मेरे एक कॉलम के संदर्भ में एक जाने-माने एवं पेशेवर अकाउंटेंट, जो दशकों से ऑडिटिंग पेशे से सक्रियता से जुड़े रहे हैं।
अब एक स्वतंत्र निदेशक के तौर पर कई कंपनियों के बोर्ड में शिरकत करते हैं, ने मुझे लिखा, ‘ऑडिटर धोखाधड़ी का पता लगाने में कभी सफल नहीं रहते हैं, क्योंकि ऑडिट में यह पूरी तरह संभव नहीं है, लेकिन ऑडिट प्रक्रिया में किस तरह का बदलाव लाया जाना चाहिए ताकि खबरें पढ़ने वाले लोगों को आश्वासन मिल सके।
मेरा मानना है कि हमें विश्लेषणों आदि पर ही ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए बल्कि ‘मैन इन दि स्ट्रीट’ लोकोक्ति यानी आम लोगों की राय को भी ध्यान में रखना चाहिए।’ यह एक बेहद महत्त्वपूर्ण टिप्पणी है और हम में से प्रत्येक, जो कंपनी प्रशासन में दिलचस्पी रखता है, को इस पर विचार करने की जरूरत है।
ऑडिट का इतिहास काफी पुराना रहा है। 200 वर्षों से भी अधिक की अवधि के दौरान इसने ज्वाइंट स्टॉक कंपनीज की इकाइयों की सेवा की है। इसके बावजूद ऑडिट विफलता की घटनाएं सामने आती रही हैं। ऑडिट की अवधारणा जब से अस्तित्व में आई है, तभी से ऑडिटरों को इससे जोड़ कर देखा गया है जो अभी भी कायम है।
शुरू से यह माना जाता रहा है कि धोखाधड़ी का पता लगाना ऑडिट का उद्देश्य नहीं है। ऑडिटर का कार्य यह उचित आश्वासन मुहैया कराना है कि वित्तीय ब्योरों को सही और निष्पक्ष दृष्टिकोण प्रदान कराया जाए। वह साक्ष्य जुटाता है और ‘अविश्वास’ के साथ इन्हें सत्यापित करता है, लेकिन वह एक जासूस का दृष्टिकोण नहीं अपनाता है।
ऑडिट कोई जांच नहीं है। ऑडिटर को एक फोरेंसिक विशेषज्ञ नहीं समझना होगा। ऑडिट की तकनीकियां तीन दशक पहले इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकियों से काफी अलग हैं। ऑडिटर किफायती तकनीकियों का इस्तेमाल करते हैं जो वित्तीय ब्योरों को उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त हैं।
यदि हम ऑडिटर को धोखाधड़ी का पता लगाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी देंगे तो ऑडिट की लागत काफी बढ़ जाएगी। इस खर्च का भार सामान्य तौर पर समाज और खासकर शेयरधारकों पर पड़ेगा। आकलन करते वक्त हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऑडिट विफलताएं यदा-कदा ही होती हैं और सामान्य तौर पर पूरी दुनिया के नियामकों को इस पेशे में विश्वास होता है।
खर्च और लाभ का सावधानीपूर्वक आकलन किए बगैर ऑडिट में गड़बड़ी की गुंजाइश पैदा हो सकती है और ऑडिटर ऑडिट के लक्ष्य से भटक सकता है। ऑडिट प्रणाली के अलावा उन संस्थानों को मजबूत बनाए जाने की तुरंत आवश्यकता है जिन पर ऑडिटर अपने ऑडिट के लिए योजना बनाने और कार्यक्रम के लिए निर्भर रहते हैं।
ऑडिटरों की जांच के लिए इंस्टीटयूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (आईसीएआई) से अलग एक एजेंसी होनी चाहिए। सूचीबद्ध कंपनियों के ऑडिट की समीक्षा का भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) का फैसला ऑडिट प्रणाली में मौजूदा निष्क्रियता को दूर कर सकता है।
हालांकि सहकर्मी ऑडिटरों की समीक्षा तभी कारगर होगी जब समीक्षाकर्ता का चयन योग्यता के आधार पर किया जाए और सेबी दोषी ऑडिटरों और संबद्ध ऑडिट फर्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए अधिकृत हो। आईसीएआई में सहकर्मियों की समीक्षा की व्यवस्था पहले से ही मौजूद है। लेकिन हम नहीं जानते कि यह व्यवस्था लागू है या नहीं। आईसीएआई को ऐसी समीक्षा के परिणाम को सार्वजनिक करना चाहिए।
ऑडिट की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए ऑडिटरों का रोटेशन भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस क्षेत्र की कंपनियों का चयन बेहद सीमित है। उदाहरण के लिए, अगर कोई कंपनी अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाली फर्म को नियुक्त करना चाहती है तो उसकी पसंद बिग फोर और कुछ भारतीय फर्मों तक ही सीमित है।
यहां बिग फोर का मतलब चार सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय अकाउंटेंसी फर्मों से है। भारत में किसी कंपनी द्वारा किसी बड़ी अकाउंटेंसी फर्म की पसंद काफी सीमित है। ऑडिटर काफी हद तक इंटरनल ऑडिटर यानी आंतरिक लेखा परीक्षक के कार्य पर निर्भर करते हैं।
इसलिए, आंतरिक लेखा परीक्षक की स्वतंत्रता की रक्षा किया जाना और आंतरिक ऑडिट की गुणवत्ता में सुधार लाया जाना बेहद जरूरी है। मीडिया में इस तरह की खबरें आई हैं कि सेबी इंटरनल ऑडिटरों के कार्य की जांच के लिए बाहरी एजेंसियां बनाए जाने की योजना पर विचार कर रहा है।
मौजूदा समय में, 2003 के ‘कंपनीज ऑडिटर्स रिपोर्ट ऑर्डर’ (सीएआरओ) के तहत बाहरी ऑडिटर यह तय करता है कि क्या कंपनी की इंटरनल ऑडिट प्रणाली इसके कारोबार के आकार के अनुकूल है या नहीं।