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क्यों गोता लगा रहे हैं भारतीय बाजार?

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 10, 2022 | 5:31 PM IST

भारतीय इक्विटी बाजार का बेहद बुरा दौर चल रहा है।1992 के बाद यह बाजार अब तक की अपनी सबसे खराब तिमाही से गुजरा है, जिसमें बड़े सूचकांकों में 28 फीसदी (डॉलर टर्म में) और मझोली कंपनियों के सूचकांकों में 35 से 40 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।


बाजार की इस चाल से आहत निवेशकों को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर हो क्या रहा है? इस बारे में कई तरह की चर्चाएं गर्म हुईं। मसलन, क्या मौजूदा क्रेडिट संकट की जड़ अमेरिका में नहीं है? क्या पश्चिमी देशों में चल रहे वित्तीय संकट से भारत को अलग नहीं किया जा सकता है? इस साल के शुरू से लेकर अब तक भारतीय
बाजार का नाम भी बुरे प्रदर्शन वाले बाजारों में क्यों शुमार हो गया है? और हम लोग दूसरे उभरते बाजारों के मुकाबले बुरा प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं?


भारतीय निवेशक इन दिनों अतिरिक्त सतर्क हो गए हैं और वायदा व विकल्प (एफऐंडओ) मार्केट में उनकी दिलचस्पी 65 फीसदी कम हो गई है। विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) इस साल जनवरी से लेकर अब तक 3 अरब डॉलर की बिकवाली कर चुके हैं। स्थानीय स्तर पर भी म्युचुअल फंड और इंश्योरेंस यूलिप में निवेश की रफ्तार कुंद हो गई है। कुल मिलाकर कहा जाए तो हर ओर असहजता और धैर्यहीनता का आलम है।


निजी स्तर पर मैं काफी कम लोगों को जानता हूं जो मौजूदा हालात में बाजार में नया निवेश करने की मंशा रखते हैं। एक दफा तो ऐसा पाया गया कि बाजार में कारोबार फॉरवर्ड अर्निंग के 20 गुना पर किया जा रहा है। लेकिन फिलहाल कारोबार मार्च 2009 की अनुमानित आय के 15 गुना पर किया जा रहा है और तमाम समायोजन के बाद यह 12.5 गुना बनता है।


इस स्थिति में भी बाजार की हालत बुरी नहीं कही जा सकती है और निवेशकों के लिए 20 फीसदी रेट ऑफ अर्निंग (आरओई) की गुंजाइश है। बावजूद इसके किसी में भी यह आत्मविश्वास नहीं है कि वह बाजार में अपने कदम रखे।


महज 3 महीने पहले हमारा किला अभेद्य माना जा रहा था और भारतीय बाजार 8 से 9 फीसदी की दर से आगे बढ़ रहा था। अमेरिकी संकट से दूर हमारा बाजार आत्मविश्वास से पूरी तरह लबरेज था। पर यह सारा भरोसा अब चकनाचूर हो चुका है। पिछले कुछ वर्षों से भारत सपनों की दौड़ लगा रहा है।


यहां के लोग ज्यादा खर्चीले हो गए हैं और उनकी आमदनी बढ़ी है। हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर कुछ कम हुई है, वित्त वर्ष 2008-09 में इसके 7 से 7.5 फीसदी के आसपास रहने की उम्मीद है। इन सबसे इतर एक समस्या जो भारत समेत हर उभरती हुई अर्थव्यवस्था के साथ है, वह है मुद्रास्फीति (महंगाई दर) की ऊंची उड़ान।


मुद्रास्फीति के अलावा बाकी बातें


(जिनका जिक्र ऊपर किया गया है) भी ऐसी हैं, जो बड़ी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में समान है।मुझे लगता है कि भारत दो मोर्चों पर नाकाम रहा है। पहला मुद्दा कॉरपोरेट आमदनी की पारदर्शिता और उसके अनुमान से संबंधित है, जबकि दूसरे का ताल्लुक सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से है।


लोगों को यह बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि पिछले कुछ महीनों में भारतीय कॉरपोरेट सेक्टर ने अपने खुलासों और पारदर्शिता के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं किया है, जिसे उल्लेखनीय और गौरवपूर्ण कहा जा सके। इस बात के सबूत हैं कि बैंकों ने किस तरह आईपीओ मार्केट में घालमेल किया और फिर इसे अपनी सामान्य आमदनी के रूप में दिखाया।


