देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 7-13 फीसदी तक का योगदान देने वाले सूक्ष्म, लघु व मझोले उद्योगों (एमएसएमई) के लिए वर्ष 2008 अग्नि परीक्षा का वर्ष रहा।
आरंभ में इन उद्योगों पर महंगाई की मार पड़ी तो सितंबर से वे मंदी की चपेट में आ गए। कभी वे अधिक लागत की वजह से उत्पादन करने की स्थिति में नहीं रहे तो कभी मांग में भारी कमी के कारण उन्हें उत्पादन में कटौती करनी पड़ी।
सूक्ष्म, लघु व मझोले उद्योगों की कुल 1.3 करोड़ इकाइयों के उत्पादन में 30-40 फीसदी तक की गिरावट हो चुकी है। शून्य के स्तर से भी नीचे पहुंचने वाला औद्योगिक उत्पादन सूचकांक भी इस बात की गवाही दे रहा है। हालत इतनी खराब हो चुकी है कि ये उद्यमी अपने औद्योगिक कर्ज की किस्त तक नहीं चुका पा रहे हैं।
इन इकाइयों में छंटनी का दौर भी शुरू हो चुका है। 1.3 करोड़ औद्योगिक इकाइयों में 3.3 करोड़ लोगों को सीधे तौर पर रोजगार मिला हुआ है।
एमएसएमई से जुड़े उद्यमियों के मुताबिक वर्ष 2008 के मार्च के बाद कच्चे माल की कीमतों में बढ़ोतरी का दौर शुरू हुआ। रबर, एल्युमिनियम, स्टील, लोहा, तांबा, प्लास्टिक, रसायन से लेकर हर प्रकार के कच्चे माल के बढ़ोतरी के साथ अगस्त माह में अपन उच्चतम स्तर पर पहुंच गए।
नतीजा यह हुआ कि मई माह से इन इकाइयों का उत्पादन स्तर प्रभावित होने लगा। उस दौरान हर रोज कीमत में बढ़ोतरी के कारण ऑर्डर लेने से डिलिवरी तक की कीमत में काफी अंतर आने लगा।
लिहाजा उन्होंने अपने उत्पादन में 7-8 फीसदी की कटौती कर दी। सितंबर महीना शुरू होते ही विश्व व्यापी मंदी का दौर शुरू हो गया और बाजार में मांग गिरने लगी।
अमेरिका व यूरोप के बाजार में निर्यात करने वाले उद्यमियों को कुछ ज्यादा ही झटका लगा। बाजार से नकदी गायब होने व बैंकों से मिलने वाले कर्ज में कठिनाई के कारण उत्पादन स्तर में और गिरावट होने लगी।
अमेरिका व यूरोप में 30 फीसदी का टैक्सटाइल व गारमेंट्स बाजार होने के नाते इससे जुड़ी ऌकाइयां बंदी के कगार पर आ गयी। वाहनों की बिक्री में कमी से ऑटो क्षेत्र से जुड़े लघु व मझोले उद्योगों के उत्पादन में 25-30 फीसदी की गिरावट आ गयी। निर्माण क्षेत्र की मंदी ने पेंट, लकड़ी व इससे जुड़े अन्य उद्योगों की कमर तोड़ दी।
टेलीविजन, फ्रिज, एयरकंडीशनर, हीटर जैसे व्हाइट गुड्स की मांग में आयी गिरावट के कारण इससे जुड़ी छोटी इकाइयों का काम-धंधा चौपट हो गया।
टेक्सटाइल क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो अन्य एमएसएमई में अभी ताला लगने की नौबत नहीं आयी है लेकिन हालत में सुधार के लिए कोई बड़ा प्रयास नहीं होने पर अगले साल मार्च-अप्रैल तक इनमें से 20 फीसदी इकाइयां बंद हो सकती है।
फेडरेशन ऑफ माइक्रो, स्मॉल एंड मीडियम इंटरप्राइजेज (फिस्मे) के सचिव अनिल भारद्वाज कहते हैं, ‘काम में मंदी का दौर सितंबर से शुरू हुआ है इसलिए अभी ये इकाइयां सांस ले रही हैं, लेकिन 2009 तक स्थिति बदतर होने की आशंका है क्योंकि उत्पादन लगातार गिर रहा है।’
लघु उद्यमियों को वर्ष 2008 के दौरान बैंकों का भी सहयोग नहीं मिला। उद्यमियों की शिकायत है कि बैंक उन्हें कर्ज देने में हमेशा आनाकानी करता है।
फरीदाबाद स्मॉल इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष राजीव चावला कहते हैं कि बैंकों ने अपने कुल कर्ज वितरण में से मात्र 8 फीसदी कर्ज सूक्ष्म व लघु इकाइयों को दिए। ब्याज की ऊंची दर से उनकी लागत प्रभावित रही। फिलहाल 13-16 फीसदी की दर से एमएसएमई को कर्ज मुहैया होता है।