दिल्ली सरकार में शामिल कई लोगों को लगता है कि यहां बिजली की कीमतों में स्थिरता बिजली के निजीकरण की कामयाबी की कहानी को बयां करता है।
दिल्ली में वर्ष 2004 के बाद बिजली की कीमतों में किसी तरह का इजाफा नहीं किया गया था और इस साल 1 मार्च से महज 5 पैसे प्रति यूनिट की बढ़ोतरी की गई है। हालांकि इस बात में थोड़ा शक है कि बिजली सप्लाई की गुणवत्ता में सुधार आया है, कीमतों में वृध्दि न किए जाने की भी 2 बड़ी वजहें रही हैं। पहली वजह यह कि दिल्ली सरकार ने बिजली वितरण करने वाली निजी कंपनियों को शुरुआती वर्षों में हजारों करोड़ रुपये की सब्सिडी दी।
जब यह सब्सिडी खत्म हुई और बिजली की कीमतें बढ़ाए जाने की बातें होने लगीं, तो सरकार ने कहा कि बिजली वितरण करने वाली निजी कंपनियों (जिनमें अनिल धीरूभाई अंबानी समूह की कंपनी बीआरपीएल व बीवाईपीएल तथा टाटा ग्रुप की कंपनी एनडीपीएल शामिल हैं) द्वारा बढ़ाई गई कीमतों का आधा हिस्सा सरकार खुद वहन करेगी।
इन बिजली वितरण कंपनियों द्वारा किए गए खर्चों को दिल्ली विद्युत नियामक आयोग (डीईआरसी) द्वारा स्वीकार किए जाने से इनकार किया जाता रहा है और यह दूसरी बड़ी वजह रही है, जिसने बिजली की दरों में बढ़ोतरी न होने में अहम भूमिका निभाई है।इन चीजों के पीछे तर्क यह है कि जैसे-जैसे एटीसी नुकसान का सालाना स्तर नीचे आएगा, टैरिफ में होने वाली बढ़ोतरी का स्तर कम होता जाएगा।
बिजली वितरण करने वाली कंपनियां शुरुआती नुकसान का स्तर हासिल करने में कामयाब रही हैं, पर सिर्फ एनडीपीएल ने कहा है कि वह अपने नुकसान के स्तर को डीईआरसी द्वारा तय मानकों के मुताबिक 2010-11 से पहले हासिल नहीं कर पाएगी। इस तरह, दिल्ली में बिजली के निजीकरण के शुरुआती 5 वर्षों में डीईआरसी ने बिजली कंपनियों द्वारा किए गए खर्चों की भरपाई उन शर्तों के हिसाब से नहीं की, जिन शर्तों का जिक्र बिजली वितरण के निजीकरण के वक्त प्राइवेट कंपनियों और डीईआरसी के बीच हुए करारनामे में किया गया था।
इस मसले पर इन कंपनियों ने इलेक्ट्रिसिटी ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाया और ट्रिब्यूनल कंपनियों के तर्क से संतुष्ट हुआ। फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में कंपनियों के पक्ष को ही सही करार दिया। यदि कंपनियों को उनके खर्चों की भरपाई करने की इजाजत दी जाती, तो बिजली के दामों में काफी ज्यादा बढ़ोतरी हो चुकी होती।
अब नए वित्त वर्ष (2008-09) में बिजली कंपनियों को अपने इन खर्चों की भरपाई की आजादी दी गई है और इससे बिजली की दरों में होने वाली बढ़ोतरी करीब 50 पैसे प्रति यूनिट होगी। पर डीईआरसी ने ऐसा रास्ता अख्तियार किया है कि बिजली की दरों में महज 5 पैसे प्रति यूनिट की बढ़ोतरी हुई है। मिसाल के तौर पर, डीईआरसी ने बीआरपीएलबीवाईपीएल के करीब 1200 करोड़ रुपये के पूंजीगत खर्चों पर गौर ही नहीं किया है, क्योंकि इन कंपनियों के पास इलेक्ट्रिक इंस्पेक्टर की रिपोर्ट नहीं है।
जैसे ही यह रिपोर्ट इन कंपनियों के पास आ जाती है (जिन्हें आना ही है) डीईआरसी को टैरिफ में बढ़ोतरी करनी होगी। उम्मीद है कि इस वजह से रेट में करीब 25 पैसे प्रति यूनिट की बढ़ोतरी होगी, जिन्हें फिलहाल टाला गया है। इसी तरह, बिजली वितरण करने वाली तीनों ही कंपनियों ने कहा है कि डीईआरसी उन्हें अब उतनी बिजली की बिक्री नहीं करेगा, जितनी बिजली वे अब तक डीईआरसी से खरीदती रही हैं।
