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एचयूएल के ‘हिंदुस्तानी’ बनने की दास्तान

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 05, 2022 | 11:05 PM IST

हिंदुस्तान यूनिलीवर (एचयूएल) के 10 फीसद से भी ज्यादा प्रबंधक आज विभिन्न देशों में यूनिलीवर के लिए काम कर रहे हैं।


यह एक पुख्ता वजह है, जिसके कायल होकर कुछ हफ्ते पहले एचयूएल की वार्षिक आम बैठक में चेयरमैन हरीश मनवानी को भी कहना पड़ा कि प्रबंधन और नेतृत्व से जुड़ी प्रतिभाओं के मामले में एचयूएल भारतीय उद्योग में बहुत ऊपर है।


दुनिया भर में यूनिलीवर के लिए भारतीय प्रतिभा की यह बेनजीर कामयाबी और मुकाम कोई छोटी बात नहीं है। खास तौर पर उस मजबूत बुनियाद को देखा जाए, जो भारत में 75 साल से कारोबार कर रही इस कंपनी के शुरुआती वर्षों में डाली गई थी, तो यह मुकाम काबिल-ए-तारीफ है।


कंपनी प्रबंधन में ऊंचे ओहदों पर शुरुआत में गोरी चमड़ी वाले लोग ही बैठे थे और उनका ‘भारतीयकरण’ होने में समय भी लगा। लेकिन एचयूएल के प्रकाशन ‘अ कंपनी ऑफ पीपल’ में भारतीयकरण के इस सफर का जो कदम-दर-कदम ब्योरा दिया गया है, वह वाकई काफी रोमांचक है। उस सफर से पता चलता है कि जिन गोरों के हाथ में कंपनी की बागडोर थी, वे भी बहुत जल्द भारतीयों की सूझबूझ और प्रबंधन महारत के कायल हो गए।


इस सफर में क्रांतिकारी मोड़ 1961 में आया, जब स्वर्गीय प्रकाश टंडन एचयूएल के पहले भारतीय चेयरमैन बनाए गए। अतीत के पन्ने पलटने पर लगता है कि कंपनी की बागडोर किसी हिंदुस्तानी को देने का फैसला वाकई काफी देर से किया गया, जबकि इस बारे में सबसे पहले 1931 में ही सोच लिया गया था।


तत्कालीन चेयरमैन एंड्रयू नॉक्स का बयान इसे साबित करता है। उन्होंने कहा था, आज का भारत एक दूसरे भारत का शुरुआती रूप है, जो कल विकसित हो जाएगा। एक हिंदुस्तानी भारत पास ही खड़ा है और हमें अपनी नीतियां उसके मुताबिक बदलनी चाहिए।’


नॉक्स की बात को उस वक्त ज्यादातर लोगों ने हंसी में उड़ा दिया। उनके ढेरों आलोचक पैदा हो गए। दरअसल यह कहना ही बहुत बड़ी धृष्टता मानी गई कि भारत में कारोबार आगे बढ़ाने के लिए किसी ब्रिटिश कंपनी को देसी चोला पहनना पड़ेगा और विलायती यानी ‘उत्कृष्ट’ होने की बात अपने जेहन से काफी हद तक भुलानी पड़ेगी।


उस वक्त कंपनी के सामने एक ही दुविधा थी- क्या विदेशियों के बनिस्बत कम तजुर्बे वाले भारतीय प्रबंधक कंपनी को उसी तरह से आगे ले जा पाएंगे, जैसे ब्रिटिश मालिक ले जा रहे हैं?


टंडन ने इस दुविधा के बारे में अपनी पुस्तक ‘बियांड पंजाब’ में बहुत अच्छे तरीके से लिखा है। वह लिखते हैं, ‘लीवर के वरिष्ठ अधिकारियों ने अपना सिर हिलाया और इस बात पर संदेह जताया कि क्या स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित कर पूरी तरह जिम्मेदारी उठाने लायक बनाया जा सकता है। उनके मुताबिक कुछ कुदरती कमियां होती हैं, जिन्हें किसी भी तरह का प्रशिक्षण खत्म नहीं कर सकता, कम से कम निकट भविष्य में तो बिल्कुल नहीं।’


टंडन 1937 से कंपनी में काम कर रहे थे और आला अधिकारी उनकी प्रतिभा का लोहा मानते थे। बावजूद उसके, ब्रिटिश अधिकारियों की यह राय थी। जब लीवर ब्रदर्स इंडिया के चेयरमैन डब्ल्यू. जी. एल. शॉ ने टंडन का साक्षात्कार किया था, तो उन्होंने साफ लफ्जों में कहा था, ‘मैं क्यों मानूं कि किसी दिन आपको मेरी कुर्सी पर नहीं बैठना चाहिए।’


