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कच्चे तेल की बढ़ती कीमत के क्या हैं मायने

Last Updated- December 06, 2022 | 10:41 PM IST

अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत 125 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है। महज साल भर में तेल की कीमत में 100 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। इसके कई खौफनाक पहलू भांपकर राजनयिक और औद्योगिक जगत में सनसनी मच गई है।


असल में तेल की कीमत बढ़ने के मायने वाकई में काफी गहरे हैं। तेल संकट के मुहाने पर खड़ी दुनिया के लिए दूसरी खाई भी तैयार हो रही हैं। सितंबर 2001 में 1 बैरल कच्चे तेल के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में महज 20 डॉलर देने पड़ते थे, लेकिन 7 साल में इसकी कीमत में 500 फीसद से भी ज्यादा का इजाफा वाकई हैरत में डालने वाला है। लेकिन मामला यहीं नहीं थम रहा।


गोल्डमैन सैक्स के मुताबिक तो कच्चे तेल का मूल्य जल्द ही 150 से 200 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंचने वाला है। दूसरे जानकार भी 2 साल में तेल की कीमत आसमान तक पहुंचने की आशंका जता रहे हैं।


इससे दिक्कतें तो पहले ही शुरू हो चुकी हैं और हम उनसे आंखें नहीं मूंद सकते। सीएनएन की हालिया जारी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में खाद्यान्न की कीमत पिछले कुछ महीनों में 45 फीसद तक बढ़ गई है। मुद्रास्फीति की कुलांचे भरती दर (जो तकरीबन सभी मुल्कों की समस्या है) इसका सबूत है। कच्चा तेल महंगा होने के साथ यह दर और भी बढ़ने जा रही है।


असल में महंगी दर पर तेल खरीदकर कारखानों में जो उत्पाद बनाए जाते हैं, उनकी कीमत भी बहुत ज्यादा होती है। उन उत्पादों के उपभोक्ता तक पहुंचने से पहले एक शृंखला चलती है, जिसमें तमाम स्तरों पर इस लागत का डंक झेला जाता है, जो आखिर में उपभोक्ता को ही चोट पहुंचाता है।


देश में तेजी से बढ़ रही मुद्रास्फीति दर की एक बड़ी वजह यह भी है। वैसे भी आज दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं तेल पर ही आधारित हैं क्योंकि फिलवक्त ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत यही है। ऐसे में तेल की कीमत का बोझ हर स्तर पर पड़ना लाजिमी है।


हालांकि शुरू में यह सोचा गया था कि खपत बढ़ने से महंगा हो रहा तेल कुछ ही अर्से में सस्ता हो जाएगा क्योंकि अमेरिका में आर्थिक मंदी की आहट के बीच तेल की खपत कम हो गई है। लेकिन भारत और चीन ने इस कयास को उलट दिया है। दोनों देशों में जबर्दस्त आर्थिक विकास की कुंजी तेल है, इसलिए उसकी खपत भी दिनोंदिन बढ़ रही है। जाहिर है, तेल की कीमत भी इसीलिए बेलगाम हो रही है।


इसके उलट बुश को आईना दिखाए जाने की जरूरत है। अमेरिका ने कच्चे तेल के डंक से बचने के लिए बायोडीजल की जो डफली बजानी शुरू की है, उसकी वजह से भी कई देश भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं। ईंधन के लिए करोड़ों टन अनाज जला देना कहां तक मुनासिब है? लेकिन अमेरिका जानबूझकर इस तरफ से आंखें मूंद रहा है।


हालांकि अपनी गलती का दोष दूसरों पर मढ़ना बुश की पुरानी आदत है। शायद अर्थशास्त्र के बारे में उनकी समझ की बुनियाद ही कमजोर है। इसी वजह से उन्होंने खाद्यान्न की कमी का दोष भी भारत और चीन के मत्थे मढ़ दिया, जबकि जरूरत से ज्यादा खाने की वजह से हद दर्जे तक मोटे होते अमेरिकी किशोरों को लेकर बुश की चिंता से भी हर कोई वाकिफ है।


वैसे तेल की कीमत हमेशा से इतनी ज्यादा नहीं थी। केवल 60 साल पहले 1948 में कच्चा तेल महज ढाई डॉलर प्रति बैरल के हिसाब से बिकता था। तकरीबन 25 साल तक इसकी कीमत में न के बराबर बदलाव हुआ और 1974 में भी तेल की कीमत 3 डॉलर प्रति बैरल ही थी। इसमें पहला बड़ा इजाफा 1973 में इजरायल और मिस्र, सीरिया की लड़ाई के वक्त हुआ और 1978 में इसकी कीमत 33 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई।


3 साल में ही इसकी कीमत 12 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई। अमेरिकी वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज ने उस दौरान कम से कम 9,700 करोड़ डॉलर गंवा दिए। मुद्रास्फीति की दर भी केवल 2 साल में ढाई गुना होकर 10.19 फीसद के आंकड़े पर पहुंच गई। हो सकता है, बुश इसी वजह से इस बार भी घबरा रहे हों।


तेल की अहमियत का अंदाजा पहले खाड़ी युद्ध में भी लगा था। उसकी वजह से 1980 में कच्चा तेल 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया। इसका असर कई साल तक बरकरार रहा था। उस समय कई लोगों ने अपने स्कूटर घरों में खड़े कर दिए थे (उस समय कार जरूरत की वस्तु नहीं बल्कि संपन्नता का प्रतीक थी और अच्छा वेतन पाने वालों के लिए स्कूटर ही शान की सवारी होता था। कार खरीदना उस समय हाथी पालने की तरह था।) और साइकिल की सवारी शुरू कर दी थी।


इस बार भी तलवार हमारे ऊपर लटक रही है। जीवाश्म ईंधन के ये भंडार वैसे भी एक दिन खत्म हो जाने हैं। ऐसे में खाने के लिए दंगे या महंगाई की वजह से भुखमरी जैसे कहर से बचने के लिए हमें ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों को खंगालना होगा। हम खुशकिस्मत हैं कि पिछले तेल संकट हमें बता चुके हैं कि आगे क्या हो सकता है और तेल की बढ़ती कीमतों के मायने क्या हैं।

First Published - May 9, 2008 | 11:11 PM IST

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