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बुनियादी ढांचे के निजीकरण को धक्का

Last Updated- December 07, 2022 | 7:01 AM IST

बंबई उच्च न्यायालय के पिछले दिनों के एक फैसले का निजी क्षेत्र की उन कंपनियों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा, जो ऐसे कारोबार कर रहे हैं, जो किसी समय सरकार के हाथों में थे।


अदालत की एक खंडपीठ ने फैसला दिया कि मुंबई हवाई अड्डे के निजीकरण की परियोजना को अमली जामा पहना रही कंपनी ‘सरकार का अंग या मददगार’ हैं। इसका साफ मतलब हुआ कि इसी प्रकार की परियोजनाओं को हाथ में लेने वाली निजी क्षेत्र की भारतीय कंपनियों के तमाम कारोबारी निर्णय और कार्रवाई अब भारतीय उच्च न्यायालयों के रिट न्यायायिक अधिकार क्षेत्र में आ जाएंगे।

अदालत एक रिट याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें मुंबई हवाई अड्डे पर शुल्क मुक्त यानी डयूटी फ्री शॉपिंग आउटलेट चलाने का एक ठेका देने की मुंबई इंटरनेशनल एयरपोट्र्स प्राइवेट लिमिटेड की कार्रवाई को चुनौती दी गई थी। (सूचना : इस कार्यवाही में लेखक की कंपनी के ही एक साझेदार ने उस पक्ष की ओर से बहस की थी, जिसे यह ठेका दिया गया था।)

मुंबई हवाई अड्डे के निजी ऑपरेटर ने डयूटी फ्री शॉपिंग आउटलेट्स का प्रबंधन करने में दिलचस्पी दिखाने वाले एक पक्ष का नाम आखिरी सूची में नहीं चुना था। उस पक्ष ने रिट याचिका दायर कर दी और तर्क दिया कि निजी ऑपरेटर भी राज्य के साधन या मददगार हैं, इसलिए हवाई अड्डे पर डयूटी फ्री शॉपिंग क्षेत्र के प्रबंधन का लाइसेंस देने के लिए चुनाव करते समय वे भी कानून और प्रक्रिया से बंधे हुए हैं।

उसकी शिकायत यह भी थी कि निजी ऑपरेटर को नामों की छंटनी करने का तरीका नहीं अपनाना चाहिए, उसके बजाय उसे दिलचस्पी रखने वाले सभी पक्षों से निविदा आमंत्रित करनी चाहिए और समझौते में उसकी दिलचस्पी को अनदेखा करने के कारण लिखित रूप से देने चाहिए। अदालत ने इस ठेके को दी गई चुनौती को सही ठहराया और मामले पर विचार करने और फैसला देने के लिए अपने रिट न्यायिक अधिकार का इस्तेमाल किया।

अदालत ने निर्णय किया कि प्राइवेट लिमिटेड कंपनी वास्तव में निजी कंपनी नहीं है और ठेका देने के मामले में उसे उसी प्रकार की प्रक्रिया अपनानी होगी, जैसी सरकार अपनाती है। अदालत के इस दृष्टिकोण से ऐसी संभावनाओं के द्वार खुल गए हैं, जिनसे निजीकरण की प्रक्रिया और किसी समय सार्वजनिक क्षेत्र के दायरे में आने वाली परियोजनाओं का क्रियान्वयन निजी क्षेत्र द्वारा किए जाने की प्रक्रिया ठप हो सकती है। भारत में ऐसे कारोबारी उद्यम अब कम नहीं हैं।

ये लगभग सभी क्षेत्रों में हैं, मसलन बिजली, दूरसंचार, सड़क और बंदरगाह क्षेत्र। अपने रोजमर्रा के कामकाज को निपटाते समय, ये कंपनियां दर्जनों ठेके देती हैं, कई सेवा प्रदाताओं की नियुक्ति करती हैं और बड़ी तादाद में कर्मचारियों की भर्ती भी करती हैं। यदि उन्हें हरेक कामकाज को उसी मानक और नियमों के मुताबिक करना होगा, जिन्हें सरकार अपनाती थी, तो इन कामों का निजीकरण करने के पीछे मौजूद उद्देश्य ही पूरा नहीं होगा।