लेकिन नॉक्स या शॉ जैसे लोग कंपनी में ज्यादा नहीं थे। ज्यादातर लोगों पुरजोर कोशिश के जरिये यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि कंपनी के प्रबंधन को भारतीय चेहरा देने में ज्यादा से ज्यादा वक्त लग जाए।


सबसे पहले 1942 में ही यूनिलीवर ने कहा कि जो भारतीय अधिकारी यूरोपीय अधिकारियों जितनी क्षमता साबित करते हैं और उनके स्थान पर पद हासिल करते हैं, उन्हें भी यूरोपीय अधिकारियों के बराबर ही विशेषाधिकार मिलने चाहिए। 1944 तक कंपनी के 47 कनिष्ठ और वरिष्ठ प्रबंधन अधिकारियों, कर्मचारियों में से 15 भारतीय ही थे।


ग्यारह साल बाद कुल 149 में से 97 प्रबंधक भारतीय थे। लेकिन भारतीय प्रबंधकों में क्षमता और प्रतिभा की कुदरती कमी की बात अब भी विलायती अफसरों के जेहन पर हावी थी। इसी वजह से कंपनी ने इस बात का ध्यान रखा कि प्रबंधन समिति के सभी सदस्य और 11 वरिष्ठ अधिकारियों में से 8 यूरोपीय ही हों। इसलिए 1955 में जब एंड्रयू नॉक्स भारत आए, तो उन्होंने यूरोपीय अधिकारियों की तादाद तेजी से कम करने की बात कही।


उन्होंने डेढ़ साल में ही यूरोपीय अफसरों की तादाद 40 यानी कमोबेश एक चौथाई कर देने की सिफारिश की।इस बार यूनिलीवर ने नॉक्स की बात पर पूरा ध्यान दिया। 1955 में लीवर ने भारतीयों के लिए प्रबंधन प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू कर दिया। प्रशिक्षण कार्यक्रम को एस. एच. टर्नर ने भी उम्दा बताया, जो 1959 में कंपनी के चेयरमैन बने थे। उस साल वार्षिक आम बैठक में टर्नर ने कहा, ‘ये प्रशिक्षु देशी तरीकों से तैयार किए गए हैं, लेकिन उनकी तैयारी जबर्दस्त है।’


इस बीच कंपनी में 24 साल बिता चुके टंडन को भी महसूस होने लगा था कि अब उनके आगे बढ़ने की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन किस्मत ने उन्हें सबसे ऊंचे ओहदे पर पहुंचा दिया। कंपनी की योजना तो कुछ और थी। उसके मुताबिक 1957 में चेयरमैन होसकिंस अब्रहाल के रिटायर होने पर वाइस चेयरमैन एस एच टर्नर को उनकी जगह बैठना था और टर्नर की जगह डेविड ऑर को आना था। लेकिन बीमारी की वजह से 1961 में वह इंग्लैंड लौट गए।


उनसे पहले ही ऑर भी भारतीय प्रबंधन से हटकर विदेशी समिति में शामिल हो चुके थे। अब कुर्सी टंडन का ही इंतजार कर रही थी। उसी साल जून में उन्हें लंदन बुलाया गया और चेयरमैन का ओहदा दे दिया गया।विदेशी समिति के चेयरमैन बन चुके नॉक्स ने उसी शाम को टंडन को अपना मेहमान बनाया। उन्होंने उन मुश्किलों के बारे में बात की, जो टंडन के सामने आ सकती थीं ।


उन्होंने कहा, ‘मैं कभी समझ ही नहीं सका कि आपकी सरकार जब किसी प्रोजेक्ट को हरी झंडी दे देती है, तो उसे पूरा करने में इतना अर्सा क्यों लग जाता है। जिस काम को दूसरे केवल 9 महीने में कर लेते हैं, उसे पूरा करने में भारत में 5 साल क्यों लग जाते हैं।’टंडन के लिए यह गुरुमंत्र था।


वह भारत आए, तो कंपनी के 205 वरिष्ठ प्रबंधकों में केवल 14 यूरोपीय थे। और हां, अब 5 साल का वक्त कम होकर 9 महीने में तब्दील हो चुका था। आखिरकार हिंदुस्तान लीवर अपने नाम के मुताबिक हिंदुस्तानी हो गई।

First Published : April 23, 2008 | 11:14 PM IST