Categories: लेख

किस पर गिरेगी डॉलर के दर्द-ए-डिस्को की गाज?

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 05, 2022 | 4:42 PM IST


किसी आधुनिक और

‘सक्षम‘ वित्त बाजार की एक पहचान यह भी है कि उनका रुख अक्सर किसी एक दिशा (अच्छी या बुरी कोई भी) में चरम स्तर तक पहुंच जाता है। इस प्रक्रिया में, व्यक्तिगत परिसंपत्तियों की कीमतें आर्थिक सिध्दांतों द्वारा तय सीमा को भी पार कर जाती हैं। दरअसल, ग्लोबल विनिमय और बॉन्ड बाजार में के हालिया अनुभव कुछ इसी तरह की कहानी बयां करते हैं।


सबसे पहले विनिमय दरों की ही बात करते हैं। इन दिनों रोजाना यूरोपीय यूनियन

(ईयू) की मुद्रा यूरो और जापानी मुद्रा येन के सामने अमेरिकी मुद्रा डॉलर पानी भरता नजर आ रहा है। यूरो और येन के मुकाबले अमेरिकी डॉलर लगातार कमजोर हो रहा है। नई दरों के मुताबिक 1 यूरो की कीमत 1.55 डॉलर है और 1 डॉलर 101 येन के बराबर है। आखिर क्यों मजबूत हो रहा है यूरो? इसकी जो साफ वजह दिख रही है, वह यह है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व तो बाजार में तरलता पैदा कर रहा है यानी मुद्रा का प्रवाह बढ़ा रहा है और साथ ही ब्याज दरों में भी लगातार कटौती कर रहा है, पर यूरोपीय सेंट्रल बैंक (ईसीबी) इन मामलों में पूरी तरह मौन है।

साफ है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व का मकसद विकास और रोजगार को बढ़ावा देना है

, जबकि यूरोपीय सेंट्रल बैंक की प्राथमिकता सूची में अब भी महंगाई दर पर काबू पाने का काम सर्वोपरि है। दोनों ही बैंकों की प्राथमिकता में अंतर होने की वजह अलग–अलग हो सकती है। एक वजह यह हो सकती है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व का सरोकार महंगाई दर और रोजगार दोनों से है, जबकि ईसीबी का सिर्फ एक एजेंडा है महंगाई दर पर नकेल कसने का। एक सवाल यह भी है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा उठाए जा रहे कदमों के पीछे कहीं आगामी अमेरिकी चुनाव की बात तो ध्यान में नहीं रखी जा रही है?

अमेरिकी राष्ट्रपति अर्थवव्यस्था को दुरुस्त करने के लिए

150 अरब डॉलर पहले ही दे चुके हैं। ऐसे वक्त में जब ब्लूचिप कंपनियों की हालत खस्ता है, केन्स के सिध्दांत पर एक दफा फिर से जोरशोर से बहस गर्म है। इस वक्त अमेरिकी फेडरल रिजर्व और अमेरिकी प्रशासन दोनों ने मिल्टन फ्रिडमैन की अवधारणा को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। इसके बावजूद कुछ यूरोपीय देश यूरो की मजबूती को लेकर चिंतित हैं। हालांकि जर्मनी, जो यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, अब तक यूरो की मजबूती से होने वाले नकारात्मक प्रभाव से बेअसर रहा है।

जहां तक जापानी मुद्रा येन की बात है

, इसकी मजबूती की सबसे अहम वजह यह है कि वित्त वर्ष के आखिर के लिए वायदा सौदों का निपटारा होना है। पर इस मामले में एक दशक पहले की स्थिति और आज की हालत में काफी अंतर है। येन का मजबूत होना साफ तौर पर इस बात का संकेत है कि जापानी मुद्रा की अहमियत बढ़ रही है। दअसल, येन और डॉलर के ब्याज के बीच के पारस्परिक अंतर का कम होना इसकी एक वजह हो सकती है। सब–प्राइम संकट से पैदा हुए हालात को देखते हुए कम से कम खतरा उठाने का जो माहौल बना है, यह उसी का नतीजा हो सकता है।