अदालत ने यह निर्णय इस आधार पर लिया कि सरकार का अब भी हवाई अड्डा ऑपरेटरों पर अच्छा खासा नियंत्रण है – हवाई अड्डा ऑपरेटर को इसका संचालन करने के लिए 30 साल की छूट मिली है, जिसे 30 साल की एक और अवधि तक बढ़ाया जा सकता है, लेकिन इसके बदले परियोजना के लिए बनाई गई कंपनी में सरकार की 26 फीसदी हिस्सेदारी होती है।

अदालत ने एक और खास बात पर ध्यान दिया, जिसके मुताबिक निजी ऑपरेटर को हवाई अड्डे की उस संपत्ति से अतिक्रमणकर्ताओं को बाहर करने का अधिकार दिया गया है, जिसे इससे संबंधित कानूनों में ‘सार्वजनिक परिसर या संपत्ति’ कहा गया है। इन तर्कों के आधार पर अब बुनियादी ढांचे से संबंधित सभी परियोजनाओं में निजी क्षेत्र की कंपनियों को सरकार की मददगार या उससे बंधी हुई माना जाएगा और इसके फलस्वरूप उनके खिलाफ अदालतों में रिट याचिका भी दायर कर दी जाएंगी।

कारोबार से जुड़े उनके सभी फैसले अब ‘कारोबारी फैसले’ नहीं रहेंगे बल्कि उन्हें ‘सरकारी फैसले’ कहा जाएगा और इस वजह से वे फैसले उन तमाम कानूनों के दायरे में आ जाएंगे, जो सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की कार्यप्रणाली तय करते हैं। दिलचस्प है कि यदि इसी तर्क को आगे बढ़ाया जाए, तो बेहद नियमित क्षेत्र या लाइसेंसशुदा उद्योगों से जुड़ी कंपनियों को भी सरकार का ही अंग माना जा सकता है।

किसी भी कारोबार को एक बार निजी ऑपरेटर के हाथों में सौंप देने के बाद यदि राज्य (न्यायपालिका भी जिसमें शामिल है) यह फैसला भी कर सकता है कि उस कारोबार को किस तरीके से चलाया जाना चाहिए, तो निजी हवाई अड्डा ऑपरेटर और मिसाल के तौर पर मुंबई महानगर पालिका के बीच कोई फर्क नहीं रह जाएगा। मिसाल के तौर पर प्रत्येक पद, जिसके लिए निजी कंपनी भर्ती का विज्ञापन दे सकती है, पर भर्ती अब उन नियमों के मुताबिक ही होगी, जिनका पालन सरकार करती है।

कोई भी उम्मीदवार अब रिट अदालत में पहुंच सकता है और कंपनी को अपने महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्त किस तरह करनी चाहिए, इस पर अदालती हस्तक्षेप की मांग कर सकता है। साफ सफाई के ठेके, कर्मचारियों की कैंटीन के ठेके, लिफ्ट और एलीवेटर्स चलाने के लिए ठेके, मरम्मत का सामान, कल पुर्जे या किसी भी प्रकार का यंत्र और मशीनरी खरीदने के ठेके, यहां तक कि कबाड़ बेचने के ठेके देते समय भी सार्वजनिक निविदा आमंत्रित करने की प्रक्रिया का अनुकरण करना पड़ेगा।

कम शब्दों में कहा जाए, तो ऐसी परियोजना के लिए बनाई गई कंपनियों को अब उसी तरीके से चलाना होगा, जैसे सरकार उन्हें चलाती, हर चीज को नौकरशाही के चंगुल में बांध देना होगा और अंत में समूची व्यवस्था उसी जगह पहुंच जाएगी, जहां वह निजीकरण से पहले थी।

First Published - June 23, 2008 | 1:46 AM IST

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