कंपनियों के मुताबिक, इसके पीछे डीईआरसी का तर्क यह है कि कंपनियों द्वारा नुकसान का स्तर कम हो गया है। पर तय है कि इन कंपनियों को ज्यादा बिजली की जरूरत होगी। इतना ही नहीं, डीईआरसी ने बिजली खरीद की ऐसी परिकल्पना की है, जो मौजूदा दरों से भी कम है। पर कानून के मुताबिक, जब बिजली वितरण कंपनियां अपने ऑडिटेड नतीजे पेश करेंगी, डीईआरसी को उन्हें इस बात की छूट देनी होगी कि वे अपने खर्चों की भरपाई ग्राहकों से पैसे वसूलकर करें।
इस मामले में इन कंपनियों का आकलन है कि बिजली की दर में 15-20 पैसे प्रति यूनिट का इजाफा होगा, जिसे फिलहाल टाल दिया गया है।ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर बिजली वितरण कंपनियां अपीलीय प्राधिकरण का दरवाजा खटखटाएंगी, पर हम यहां अपनी चर्चा को डीईआरसी चेयरमैन बरजिंदर सिंह और डीईआरसी के सदस्य के. वेणुगोपाल के बीच जारी विवाद तक ही केंद्रित रखते हैं।
दरअसल, बीआरपीएल और बीवाईपीएल ने 2004-05 में अपने ग्रुप की कंपनी रिलायंस एनर्जी लिमिटेड (आरईएल) से बिजली के उपकरण खरीदे और कहा कि इनके लिए 1,233 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया है। पर बरजिंदर सिंह ने आरआईएल द्वारा बेचे गए उपकरणों की वैट रसीद हासिल करने में कामयाबी पा ली, जिससे मुताबिक आरईएल ने महज 731 करोड़ रुपये के उपकरण बेचे, जो जाहिर तौर पर बीआरपीएल और बीवाईपीएल द्वारा बताई गई रकम (1,233 करोड़ रुपये) से काफी कम थी।
पर बीरपीएलबीवाईपीएल के प्रमुख ललित जालान ने इस आरोप का खंडन किया और दिल्ली सरकार को इत्तला किया कि उपकरणों की खरीदारी बाकायदा बोली प्रक्रिया के जरिये की गई थी, जिसमें एबीबी और अल्स्टॉम जैसी कंपनियों ने हिस्सा लिया था। पर सिंह ने अपने आदेश में कहा – ‘बीएसईएस की दोनों ही कंपनियां अपने इस पक्ष के समर्थन में किसी तरह का प्रमाण देने में नाकाम रही हैं कि उपकरणों की खरीदारी में बोली प्रक्रिया अपनाई गई और ये उपकरण डीईआरसी द्वारा तय दरों के हिसाब से नहीं की गई।’
सिंह ने इन दोनों बिजली कंपनियों (बीआरपीएल और बीवाईपीएल) द्वारा आगामी वर्षों में (2004-05 के बाद) किए गए 533 करोड़ रुपये के पूंजीगत निवेश को मानने से भी इनकार कर दिया और यह भी इस साल बिजली के रेट में न के बराबर बढ़ोतरी होने की एक वजह रही। इधर, वेणुगोपाल का कहना है कि वह सिंह के विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते, पर वह ज्यादा पैसा लिए जाने के मसले पर कुछ भी नहीं बोल रहे।
उन्होंने यह कहकर विवाद पैदा कर दिया है कि यह डीईआरसी का काम है कि वह कंपनियों द्वारा किए जा रहे खर्चों के मामलों को देखे, लेकिन जब तक ऐसा किया जाता है, डीईआरसी को कंपनियों के खर्चों को अस्थायी तौर पर स्वीकार कर लेना चाहिए।
सचाई जो भी हो, पर इतना तो तय है कि इस विवाद को बेहद उच्च स्तर के साथ नए सिरे से देखे जाने की जरूरत है। यदि यह बात सच साबित होती है कि आरईएल ने कम कीमतों पर उपकरण बेचे, पर उसके लिए ज्यादा कीमतें दिखाई गईं, तो यह बेहद दुर्भाग्यूपर्ण होगा। इस मामले से बिजली के निजीकरण की पूरी प्रक्रिया ही मजाक साबित हो जाएगी।