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बाहरी सेवाओं से आमदनी भारत में कर दायरे में?

Last Updated- December 11, 2022 | 5:25 AM IST

यहां बहस का मुद्दा यह है कि क्या किसी प्रवासी द्वारा भारत से बाहर दी गई सेवाओं से प्राप्त आय भारत में कर के दायरे में आती है या नहीं।
इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘इशिकावा-जेआईएमए (288 आईटीआर 408)’ मामले में यह निर्धारित किया कि कर देयता के निर्धारण के उद्देश्य के लिए क्षेत्रीय संबंध अंतरराष्ट्रीय रूप से स्वीकृत सिद्धांत है।
अंतरराष्ट्रीय नियमों और संधियों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आय को भारत में कर के दायरे में लाए जाने के लिए सेवा के प्रतिपादन और भारत की जगह के बीच पर्याप्त क्षेत्रीय संबंध होना जरूरी है।
इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन के पुराने मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘यह संभव नहीं है कि भारत में उस संसद द्वारा कोई कानून बनाया जाना चाहिए जिसका भारत में किसी तरह का संबंध नहीं है।’
इशिकावा-जेआईएमए मामले में न्यायालय ने कहा था कि मुहैया कराई गई सेवाओं के लिए अनिवासी पर कर लगाए जाने के संबंध में कानून में स्थिति स्पष्ट है, ‘इसके लिए दो शर्तों को पूरा किए जाने की जरूरत होगी- सेवाएं, जो उस आय का स्रोत हैं जिस पर भारत में कर दिया जाना हो, भारत में कर के दायरे में होंगी।’
30 मार्च, 2009 को अथॉरिटी फॉर एडवांस रूलिंग द्वारा वर्ली परसंस मामले में सुनाए गए फैसले में उक्त मुद्दे पर गंभीरता से विचार किया गया था। इस मामले में आस्ट्रेलियाई कंपनी ने सेवाएं मुहैया कराने के लिए रिलायंस के साथ समझौता किया था। ये सेवाएं प्राथमिक तौर पर थीं और लगभग 80 फीसदी सेवाओं को आस्ट्रेलिया में अंजाम दिया गया था।
आस्ट्रेलियाई कंपनी ने तर्क पेश किया था कि उसके द्वारा प्राप्त की गई रकम को अगर रॉयल्टी के रूप में समझा जाता है तो यह भारत में कर के दायरे में नहीं आएगी, क्योंकि रॉयल्टी भारत से बाहर दी जाने वाली सेवाओं के भुगतान पर लागू है। इशिकावा-जेआईएमए मामले में निर्धारित किए गए सिद्धांत का पालन करते हुए ऐसी रॉयल्टी आय पर कोई कर नहीं लगेगा।
अगर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित किए गए अनुपात का वर्ली मामले में पालन किया गया था तो भारत से बाहर प्रतिपादित की गई सेवाओं को भारत में कर के दायरे में नहीं लाया जा सकेगा। हालांकि अथॉरिटी ने स्वयं यह कहा था, ‘हम सर्वोच्च न्यायालय के फैसले या राय को लेकर कानून का पालन करने के लिए बंधे हुए हैं।’
हालांकि अथॉरिटी ने आश्चर्यजनक रूप से स्पष्टता और सर्वोच्च न्यायालय के सामान्य आदेश को स्वीकार करने के बजाय अत्यंत नाजुक तकनीकी विशिष्टताओं का पता लगाने पर ध्यान केंद्रित किया। अगर अथॉरिटी के तर्क और औचित्य को स्वीकार कर लिया जाता है तो भी भारत में आरंभिक गतिविधियां सभी वैश्विक  गतिविधियों के क्षेत्रीय संबंध के दायरे में आएंगी।
यह मानना बेहद कठिन है कि जब कोई विदेशी कंपनी भारत में अनुबंध हासिल करती है तो वह भारत में गतिविधियां पूरी तरह से नहीं चलाएगी। अगर छोटी-मोटी या शुरुआती गतिविधि भी भारत में चलाई जाती है तो यह भारत के साथ क्षेत्रीय संबंध के दायरे में आएगी।
वर्ली मामले में लिए गए ऐसे फैसले भारत में विदेशी निवेशकों के प्रति खराब संदेश भेजने के लिए बाध्य हैं। अथॉरिटी की ओर से दी गई व्याख्या पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित रेशियो को समाप्त करने के लिए एक असाधारण प्रतिभाशाली तकनीक के प्रयोग के तौर पर विचार किया जा सकेगा, लेकिन इसमें कौन मदद करेगा?
जैसा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आजादी बचाओ के मामले (263 आईटीआर 706) में कहा था, पारस्परिक व्यापार और निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए द्विपक्षीय संधियों में कर रियायत की अनुमति दी गई है और कानून की परिभाषा करते वक्त इस पहलू की अनदेखी नहीं की जा सकती।
(लेखक एसएस कोठारी मेहता ऐंड कंपनी में पार्टनर हैं।)

First Published - May 4, 2009 | 2:01 PM IST

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