इसी तरह, कई कॉरपोरेट हाउसों ने विदेशी मुद्रा बाजार में घालमेल किया और अब जब उनके कारोबार पर बुरा असर पड़ रहा है, तो वे यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें गलत तरीके से डेरिवेटिव प्रॉडक्ट बेचे गए। कंपनियों की आमदनी को लेकर भी भरोसा नहीं किए जाने की धारणा सामान्य हो चुकी है, खासकर बैंकों और ज्यादा आक्रामक मिड-कैप के बारे में तो ऐसी धारणा है ही।


ऐसे में निवेशकों को कंपनियों के 31 मार्च को खत्म होने वाले तिमाही नतीजों का इंतजार है और बहुत मुमकिन है कि उन्हें हैरत में डालने वाली कई और बातें हों।हम यह भी देख चुके हैं कि निवेशकों की कई चहेती कंपनियां (खासकर कैपिटल गुड्स और पावर सेक्टर की कंपनियां) क्रियान्वयन और मार्जिन के मामले में निवेशकों को निराश कर चुकी हैं।


ऑर्डर बैकलॉग ज्यादा होने और भावी आमदनी के साफ होने के बाजवूद ये कंपनियां निवेशकों की उम्मीद पर खरी नहीं उतर पाई हैं। हर क्षेत्र में कमोबेश यही हालत है और निवेशकों को लग रहा है कि उन्हें आमदनी के रूप में ज्यादा कुछ नहीं मिलने वाला। कंस्यूमर से जुड़े सेक्टरों में ऊंची ब्याज दरों (जिनके और ज्यादा होने की संभावना है) का माहौल यह बता रहा है कि आने वाले दिनों में डिमांड और कम होगी।


इसी तरह, बढ़ता लागत मूल्य उत्पादकों के मार्जिन पर बुरा असर डालेगा। निर्यातकों के लिए रुपये की मजबूती बड़ी समस्या है। इसी तरह कमोडिटी उत्पादकों पर सरकार द्वारा ध्यान नहीं दिया जा रहा। पूंजी जुटाने की ख्वाहिश रखने वालों के लिए भी वक्त अच्छा नहीं है। बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्जों में कमी दर्ज की जा रही है और बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) में लगातार इजाफा हो रहा है। धीमी विकास दर के मद्देनजर निवेशकों का उत्साह मंदा है।


आमदनी या कमाई के मुद्दे पर मैंने आज से पहले विशेषज्ञों और निवेशकों में ऐसी अनिश्चितता की स्थिति नहीं देखी थी। यहां तक कि आज से 2 महीने पहले भी यह माना जा रहा है कि बाजार हर हाल में 15 से 20 फीसदी के बीच आमदनी तो देगा ही। पर आज इस तरह की बातें और ऐसे सभी आंकड़े शंका की जद में आ गए हैं और यह मार्जिन और क्रियान्वयन से संबंधित चुनौतियों की वजह से हो रहा है।


भारतीय निवेशक अभी इस बात के आदी नहीं हैं कि निवेश से होने वाली आमदनी में गिरावट भी होती है, क्योंकि उन्हें अब तक कमोबेश अच्छे रिटर्न हासिल होते रहे हैं। निवेशक अनिश्चितता पसंद नहीं करते और और जब आमदनी के मामले में सारी चीजें साफ नहीं हो जाती, निवेशकों की ओर से पैसे लगाए जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती।


दूसरा मुद्दा सरकार के रुख से संबंधित है। किसानों को दी गई कर्जमाफी का मसला हो या फिर कीमतों को लेकर सरकार का दखल या फिर निर्यात पर लगाई गई पाबंदी, सरकार के ये कदम निवेशकों को हैरत में डाल रहे हैं। निवेशकों का यह बात समझ में नहीं आ रही कि कीमतों पर काबू की अपनी नैतिक जिम्मेदारी की मजबूरी की वजह से सरकार इंडस्ट्री इकोनोमिक्स के साथ खिलवाड़ क्यों कर रही है?


इसी तरह पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को उनके सामाजिक एजेंडे में मदद करने का सरकार का इरादा भी निवेशकों के गले नहीं उतर रहा। इन्हीं तरह के कई और सरकारी कदमों से निवेशकों को नाराजगी है।


इन तमाम चीजों के बावजूद मुझे नहीं लगता कि सब कुछ खत्म हो गया है। आमदनी को लेकर मौजूदा ऊहापोह तात्कालिक है और आने वाले दिनों में हालात सुधरेंगे। आने वाले दिनों में सरकार को ज्यादा संजीदगी से कदम उठाना होगा। निवेशक भी आखिरकार बाजार में लौटेंगे, पर इन चीजों में थोड़ा वक्त जरूर लगेगा।

First Published : April 8, 2008 | 11:46 PM IST