वक्त बदल रहा है और इस बदलते वक्त के साथ? ड्रैगन का देश, चीन भी तेजी से बदल रहा है। आज इसकी औद्योगिक राजधानी शंघाई की गिनती दुनिया के नामी-गिरामी शहरों में होने लगी है।
इस वजह से फैक्टरियों और गोदामों को शहर की सीमा से बाहर भी धकेल दिया गया। लेकिन इमारतें तो अब भी वहीं हैं, और उनका इस्तेमाल आज क्रिएटिव कामों के लिए किया जा रहा है। आइए विस्तार से जाने उन जगहों के बारे में जहां आज नई सोच हकीकत की शक्ल अख्तियार कर रही है
चीन के नए उद्योगपति अब पैसे कमाने के नए-नए तरीके ढूंढ़ रहे हैं। वह तो पैसे कमाने के लिए अपने मुल्क के पुराने और कट्टर कम्युनिस्ट राज की निशानियों का भी बड़ी खूबसूरती के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं। इसकी एक झलक मिलती है, चीन की औद्योगिक राजधानी शंघाई में।
आज की तारीख में दुनिया के नामी-गिरामी शहरों में एक गिनी जाने वाली इस नगरी की शोहरत की कीमत यहां मौजूद कारखानों और गोदामों को चुकानी पड़ी। यहां के वर्करों और भारी मशीनरियों को भले ही इस शहर की सीमा तक धकेल दिया गया हो, यह अपने पीछे गोदामों और फैक्टरियों की खाली इमारतों का पूरा काफिला छोड़ कर गईं हैं।
कबाड़ से जुगाड़
लेकिन इन फैक्टरियों या गोदामों की हालत मुंबई के मिलों की तरह नहीं है, जो दसियों सालों से बेकार पड़ी हुईं हैं। इस कम्युनिस्ट देश के पूंजीपतियों ने तो इनसे भी पैसे कमाने का रास्ता भी खोज निकाला है। कभी जहां नकली समान तैयार किए जाते थे, आज वहीं नई सोच हकीकत की शक्ल अख्तियार कर रही है। यहां आज आपको आर्ट गैलरियां, डिजाइनर दुकानें, डिजाइनर रेस्तरां, डिजाइनर बार और डिजाइनर दफ्तर दिखेंगे। हाल ही शुरू हुई क्रिएटिव कंपनियों के लिए इन डिजाइनर दफ्तरों की कीमत काफी कम रखी गई है।
वैसे, दुकानों, रेस्तरां, बार और दफ्तरों के आगे डिजाइनर यूं ही नहीं लिखा गया है। इसके पीछे एक बड़ी वजह है। और वो वजह यह है कि ये आम दुकानें, रेस्तरां, बार या दफ्तर नहीं हैं। यहां आपको चमचम चमकती मार्बल फ्लोरिंग या सीलिंग में छुपी हुई वायरिंग नहीं मिलेगी। यहां तो आपको मिलेगी सपाट सीमेंट की फ्लोर, ऊंची सीलिंग, साफ-साफ दिखती पाइपें। इस एंटीक वातावरण की तरफ क्रिएटिव स्टूडियो खींचे हुए आ रहे हैं। हालांकि, कुछ यह सवाल भी पूछ रहे हैं कि क्या यह मार्केटिंग की एक कुटील चाल है, जो चीनियों में अपना डिजनीलैंड बनाने की ख्वाहिश को भुना रही है।
अब तो यहां हाई शंघाई, ब्रिज 8, शंघाई स्कल्पचर स्पेस, इन फैक्टरी और द न्यू फैक्टरीज में प्रोफेशनल्स ने अपनी दुकानें खोल चुकी हैं। अभी हाल ही में 1933 के एक पुराने बूचड़खाने को भी एक नया और बेहतरीन रूप दिया गया है। अभी तक कुल मिलाकर इस तरह के 75 विभिन्न कल कारखानों को एक नया रूप दिया जा चुका है। इस काम में उनकी मदद कर रहे हैं इनक्लेव डिजाइन और एक्सॉन कॉनसेप्ट जैसे रीयल एस्टेट डेवलपर।
वैसे, इस काम में कई दूसरे रीयल एस्टेट डेवलपर भी कूद रहे हैं। वजह है, इस तरफ आर्किटेक्चर और डिजाइनर कंपनियों की इन जगहों की तरफ बढ़ती रूचि। साथ ही, आर्ट गैलरियां, फैशन हाउसों और फिल्म निर्माण में मदद करने वाली कंपनियों भी इस तरफ के जगह की डिमांड खूब कर रही हैं। उनके मुताबिक इन जगहों का पूरा माहौल ही बहुत क्रिएटिव होता है, जिससे उन्हें काम करने में काफी मदद मिलती है।
