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खराब शासन के नाम रहा बीता साल

Last Updated- December 10, 2022 | 5:36 PM IST

वर्ष 2008 में सरकार के साथ साथ कारोबारी जगत ने भी कुछ गलत कदम उठाए। दिसंबर के आखिर में पूरे वर्ष का लेखा जोखा लिखना हर किसी को अच्छा लगता है।


पर मुझे इस आलेख को लिखते हुए उस तरह किसी हर्ष का एहसास नहीं होगा, जैसा कि आमतौर पर लोगों को होता है। इस बार तीन ऐसी घटनाएं हैं, जिन पर नजर रखनी जरूरी है और तीनों ही में आपस में कोई संबंध नहीं है।

पर इन तीनों ही घटनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आने वाला साल कैसा रहेगा। पर एक बात तो माननी होगी कि भारत में शासन प्रणाली कितनी कमजोर है।

चलिए पहले राजनीतिक मसले पर चर्चा करते हैं। समाचारपत्र ‘मिंट’ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नाम एक खुला पत्र प्रकाशित किया था जिसके लेखक की पहचान गुप्त रखी गई थी। काल्पनिक नाम से जिस लेखक ने यह पत्र लिखा था, उसने खुद को नौकरशाह बताया था। इस पत्र में किसी घोटाले का खुलासा नहीं किया गया था।

यह आलोचना भरा एक आम पत्र था, जिसमें यह कहा गया था कि भारत में शासन व्यवस्था कितनी लचर है। पूर्व स्तंभकार और मौजूदा गृहमंत्री पी चिदंबरम अगर सरकार में नहीं होते, तो उन्होंने भी ऐसा ही कोई मिलता जुलता लेख लिखा होता।

इस लेख को विपक्ष ने सदन के पटल पर रखा। होना तो यह चाहिए था कि गृहमंत्री संसदीय कूटनीति का इस्तेमाल कर विपक्ष द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब देते, पर उन्होंने इसके उलट इस लेखक पर ही सवाल दाग दिया कि क्या उसके पास इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि वह सामने आ सकता।

तकनीकी और कानूनी रूप से मंत्री भले ही सही नहीं रहे हों, पर उन्होंने शायद बड़ी चतुराई के साथ इन सवालों से पल्ला झाड़ लिया। वह चाहते भी तो इस आलोचना पत्र के हर बिंदु का जवाब नहीं दे सकते थे।

इस पत्र में उल्लेख किया गया था कि सरकार कई मौकों पर बहुत कमजोर नजर आई है। हां, यह भी सही है कि पिछली कई सरकारों के साथ भी ऐसा ही रहा है।

अब जरा कारोबारी जगत की चर्चा भी की जाए। सत्यम और मायटास मामले से यह साबित हो गया कि कॉरपोरेट इंडिया अब अपनी नैतिक जिम्मेदारियों के प्रति सजग नहीं रह गया है। एक सूचीबद्ध सॉफ्टवेयर कंपनी अपने प्रमोटरों के साथ मिलकर दो रियल एस्टेट कंपनी में हिस्सेदारी खरीदने को तैयार हो जाती है।

भारतीय कानून के तहत, इच्छुक पार्टियों को इस निर्णय में अपना मत रखने का अधिकार नहीं है और ऐसा लगता है मानो यह फैसला गैर-प्रमोटर निदेशकों ने अपनी मर्जी से ले लिया।

स्वतंत्र निदेशकों ने एक स्वर में इस करार को अपनी मंजूरी दे दी। अगर यह सौदा हो जाता तो भारत में यह अब तक का सबसे बड़ा सौदा (1.6 अरब डॉलर)होता , जिसमें दोनों पक्ष आपस में जुड़े हुए हों।

और इस सौदे के तहत एक सूचीबद्ध कंपनी (इस कंपनी में 90 फीसदी हिस्सेदारी शेयरधारकों की है) के हाथों से पैसा निकल कर कंपनी के प्रमोटरों के हाथ में चली जाती।

यानी कि रियल एस्टेट कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए सॉफ्टवेयर कंपनी को भुगतान करना पड़ता। सत्यम के 9 सदस्यीय निदेशक मंडल में 6 स्वतंत्र निदेशक हैं।

इसी निदेशक मंडल ने सत्यम को कारोबारी शासन में बेहतर भूमिका निभाने के लिए गोल्डन पीकॉक अवार्ड दिलाने में मदद की थी। बाजार ने इस सौदे को आड़े हाथों लिया। कुछ निवेशकों ने तो यहां तक कह दिया कि वे इस सौदे को रोकने के लिए किसी हद तक जाने को तैयार हैं।

कंपनी के शेयरों के भाव 50 फीसदी से अधिक लुढ़क गए। कंपनी के लिए काफी हास्यास्पद स्थिति पैदा हो गई थी और आखिरकार उसे रात भर में ही इस सौदे को वापस लेना पड़ा। इस सौदे के बाद भी कंपनी के लिए आलोचना के स्वर बंद नहीं हुए।

बोर्ड की बैठक में स्वतंत्र निदेशकों ने अचानक से कहा कि उन्होंने इस सौदे का विरोध किया था। खुद को निष्पक्ष साबित करने के लिए पूर्व कैबिनेट महासचिव टी आर प्रसाद ने मीडिया को बताया कि उन्होंने बोर्ड की बैठक में इस सौदे को लेकर आपत्ति जताई थी।

पर याद रहे कि अगर उन्होंने गंभीरता से अपनी आपत्तियां सामने रखीं होती तो शायद माजरा कुछ और होता क्योंकि आखिरकार बोर्ड ने एकस्वर में इस सौदे को अपनी मंजूरी दी थी।

जब इस सौदे से हाथ वापस खींच लिए गए तो जिस निदेशक मंडल ने एकस्वर में इसे मंजूरी दी थी उनमें से कोई भी स्वतंत्र निदेशक यह कहने के लिए सामने नहीं आया कि वे अपने फैसले पर कायम क्यों नहीं रह सके।

बोर्ड के इस फैसले की अध्यक्षता करने वाले इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के डीन एम राममोहन ने कहा कि इस सौदे को लेकर बोर्ड फिक्रमंद तो था पर वह जोखिम उठाने को तैयार था और यह देखना चाहता था कि बाजार इस फैसले पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।

सिर्फ एक स्वतंत्र निदेशक मंगलम श्रीनिवासन ने लिखकर यह जानकारी दी कि उन्होंने बैठक में इस सौदे को लेकर चिंता तो जताई थी, फिर भी उन्होंने इस सौदे के विरोध में मत नहीं दिया। उन्होंने इसे नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए इस्तीफा दे दिया।

जब निगरानी और नियंत्रण की बात की जा रही है तो यह भी याद रखना जरूरी है कि हाल ही में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने अपने निदेशक मंडल को नियंत्रण में रखने के लिए एक आचार संहिता की घोषणा की थी।

इस सिलसिले में न्यायिक प्रणाली के पास भी इठलाने के लिए शायद बहुत कुछ नहीं है। दो दशक पहले बंबई उच्च न्यायालय में जो याचिकाएं दायर की गई थीं उनकी सुनवाई आज तक जारी है।

हम इस साल के आखिरी पड़ाव की ओर कदम बढ़ा रहे हैं और ऐसे समय में अपने हरेक कदम पर शासन और निगरानी में कमी देख सकते हैं। चुनावी साल में कदम रखते हुए अब यह फैसला जनता का होगा कि वह किसे अगले पांच सालों के लिए शासन की जिम्मेदारी सौंपती है।

First Published - January 4, 2009 | 11:17 PM IST

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