भले ही रिटेल के क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को प्रत्यक्ष तौर पर कदम रखने की इजाजत नहीं हो पर फ्रेंचाइजी के रास्ते विदेशी कंपनियां भारत में उपस्थिति दर्ज कराती रही हैं। फिर भी फ्रेंचाइजी के लिए देश में कोई कानून अभी तक नहीं बनाया गया है। हालांकि मलेशिया और कोरिया जैसे उभरते देशों ने फ्रेंचाइजी के लिए व्यापक कानून बना रखे हैं। भले ही तमाम फ्रेंचाइजी व्यवस्थाओं के लिए किसी एक ही कानून का निर्माण मुश्किल है और कॉन्ट्रैक्ट ऐक्ट और सामान्य कानून भी इस दिशा में ठीक ठाक काम कर रहे हैं फिर भी पूरी व्यवस्था के लिए एकसमान नियामक प्रारूप
जरूरी है।
भारत में फाइनैंस ऐक्ट के तहत फ्रेंचाइज को एक ऐसे कानून के तौर पर परिभाषित किया गया है जो किसी फ्रेंचाइजी प्रतिनिधि को उत्पादों को तैयार करने या उन्हें बेचने या फिर सेवा प्रदान करने का अधिकार देती है और इस क्रम में फे्रंचाइजर कंपनी का ट्रेड मार्क, ब्रांड नेम और लोगो का इस्तेमाल कर सकता है। फ्रेंचाइजी समझौते में फ्रेंचाइजर और फ्रेंचाइजी के बीच के लेन देन के पहलुओं को कॉन्ट्रैक्ट ऐक्ट में शामिल किया गया है। इनमें अंतर पक्षीय अधिकार, ऑब्लिगशन और जिम्मेदारियों को भी शामिल किया गया है। आमतौर पर कोई फ्रेंचाइजर एक तय क्षेत्र में एक तय अवधि के लिए फ्रेंचाइजी को कुछ अधिकार सौंपती है। ऐसे में परफॉर्मेंस, संभावनाओं, सीमाओं, एक्सक्लूसिविटी राइट्स, टर्मिनेशन और फ्रेंचाइजर की फीस गौर करने लायक कुछ महत्त्वपूर्ण बातें
होती हैं।
जब फ्रेंचाइजिंग के अधिकार एक देश से बाहर दूसरे देश में सौंपे जाते हैं तो इस खेल में कई नियम कानून भी जुड़ जाते हैं। भले ही किसी भी बौद्घिक संपदा की फ्रेंचाइजिंग की जा रही हो, पर ब्रांड नेम और ट्रेडमार्क जैसे पहलू हमेशा से साथ में जुड़े ही रहते हैं। भारतीय कानून विदेशी फें्रचाइजरों को यह इजाजत देता है कि अगर तकनीकी समझौता नहीं किया गया हो और केवल ट्रेडमार्क और नाम का इस्तेमाल भर हो तो वे 2 फीसदी तक की रॉयल्टी वसूल सकते हैं। अगर भुगतान अधिक हो तो ऐसे में एसआईए से पहले मंजूरी लेनी होती है। ऐसी फ्रेंचाजियां जो तकनीकों का हस्तांतरण भी करती हों, वे निर्यात पर 8 फीसदी तक की रॉयल्टी का भुगतान कर सकती हैं और घरेलू बिक्री की स्थिति में 5 फीसदी तक की रॉयल्टी अदा कर सकती हैं। ट्रेड मार्क ऐक्ट 1999 के तहत विदेशी फ्रेंचाइजरों को यह इजाजत होती है कि वे भारत में फ्रेंचाइज्ड ट्रेडमार्क का पंजीकरण कर सकें और किसी तरह की धोखाधड़ी से बच सकें। जहां उत्पादों और प्रक्रियाओं के लिए तकनीकी समझौतों की इजाजत होती है उन फ्रेंचाइजी समझौतों में टीआरआईपीएस कम्प्लायंट पेटेंट कानून के तहत अतिरिक्त सुरक्षा की व्यवस्था होती है।
फं्रेचाइजी समझौता इस वजह से काफी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज होता है क्योंकि इसमें सामान्य ऑब्लिगशंस चाहे वे वाणिज्यिक हों या कानूनी, उन पर अच्छी तरह से विचार विमर्श किया जाता है। प्रेस नोट 18 को खत्म किए जाने के बाद प्रेस नोट 1/2005 इंट्री के समय पॉलिसी पोजिशन पर निगरानी रखता है। जबकि अगर एक ही फील्ड में विदेशी फ्रेंचाइजर के पास फ्रेंचाइजी या ट्रेडमार्क समझौता हो तो एफआईपीबी की मंजूरी की जरूरत होती है। या फिर एसआईए को एक सरल सा डिक्लेरेशन देना होता है। अगर समझौते की अवधि में या फिर किसी दूसरे तरीके से समझौता का उल्लंघन किया जा रहा होता है तो उस पर निगरानी रखी जाती है। हालांकि जब समझौते को खारिज कर दिया जाता है तो लंबे समय से जिन करारों का उल्लंघन किया जाता रहा हो, उन्हें भारतीय अदालतों में आसानी से नहीं निपटाया जा सकता है। हालांकि अगर फे्रंचाइजर के प्रोप्रिएटरी सूचनाओं और कारोबारी गुप्त सूचनाओं की बात होती है तो बात अलग होती है। नॉन सॉलिसिटेशन क्लॉज भी कारगर साबित होता है जहां कई सब फं्रेचाइजियों के ऊपर एक मास्टर फ्रेंचाइजी को नियुक्त किया जाता है। जहां विदेशी फ्रेंचाइजियों की चाहत होती है कि उन्हें कंपनियां बड़े से बड़े क्षेत्रफल का भार सौंप दें, वहीं फ्रेंचाइजरों के लिए यह उपयुक्त नहीं होता कि वे अपने सारे तीर एक ही तरकश में डाल दें क्योंकि आज जो आपका फ्रेंचाइजी है वह कल आपका प्रतिद्वंद्वी भी बन सकता है। पर भौतिक और भौगोलिक टर्म के आधार पर एक फ्रेंचाइजी को बड़ा क्षेत्रफल सौंपना बहुत मुश्किल नहीं होता क्योंकि भारत एक बड़ा देश है। हालांकि एमआरटीपी ऐक्ट की धारा 33 के अनुसार एक्सक्लूसिविटी वर्जित है क्योंकि ऐसे समझौते सार्वजनिक हितों से संबंधित होते हैं और अधिक से अधिक कारोबारी प्रैक्टिसों की इजाजत नहीं देते। एशियाई देशों में फ्रेंचाइजरों को नियामकों के पास लिखित में सारी जानकारियां पेश करनी होती हैं, चाहे फ्रेंचाइजी इसकी मांग करता हो या नहीं। तो फिर मौजूदा ढांचा विकास को बढ़ावा क्यों नहीं देता? कंज्यूमर बाजार में खासतौर पर विदेशी फ्रेंचाइजरों के लिए एक नियामक नीति तैयार करना बहुत जरूरी है। जहां अधिकांश प्रावधानों को करार के बनते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है, आईपीआर के लिए कुछ सावधानियां तो बरती ही
जानी चाहिए।