जाने क्या बात है इस जगह में
यहां अपना कारोबार शुरू करने को एक बेहतरीन कदम कहा जा सकता है। दरअसल, इन जगहों के रिनोवेशन में ज्यादा पैसे नहीं लगाने पड़ते। साथ ही यहां का कम किराया, नए और युवा उद्यमियों के लिए अपना बिजनेस शुरू करने में काफी फायदेमंद है। ऐसी ही एक जगह का दौरा हमने किया। वह जगह है एंकेन वेयरहाउस। हमने पाया कि कभी सामानों को हिफाजत से रखने के लिए इस्तेमाल होने वाले उस गोदाम में लोगों की भारी भीड़ थी।
चमकीले रंगों से पुते हुए उस गोदाम की किराएदार और आर्किटेक्चर फर्म, फार की निदेशक गिल गुर्थियस का कहना है कि,’यहां आपको ज्यादा चमक-दमक नहीं मिलेगी। साथ ही, क्वालिटी भी कभी-कभार आपकी उम्मीद से कम हो सकती है। लेकिन अगर मैं रीयल एस्टेट के नजरिए से देखूं तो इससे बेहतर जगह नहीं हो सकती।’ कंपनियां यहां 300 डॉलर (12 हजार रुपए) प्रति माह से भी कम किराया चुकाकर एक डेस्क को किराए पर ले सकती हैं।
वैसे, उन्हें फोटोकॉपियर से लेकर लोगों तक को बाकियों के साथ शेयर करना पड़ेगा।मिसाल के तौर पर स्थानीय फिल्म प्रोडयूसर मारिया बारबियरी को ही ले लीजिए। वह इन फैक्टरी में अपना दफ्तर कई दूसरे स्वतंत्र फिल्म प्रोफेशनल्स के साथ शेयर करती हैं। इस बात से उन्हें कोई ऐतराज भी नहीं है। उल्टे उन्हें तो इस बात की बेहद खुशी है। उस एक छोटे से इलाके में ही उनकी पहुंच दूसरे प्रोडयूसरों, फिल्म एडीटरों और यहां तक कि अकाउंटेंट तक हैं।
जब फैक्टरी ने ली कलाकृति की शक्ल
वैसे इन फैक्टरी में आपको ज्यादातर प्रोफेशनल लोग-बाग ही दिखेंगे, लेकिन 1933 के पुराने बूचड़खाने में तो आपको लाइफस्टाइल की पूरी दुकान ही खुल गई है। इसे तो बड़े लोगों को लुभाने के लिए बहुत प्यारे तरीके से सजाया गया है। एक्सॉन कॉन्सेप्ट्स के चैयरमैन पॉल लीयू का कहना है कि,’आज 32 हजार वर्गफुट में फैले इस जगह देखकर तो लगता ही नहीं कि यहां कभी मासूम जानवरों की जान ली जाती होगी। यह कमाल है इसके कमाल के नए आर्किटेक्चर का।’
उन्होंने बताया कि,’इसे हमने एक कलाकृति के रूप में सजाया है। इसके बीचोंबीच की जगह को अरब की वास्तुकला से सजाया गया है। सड़क के उस पार एक पॉवर प्लांट को भी अच्छी तरीके से बनाया गया है।’
उन्होंने जोर दिया कि इन इलाकों का विकास बिल्कुल अलग तरीके से किया जा रहा है। लीयू ने कहा कि,’हम इसे एक लग्जरी जोन में बदलने की कोशिश कतई नहीं कर रहे हैं। हम तो समाज के एक ऐसे बड़े तबके के लोगों को लुभाना चाहते हैं, जो यहां अपनी सुंदरता, डिजाइन या इन जैसे क्षेत्रों में अपनी नई खोजों को दुनिया के सामने लाना चाहते हैं। आखिर यही चीजें तो एक आदमी को इंसान बनाती हैं।’
यही है स्मार्ट डिमांड
‘द क्रिएटिव इकॉनोमी’ के लेखक और जॉन हॉकिन्स एंड कंपनी के क्रिएटिव कंसल्टेंट, जॉन हॉकिन्स का कहना है कि,’रचनाशील लोगों को जरूरत है, अमीर और संवेदनशील ग्राहकों की। मैं तो इसे स्मार्ट डिमांड का नाम दूंगा। शंघाई को ऐसे कई बाजारों की जरूरत है, जहां क्रिएटिव लोग अपने काम का प्रदर्शन और बिक्री कर सकें और स्थानीय लोग उन्हें खरीदें। इसके लिए जरूरत है, सरकार की मदद की। साथ ही, बड़े डेवलपरों और बड़े आर्टिस्टों की भी मदद की जरूत तो पड़ेगी। इसमें से कुछ जगहें तो काफी सफल होंगी और कुछ की किस्मत में असफल होना लिखा होगा।’ उनकी बात में काफी दम भी है।
