डेरिवेटिव्स का जुमला आजकल भारत समेत पूरी दुनिया में सुर्खियों में है।
इस जुमले ने जहां पिछले 6 महीने में पूरी दुनिया की बिजनेस मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं, वहीं हेक्सावेयर को डेरिवेटिव्स की वजह से होने वाले भारी नुकसान के बाद भारत में भी यह मामला काफी चर्चा में रहा है।
हमारी फर्म लगातार अपने कॉरपोरेट ग्राहकों से डेरिवेटिव्स के उलझाऊ ढांचे के पचड़े में नहीं पड़ने की नसीहत देती रही है। इस वजह से इस सेगमेंट से जुड़े बैकिंग सेक्टर द्वारा हमें पुरातनपंथी भी करार दिया गया। गनीमत है कि हमें पुराना बेवकूफ नहीं कहा गया।कई सारे मामलों में ‘हेजिंग’ शब्द का इस्तेमाल गलत संदर्भों में भी किया जाने लगा है।
कुछ दिनों पहले ऐसी खबर आई थी कि लार्सन ऐंड टूब्रो ने कमोडिटी एक्सपोजर में हेजिंग के जरिये 200 करोड़ रुपये गंवाए। सैध्दांतिक तौर पर और लेखा मानकों के तहत बाजार की परिस्थितियों में बदलाव की वजह से धन के प्रवाह में बढ़ती अनिश्चितता को जोखिम (रिस्क) की संज्ञा दी गई है। डेरिवेटिव्स के कारोबार में हेजिंग का मकसद अनिश्चितता के आलम को कम करना है।
दूसरे शब्दों में कहें तो हेजिंग का उद्देश्य कीमत संबंधी अनिश्चितता को कम करना है, न कि लाभ कमाना। दरअसल, डेरिवेटिव्स के मामले में प्राइस रिस्क की हेजिंग के तहत खरीदारी के विकल्प के लिए अदा की जाने वाली फीस और अन्य खर्चों को भी शामिल किया जाता है।
इसके मद्देनजर मुझे लगता है कि हेजिंग का नतीजा लाभ या हानि के रूप में निकलेगा। हकीकत यह है कि लाभ और हानि जैसे नतीजे तभी निकल सकते हैं, जब कोई कीमतों के उतार-चढ़ाव के जरिये लाभ की उम्मीद में जान बूझकर जोखिम को बढ़ावा दे। इस कवायद को हेजिंग नहीं करार दिया जा सकता। ऐसी गतिविधियों के लिए सही शब्द सट्टेबाजी है।
साथ ही इससे यह भी संदेश जाता है कि हमारी कॉरपोरेट रिस्क मैनेजमेंट की संस्कृति जोखिम कम करने और कीमतें कम करने की कवायद में अंतर को पसंद नहीं करती। अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बिना जोखिम उठाए कीमतों को कम नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा जानबूझकर किया जाता है तो इसका मतलब साफ है कि सट्टेबाजी के तहत जोखिम कीमतों को कम करने या लाभ कमाने के मकसद से उठाया जा रहा है।
ऐसे में इस पर रोक लगाने की जरूरत है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जोखिम बाजार मूल्य (अगर आप बाजार मूल्य से 50 फीसदी ज्यादा पर खरीदारी करते हैं तो यह कहना बहुत मुश्किल है कि आप इससे धन कमाएंगे) पर उठाए जा रहे हैं। साथ ही बाजार मूल्य पर लगातार निगरानी रखी जाती है। अगर अनुमान गलत हो जाते हैं तो इसके लिए भी पहले से तैयारी होती है।
बाजार मूल्यों से जुड़ाव और गलत नतीजे की हालत में तुरंत बाहर निकलने के रास्ते जोखिम के कारोबार के प्रमुख हथियार हैं। हानि को कम करना और भविष्य का आकलन (जो शायद कोई भी नहीं कर सकता) इसकी सफलता का मूल मंत्र है। जरूरत ऐसे सिस्टम की है कि अगर आपका अनुमान सही है तो आप ज्यादा से ज्यादा पैसे बना सकें और अगर आपका अनुमान गलत निकले तो आप अपने नुकसान को कम से कम कर सकें।
ऐसा तब तक मुमकिन नहीं है, जब कीमतों का निर्धारण पारदर्शी तरीके से किया जाए और जोखिम से बाहर निकलने के लिए रास्ते को आसान बनाया जाए। मैं इस बात की वकालत कई वर्षों से कर रहा हूं। कहते हैं कि किसी बात पर लगातार कायम रहना और मुसीबत के वक्त इसका जिक्र करना मूर्खों की खासियत होती है। इस बाबत मैं अपने पिछले लेखों से कुछ उध्दृत करना चाहूंगा।
‘ बैंक और कॉरपोरेट खजांचियों के बीच मार्केटिंग टीम का प्रवाह काफी बढ़ चुका है। हालांकि, दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा के समान अवसर मौजूद नहीं हैं। ऐसे में जटिल डेरिवेटिव्स के प्रति बैंकों का रुझान स्वाभाविक है। अन्य इंस्ट्रूमेन्ट्स में लाभ के मार्जिन में कमी के मद्देनजर डेरिवेटिव्स सिस्टम को सुधारने की जरूरत है।’ (21 फरवरी, 2005, अंग्रेजी संस्करण)
‘पिछले कुछ समय में भारत में करंसी और ब्याज दर डेरिवेटिव्स में भारी बढ़ोतरी हुई है। सिध्दांतत: कॉरपोरेट की तरफ से लिखित विकल्पों के इस्तेमाल पर पाबंदी है। हालांकि, कई ढांचे इस पाबंदी से बचने में कामयाब हो जाते हैं। विकल्पों की अदला-बदली और बाजार मूल्य से अलग एक्सचेंज रेट की फीस अदा कर लोग इससे बच निकलते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि हम बहुत बड़े विवाद की तरफ बढ़ते जा रहे हैं और हो सकता है कि भविष्य में इसके लिए सख्त कायदे-कानून बनाने की नौबत आ पहुंचे। ‘ (10 मार्च, 2006, अंग्रेजी संस्करण)
‘कई सारी कंपनियों ने ऐसे लेनदेन किए हैं, जिनके तहत भुगतान 5 साल और 1 साल के यूएसडी स्वैप रेट के अंतर पर निर्भर करता है। इन सौदों से ऐसा जान पड़ता है, मानो इनका ढांचा हेज की तर्ज पर तैयार किया गया हो, जबकि ये सौदे अनिश्चितता और जोखिम से भरे पड़े हैं।’ (9 जुलाई 2007, अंग्रेजी संस्करण)
हालांकि इस बाबत सिर्फ कॉरपोरेट जगत पर दोष मढ़ना उचित नहीं होगा।खासकर ऐसे में जब भारत के सरकारी बैंक अपने द्वारा जारी किए गए बॉन्डों (रुपये में) को फिक्स्ड रेट कूपन में बदलकर उसे येन कूपन के रूप में जारी कर चुके हों और इस तरह के सौदों को हेजिंग की संज्ञा दी जा रही हो।