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Patriarchy: पितृसत्ता के चंगुल में खेल संगठन व संस्थान

देश के किसी भी खेल संघ के अध्यक्ष ने पहलवानों को समर्थन देने की घोषणा नहीं की है।

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कनिका दत्ता   
Last Updated- June 13, 2023 | 11:39 PM IST

इस समय जबकि दिल्ली पुलिस सांसद बृजभूषण शरण सिंह से निपटने की समस्या से जूझ रही है, भारतीय समाज में पैबस्त पितृसत्तात्मक ढांचा खुलकर देखने को मिल रहा है। मौजूदा विवाद इस बात को रेखांकित करता है कि सत्ता के साथ घालमेल के बाद जन्मजात अंधराष्ट्रवाद बहुत विषाक्त रूप ले लेता है।

कैसरगंज के सांसद सिंह द्वारा की जा रही सार्वजनिक अवहेलना यही जाहिर करती है। यह बात केवल राजनीति पर लागू नहीं होती है बल्कि कॉर्पोरेट जगत में भी पुरुष ही महिलाओं की तकदीर तय करते हैं।

अब तक की बात करें तो महिला पहलवानों के विरोध प्रदर्शन की दृढ़ता को कई जगह से सहानुभूति और समर्थन हासिल हुआ है। सन 1983 की क्रिकेट विश्व कप विजेता टीम भी उसमें शामिल हैं। उस टीम में से केवल बीसीसीआई के वर्तमान अध्यक्ष रोजर बिन्नी ने ही समर्थन देने से दूरी बनाई और इसकी वजह को भी अच्छी तरह समझा जा सकता है।

बिन्नी भले ही अराजनीतिक बन रहे हों लेकिन वह जिस माहौल में काम करते हैं वह दरअसल पितृसत्ता, राजनीतिक सत्ता और खेल प्रशासन के गठजोड़ वाला माहौल है और कुछ नहीं। वह जिस संस्थान का नेतृत्व कर रहे हैं उसका शक्तिशाली सचिव देश के गृह मंत्री का बेटा है। ऐसा भी नहीं है कि बिन्नी इस परिदृश्य में कोई अपवाद हैं।

याद रहे कि देश के किसी भी खेल संघ के अध्यक्ष ने पहलवानों को समर्थन देने की घोषणा नहीं की है। यहां तक कि कयाकिंग और कैनोइंग एसोसिएशन जैसे संगठन ने भी नहीं। यह विडंबना ही है कि इसका मुख्यालय दिल्ली में स्थित है जहां शायद ही कोई ऐसी जल संरचना है जिसका इस्तेमाल किया जा सकता है।

भारत के खेल महासंघों की बात की जाए तो वे पितृसत्ता और राजनीतिक संरक्षण के एकदम सटीक उदाहरण हैं। एशियाई खेलों की पदक विजेता पी टी उषा को जब भारतीय ओलिंपिक महासंघ का मुखिया नियुक्त किया गया तो यह तथ्य भी काफी कुछ बताता है। उन समेत केवल दो महिलाओं को भारतीय खेल महासंघों की अध्यक्षता करने का अवसर मिला है।

दूसरे नाम के लिए आपको टेबल टेनिस फेडरेशन ऑफ इंडिया यानी टीटीएफआई का रुख करना होगा जहां दिसंबर 2022 में मेघना अहलावत को पहली महिला अध्यक्ष चुना गया। परंतु ये पद किंतु-परंतु के साथ आते हैं। उषा के उलट अहलावत को खेलों में उत्कृष्टता के लिए नहीं जाना जाता है या निश्चित तौर पर उन्हें खेल प्रशासन की कोई विशेषज्ञ जानकारी भी नहीं है।

इसके बजाय अधिकांश खबरों में कहा गया कि वह हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला की पत्नी हैं। चौटाला खुद टीटीएफआई के अध्यक्ष थे और उन्हें तब पद छोड़ना पड़ा था जब एक राष्ट्रीय खिलाड़ी द्वारा मैच फिक्सिंग का आरोप लगने के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश पर बोर्ड को निलंबित कर दिया गया था।