हर कोशिश कामयाब नहीं होती
इस तरह की जगहों की अभी तो शंघाई में काफी धूम है, लेकिन समय के साथ-साथ इनमें से कुछ तो नाकामयाब तो होंगी ही। वैसे, उन्हें भी आगे बढ़ने का रास्ता मिल ही जाएगा। इसकी मिसाल है, जियांग्शू रोड पर मौजूद यूडीसी इनोवेटिव प्लाजा। इस शुरुआत तो हुई थी एक क्रिएटिव हब के रूप में, लेकिन जल्द ही इसकी तरफ लोगों की भीड़ ही कम होने लगी। तब उसने खुद में बदलाव करके खुद को एक लाइफस्टाइल हब बना लिया। आज यहां झालर, बाथ टब और सिंक सारी चींजें मिल जाएंगी।
इन चीजों के लिए यहां काफी भीड भी लगी रहती है। वैसे दूसरे इलाके इतने किस्मत वाले नहीं हैं। द न्यू फैक्टरीज (इसका शुरुआती नाम टॉन्ग ले फैंग यानी टोटल रिच फन रखा गया था) की शुरुआत भी 2005 में काफी धूम-धाड़के के साथ की गई थी। हालांकि, इसे खुले दो साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है, पर यहां आज भी मातमी सन्नाटा फैला रहता है। वहीं, शंघाई स्कल्पचर स्पेस के रेड टाऊन की हालत भी इससे ज्यादा जुदा नहीं है।
24 घंटे खुली रहने वाली इस जगह में महंगे रेस्तरां और भड़कीले बार हैं। फिर भी इस इलाके में लोगों की ज्यादा भीड़ नहीं दिखती। इस जगह की क ई-कई दुकानें तो बुरी तरह से फ्लॉप हुईं है। कई क्लबों की शुरुआत तो काफी गाजे-बाजे के साथ की गई थी, पर आज उनका कोई नाम लेवा तक नहीं बचा है।
बेस्टसेलर अवधारणा
फिर भी बेस्टसेलर की अवधारणा इन ‘सृजनात्मक केंद्रों’ पर भी लागू हो सकती है। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि क्रिएटिविटी से जुड़ी कंपनियां को इन जगहों से कोई खास फायदा हो रहा है। यहां की सबसे सफल आर्ट कम्यूनिटियों और संगठनों में वैसे ही नाम शामिल हैं, जिनके पीछे ‘जहांपनाह’ का अदृश्य हाथ नहीं होता है। भारत में हम लोग इसी ‘हाथ’ को ‘सरकारी हाथ’ कहते हैं।
एम50, ताइकांग रोड और 696 वेहाई रोड जैसी अपने दम आगे बढ़ी कम्यूनिटियों का विकास काफी स्वाभाविक तरीके से हुआ है। इसी वजह से तो इनमें काफी सहजता और आकर्षण झलकता है। एम50 और 696 वेहाई रोड में कलाकारों के स्टूडियो, गैलरियां और डिजाइन फर्म हैं, लेकिन ये लोग अपने लिए उपकरण का इंतजाम खुद करते हैं।
इन कम्यूनिटियों का प्रबंधन करने वाली कंपनियों ने जीर्णोधार या रिनोवेशन पर काफी कम खर्च किया है। नतीजतन यहां किराया काफी कम है। इसी के कारण यहां लोग खींचे चले आ रहे हैं। ताइकांग रोड शहरी नियोजन की यांत्रिकता से मुक्त होने की बेहतरीन मिसाल है। शहर नियोजकों के दिशा-निर्देशों से बेपरवाह होने की वजह से इसका अहाता ज्यामितीय यांत्रिकता से बिल्कुल अलग है। स्थान के क्षेत्रफल के मुकाबले काफी कम लोगों की मौजूदगी इसे और खूबसूरत बना देता है।
इस तरह के आर्ट कम्यूनिटी की स्थापना सबसे पहले स्वर्गीय वाईफाई ने की थी। इन कम्यूटियों की बिल्डिंगों में स्थानीय डिजायनरों की बुटीक के अलावा कैफे और बार भी मौजूद हैं। आर्ट कम्यूनिटी की बदौलत आपको ऐसी जगह घूमने का मौका मिलता है, जहां आप खुद को भुला कर इसकी खूबसूरत फिजां में गुम हो जाते हैं। साथ ही लजीज व्यंजनों और चीनी मिट्टी की खूबसूरत कलाओं का लुत्फ भी उठाने का मौका मिलता है।
