सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) ने नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यभार संभालने के बाद 7 वर्षों में 8 लाख करोड़ रुपये की भारी भरकम राशि बट्टे खाते में डाली है। इस अवधि के दौरान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार द्वारा बैंकों में डाली गई पूंजी की तुलना में यह राशि दोगुने से ज्यादा है।
2014-15 और 2020-21 के दौरान सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 3.37 लाख करोड़ रुपये पूंजी डाली है। वित्त वर्ष 19 (2018-19) के दौरान सबसे ज्यादा 1.06 लाख करोड़ रुपये पूंजी डाली गई। वित्त वर्ष 21 में सरकार ने 4 पीएसबी में 14,500 करोड़ रुपये पूंजी डाली है।
वहीं 2014 से 2021 के बीच सरकारी बैंकों ने 8.07 लाख करोड़ रुपये कर्ज बट्टे खाते में डाला है। वित्त वर्ष 19 में सबसे ज्यादा 1.83 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाला गया, जबकि 2019-20 (वित्त वर्ष 20) में 1.75 लाख करोड़ रुपये बट्टा खाते में डाला गया है।
सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में भारतीय रिजर्व बैंक ने कहा कि कर्ज को बट्टे खाते में डाले जाने के कारण सरकारी बैंकों की गैर निष्पादित संपत्तियां (एनपीए) इन वर्षों के दौरान 1.32 लाख करोड़ रुपये हो गईं। कर्ज को बट्टे खाते में डाले जाने का मामला पिछले 4 साल में बढ़ा है और इन वर्षों में हर साल 1 लाख करोड़ रुपये से ऊपर बट्टे खाते में डाला गया। बैंकिंग क्षेत्र में खराब कर्ज 2011-12 से बढऩा शुरू हुआ और सरकारी बैंकों पर बोझ बढऩे लगा। बैंकिंग क्षेत्र में सकल एनपीए 2018 में बढ़कर सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया, जब बैंकों द्वारा कुल दिए गए कर्ज का 11.5 प्रतिशत एनपीए था। उसके बाद से इसमें गिरावट आनी शुरू हुई। खराब कर्ज में गिरावट की एक वजह पिछले कुछ साल में बड़ी मात्रा में कर्ज को बट्टे खाते में डाला जाना है। रिजर्व बैंक ने अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा है, ‘एनपीए में 2019-20 के दौरान कमी, मुख्य रूप से बट्टे खाते के कारण हुई।’
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘4 साल से ज्यादा पुराने एनपीए के 100 प्रतिशत प्रॉविजनिंग की जरूरत होती है और उसके बाद बैंक उन्हें बट्टे खाते में डालने को प्राथमिकता दे सकते हैं। इसके साथ ही बैंक की स्वैच्छिक रूप से एनपीए को बट्टे खाते में डालने की कार्रवाई भी चलती है, जिससे कि उनकी बैलेंस सीट दुरुस्त रहे, कर लाभ मिल सके और पूंजी का अधिकतम इस्तेमाल हो सके। वहीं बट्टे खाते में डाले गए ऋण के कर्जदार पुनर्भुगतान के लिए जिम्मेदार बने रहते हैं।’ बैंकों द्वारा कर्ज को बट्टे खाते में डालने के बाद भी उधारी लेने वाले की देनदारी बनी रहती है। आंकड़ों से पता चलता है कि वसूली के माध्यम से एनपीए में कमी और किसी खास साल में बट्टे खाते में डाली गई राशि से कम रही है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों से पता चलता है कि निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा बट्टे खाते में डाला गया कर्ज सरकारी बैंकों की तुलना में कम रहा है। उदाहरण के लिए निजी क्षेत्र के बैंकों ने वित्त वर्ष 20 मेें 54,000 करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाला, जो सरकारी बैंकों का एक तिहाई है। 2016-17 और वित्त वर्ष 20 के बीच के 4 साल मेें सरकारी बैंकों ने 5.7 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाला, जबकि निजी क्षेत्र के बैंकोंं ने 1.54 लाख करोड़ रुपये कर्ज को बट्टे खाते में डाला।
कुल कर्ज में सरकारी बैंकों की हिस्सेदारी करीब 60 प्रतिशत है, जबकि निजी क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी 36 प्रतिशत है।
बैंकों के बैलेंस शीट की सफाई 2015-16 में शुरू हुई, जब रिजर्व बैंक ने बैंकों के खातों की विशेष जांच शुरू की, जिसे संपत्ति गुणवत्ता समीक्षा के नाम से जाना जाता है। बैंङ्क्षकग नियामक ने पाया कि बैंक संपत्ति वर्गीकरण टालकर खराब कर्ज छिपा रहे हैं। खातों की समीक्षा की गई और कर्जदाताओं से कहा गया कि वे अपने 200 उधारी लेने वालों को सब स्टैंडर्ड के रूप में वर्गीकृत करें। इसके परिणामस्वरूप खराब कर्ज में बढ़ोतरी हुई और इससे बैंकों का मुनाफा प्रभावित हुआ। इसके बाद सरकार ने सार्वजनिक बैंकों में पूंजी डालनी शुरू की, खासकर इसका इस्तेमाल खराब कर्ज के प्रॉविजनिंग के लिए किया गया।