दुनिया भर में

‘जोखिम भरे‘ बॉन्डों की कीमतें भी तेजी से गिरी हैं। इस तरह के बॉन्डों के लिए लगाई जाने वाली बोलियों में भी अब भारी अंतर पाया जा रहा है। लिहाजा रिस्क प्रीमियम (सरकारी और कॉरपोरेट बॉन्ड से होने वाली आमदनी का फासला) भी बढ़ता जा रहा है। पिछले छह महीने और उससे ज्यादा अवधि से कॉरपोरेट बॉन्ड से संबंधित क्रेडिट डिफॉल्ट के मामले तेजी से बढ़े हैं। इस मामले में डिफॉल्ट रेट 2.4 पर पहुंच गया है, जो 1970 के बाद से औसतन 0.8 पर बना हुआ था। साफ है कि डॉलर मार्केट के प्रति भरोसा बहुत ज्यादा कम नहीं हुआ है, पर इसका असर करंसी और बॉन्ड की कीमतों पर साफ तौर पर पड़ता दिखाई दे रहा है।

एक और गौर करने लायक चीज यह है कि कीमतों में उछाल की कहानी बार

–बार दोहराई जाने लगी है। वित्त बाजारों की दास्तां अजीब हो गई है। पहले तो वित्त बाजारों में अति उत्साह का माहौल दिखा, फिर यह यह माहौल निराशा और अवसाद में तब्दील हो गया और फिर अति उत्साह का आलम बन गया है। यही कहानी वित्त बाजारों की एक मात्र सचाई बनकर रह गई है। इस बीच, अमेरिकी ट्रेजरी अपनी ‘मजबूत डॉलर‘ वाली नीति पर बदस्तूर कायम है, भले ही मौजूदा हालात में इसका जो भी मतलब हो।

डॉलर के कमजोर होने की वजह से जो सबसे बड़ी बात सामने आ रही है

, वह यह है कि इसके चलते कमोडिटी की कीमतों में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति बैरल के पार जा चुकी है। सोने की कीमतें भी कुलाचे भर रही है। पिछले साल भर में गेहूं की कीमतें दोगुनी हो चुकी हैं। जाहिर है इन वजहों से दुनिया भर में महंगाई दर बढ़ने का खतरा और बढ़ेगा और भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा। डॉलर के कमजोर होने की बात छोड़ भी दें तो एक बात यह है कि दुनिया की आबादी 9 अरब होने वाली है। पर खेती की जमीन और खनिज संपदाएं जस की तस हैं।

जाहिर है इस वजह से भी कमोटिडी की कीमतों में उफान आएगा और अगले कुछ दशकों तक इस तरह की तेजी देखने को मिलेगी। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक

(आरबीआई) अगले महीने अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा में किस तरह का कदम उठाएगा? जाहिर है कि आरबीआई का कोई भी कदम अगले साल होने वाले आम चुनावों को ध्यान में रखकर उठाया जाएगा। बजट में इस तरह की झलक देखने को मिल चुकी है। कई देशों के शीर्ष बैंक महंगाई दर को काबू करने के मूल मुद्दे को लेकर पसोपेश में है। मिसाल के तौर पर, अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने तो खाद्य पदार्थों और ऊर्जा की कीमतों में किसी तरह की छेड़छाड़ ही बंद कर दी है।

फेडरल रिजर्व का मानना है कि मौद्रिक नीति के जरिये इन दोनों चीजों को नियंत्रित किए जाने का कोई मतलब नहीं।

भारत में भी खाद्य पदार्थों और ऊर्जा की कीमतें राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशीनल विषय हैं। ऐसे में महंगाई पर काबू के नाम पर रिजर्व बैंक बहुत सख्त नहीं सही, पर सख्त रवैया तो जरूर अपनाएगा। पर इससे खाद्य पदार्थों की कीमतों पर काबू पाए जाने में किसी तरह की मदद नहीं मिलेगी, हां इतना जरूर होगा कि इससे विकास और रोजगार की रफ्तार को धक्का लगेगा।
First Published : March 19, 2008 | 12:03 AM IST