चॉकलेट फैक्टरी
डेके अर्ह आर्ट सेंटर के संस्थापक और फोटोग्राफर ऐसी इमारतों में सबसे पहले आनेवाले लोगों में शामिल हैं। उन्होंने एक पुरानी चॉकलेट फैक्टरी को अपना रचनात्मक घर बनाया है। शहर में चल रहे तोड़फोड़ अभियान की वजह से मजबूर होकर उन्हें यहां आकर शरण लेनी पड़ी। हालांकि ताइकांग पर भी बड़े क्रेन की प्रेतछाया मंडरा रही थी, लेकिन लुईवान जिला प्रशासन ने ताइकांग को ढाहने पर पाबंदी लगा दी और इसे नए सिरे से खुद को खड़ा करने का मौका मिला।
हालांकि सरकारी सब्सिडी वाले घरों को किराए पर देना गैरकानूनी है, लेकिन सरकार ने इस मामले में अपनी आंखें मूंद ली हैं। अर्ह कहते हैं कि इन फ्लैंटों के आधिकारिक निवासी इसे 700-800 डॉलर ( 28 हजार रुपये से 32 हजार रुपये के बीच) प्रति माह पर किराए पर लगा देते हैं और खुद अपेक्षाकृत सस्ते फ्लैटों में रहने के लिए चले जाते हैं। इन फ्लैटों का किराया 300 डॉलर ( तकरीबन 12 हजार रुपये) होता है। इससे इन फ्लैटों के आधिकारिक निवासियों को कमाई का एक बेहतर जरिया मिल जाता है।
आर्ट सेंटरों के यहां पहुंचने से आसपास का माहौल में भी काफी बदलाव देखने को मिला है। अर्ह इसकी मिसाल पेश करते हुए कहते हैं कि जब इन इलाकों में ये सेंंटर नहीं हुआ करते थे, तो यहां एक शख्स अपनी शर्ट उतारकर घूमने के लिए निकलता था। अब वह रोज शर्ट पहनकर ही घूमने के लिए निकलता है। इन जर्जर क्वॉर्टरों में रहने वाले लोगों द्वारा इसे किराए पर लगाया जाना उनके लिए वरदान साबित हो रहा है। उन्हें सरकारी कार्रवाई का डर भी नहीं सता रहा है, क्योंकि प्रशासन जानबूझकर इसे नजरअंदाज कर रहा है।
बात यहीं खत्म नहीं होती
अर्ह के मुताबिक, यह ट्रेंड भविष्य में भी जारी रहेगा। वह कहते हैं कि मेरे विचार से सरकार को इमारतें खड़ी करने के बजाय कला और संस्कृति से जुड़े लोगों को इन बिल्डिगों में आने के लिए प्रेरित करना चाहिए। उन्होंने बताया, ‘लोग इस बात के लिए सरकार की आलोचना करते हैं कि वह संस्कृति को बचाने और इसे आगे बढ़ाने के लिए कुछ नहीं कर रही है। लेकिन मेरा मानना है कि अगर सरकार संस्कृति का ठेका नहीं ले रही है, तो यह बहुत अच्छी बात है।
कला के प्रबंधन और संरक्षण का काम कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों पर ही छोड़ देना चाहिए।’ अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि डेवलपरों के नेतृत्व में सृजनात्मक समूह वित्तीय रूप से भी काफी सफल रहे हैं। खास बात यह है कि इस प्रोजेक्ट में निवेश काफी कम हुआ है और इसके मुकाबले रिटर्न का अनुपात काफी ज्यादा है। इसके अलावा इसके जरिये ‘रचनात्मक इंडस्ट्री’ के लिए पर्याप्त जगह भी मुहैया कराना मुमकिन हो सका है।
हालांकि, इन इलाकों में पैदल राहगीरों की तादाद अब भी काफी कम है। बहरहाल ताइकंाग और एम50 जैसे गैरनियोजित इलाके कई लोगों की खूबसूरत मंजिल बन चुके हैं। इन इलाकों में कलात्मक खूबसूरती की फिजां का आलम है। ऐसी फिजां जिसे बनाने में ‘पूंजीवादी कम्यूनिस्ट’ नाकाम रहे थे।