ऐसा कोई नियम नहीं है जो कहता हो कि खिलाड़ी स्वत: अच्छे खेल प्रशासक साबित हो सकते हैं। परंतु यह दलील भारतीय राजनेताओं पर भी लागू हो सकती है। उदाहरण के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के राजनेताओं ने अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ पर निरंतर अपना नियंत्रण बनाए रखा है। इसके बावजूद पुरुष टीम दुनिया में 103 वें स्थान पर है।

दूसरे खेलों में जहां भारत का प्रदर्शन अच्छा है यानी बैडमिंटन से लेकर कुश्ती और बॉक्सिंग से लेकर हॉकी तक यही कहना उचित होगा कि निजी निवेश ने राजनीतिक हस्तक्षेप की तुलना में कहीं अधिक अहम भूमिका निभाई है।

हिमंत विश्व शर्मा असम के मुख्यमंत्री और पूर्वोत्तर लोकतांत्रिक गठबंधन के मुखिया के रूप में काफी कुछ पा चुके हैं (हालांकि मणिपुर हिंसा में झुलस रहा है) इसके बावजूद वह 2017 से ही बैडमिंटन महासंघ के मुखिया हैं और असम के क्रिकेट एसोसिएशन के मुखिया भी।

ये तमाम पुरुष राजनेता आमतौर पर सत्ताधारी दल या गठबंधन से आते हैं और उन्हें करदाताओं के पैसे से विदेश यात्राओं तथा अन्य लाभ उठाने का अवसर मिलता है। ऐसे में यह संभावना कमी ही है कि वे उन महिला पहलवानों के पक्ष में कुछ बोलेंगे जिन्होंने एक ऐसे राजनेता को चुनौती देने का निर्णय लिया है जो सत्ताधारी वर्ग में एक मजबूत जगह रखता है।

क्या आप यह सोचते हैं कि खेल संस्थानों की अध्यक्षता करने वाले गैर राजनीतिक व्यक्ति दखल देंगे? उनमें से कम से कम एक शायद ऐसे भत्तों और लाभ पर इतना निर्भर न हो क्योंकि वह स्वयं अपनी तरह का एक बड़ा कारोबारी है। वह व्यक्ति हैं स्पाइसजेट के चेयरमैन अजय सिंह जो बॉक्सिंग फेडरेशन के अध्यक्ष हैं। उनका फेडरेशन उस खेल को संभालता है जिसमें भारतीय महिलाओं ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफलताएं अर्जित की हैं।

यहां बात आती है भारतीय कारोबारी जगत की। यहां भी भारतीय खेल संगठनों के साथ जबरदस्त समानता देखने को मिलती है। ऊपरी प्रबंधन में महिलाओं की कमी एकदम साफ महसूस की जा सकती है। 2023 में मुनाफे के अनुसार शीर्ष 10 निकायों में से अगर स्टेट बैंक और कोल इंडिया को छोड़ दिया जाए तो केवल एक में महिला का नेतृत्व था। यह बात बाजार पूंजीकरण के अनुसार देश की शीर्ष 10 कंपनियों पर भी लागू होगी।

कारोबारी जगत में पुरुषों के ऐसे दबदबे के बावजूद इनमें से अधिकांश कंपनियों को वैश्विक स्तर पर प्राय: महत्त्वपूर्ण भी नहीं माना जाता। इसके बावजूद कई भारतीय कंपनियों के पुरुष सीईओ अक्सर ट्विटर पर भारत की महानता की बातें करते पाए जाते हैं। रहस्य की बात है कि उनमें से कोई उन महिलाओं के खिलाफ इस मौजूदा अत्याचार पर कुछ नहीं कह रहा है जिन्होंने समय-समय पर भारत को वाकई महान बनाया है।

First Published : June 13, 2023 | 11:39 PM IST