के अंकों को जायजा लिया गया। 8-10 साल बाद फिर इन आंकड़ों से जुड़े पहलुओं पर फिर से निगाह डाली गई।
नतीजे चौंकाने वाले थे। पहले आंकड़ों के तहत, सवर्ण छात्रों के लिए औसत अंक 480, ओबीसी के लिए 419 ( सामान्य से 13 फीसदी कम), अनसूचित जाति के लिए महज 182 (62 फीसदी कम) है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि पिछले दशक में अनसूचित जाति के छात्रों के शिक्षा के स्तर में नाटकीय सुधार हुआ है या फिर आईआईएमआईआईटी की रिपोर्ट सही नहीं है।
हालांकि हम इस पहलू को छोड़ सकते हैं, क्योंकि आईआईटी और आईआईएम में काफी कम छात्रों को दाखिला मिलता है और अनसूचित जाति और जनजाति कैटिगरी में कई ऐसे छात्र हैं, जो उच्च अंक प्राप्त करते हैं। हालांकि यह बात काफी दिलचस्प है कि अगर आईआईटी को इतने अच्छे छात्र मिल रहे हैं तो उनके द्वारा अनसूचित जाति और जनजाति के छात्रों के दाखिले के लिए 60 फीसदी की योग्यता जैसी शर्तें क्यों नहीं तय की जाती हैं?
स्टडी के अगले चरण में जो नतीजे सामने आए हैं, वे और दिलचस्प हैं। इसके मुताबिक, एक सवर्ण छात्र की औसतन कमाई अनसूचित जाति के छात्र की कमाई से 3 गुना ज्यादा है। हालांकि यह बात वैसे छात्रों पर लागू होती है, जिन्होंने इंजीनियरिंग के लिए अप्लाई किया था। उनके लिए नहीं, जिन्होंने इंजीनयरिंग में दाखिला लिया था।
अगर हम ऐसे छात्रों की बात करें तो सवर्ण छात्रों (1996 में दाखिला लेने वाले) की कमाई दाखिला नहीं लेने वाले छात्रों के मुकाबले 5400 रुपये प्रति ज्यादा रही, जबकि अनसूचित जाति के मामले में यह आंकड़ा 3200 रुपये से भी कम रहा।इससे अगड़ी और पिछड़ी जातियों के वेतन में अंतर का साफ पता चलता है। साथ ही यह भी साफ है कि इंजीनियरिंग डिग्री से इन समुदायों को बहुत ज्यादा मदद नहीं मिली।
हालांकि इस बात से यह नतीजा भी नहीं निकाला जा सकता है कि भर्ती करने वाले लोग घोर जातिवादी हैं और इस वजह से ऐसा कर रहे हैं, क्योंकि फिलहाल हमें प्रतिभा की घोर कमी देखने को मिल रही है। इस स्टडी से जुड़ा एक अन्य दिलचस्प नतीजा क्रीमी लेयर मामले से जुड़ा है। स्टटी में कहा गया है कि पिछड़ी जाति के छात्रों को जहां अपेक्षाकृत कम वेतन मिलता है, वहीं इसमें आर्थिक रूप से और कमजोर छात्रों को इससे भी कम वेतन मिलता है।
दूसरी बात यह है कि सभी जातियों का क्रामी लेयर तबका ही इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट जैसे उच्च शिक्षा के क्षेत्रों में पहुंचता है। ऊंची जातियों के मामले में संबंधित राज्य में इस बाबत औसत आय का आंकड़ा 6,681 रुपये था और जिनके बच्चों ने इंजीनियरिंग के लिए अप्लाई किया था, उनकी औसत आय 12,790 रुपये थी। ओबीसी कैटिगरी में यह आंकड़ा क्रमश: 4,991 रुपये और 8,947 रुपये था। इसी तरह अनुसूचित जाति की आय क्रमश: 4,153 रुपये और 8,081 रुपये थी।
दूसरे शब्दों में कहें तो अगर क्रीमी लेयर को आरक्षण से हटा दिया जाए, तो इससे फायदा प्राप्त करने वाले ओबीसी की तादाद काफी कम होगी, खासकर उस स्थिति में जब कोर्ट ने दाखिले के लिए अंकों में 10 फीसदी से ज्यादा की छूट नहीं देने की बात कही है। कोटा के खिलाफ होने के मद्देनजर मैं इसका स्वागत करता हूं और मुझे इस बात पर हैरानी भी होती है कि कोटा का समर्थन करने वाले कोर्ट के इस फैसले का स्वागत जनता के सामने किस तरह करेंगे।