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पहली छमाही खराब, दूसरी से है थोड़ी-बहुत आस

Last Updated- December 09, 2022 | 4:10 PM IST

वर्ष 2008 में मंदी की मार झेल चुकी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए नए साल में भी संकेत बेहतर नहीं लग रहे हैं। खास तौर पर नए साल की पहली छमाही तक तो हालात सुधरने की गुंजाइश नजर नहीं आ रही है।


वैश्विक मंदी के बाद भारतीय शेयर बाजार का जो हाल रहा, उसके नए साल में भी सुधरने के कम ही आसार हैं। मंदी की आंधी से एशियाई बाजार भी सुरक्षित नहीं रहे और भारतीय शेयर बाजार भी एशिया के चौथे सबसे बुरे प्रदर्शन करनेवाले शेयर बाजारों की सूची में शामिल हो गया।

साल 2008 में जनवरी में सेंसेक्स के अपने रिकार्ड स्तर पर पहुंचने के बाद इसी साल भयंकर मंदी के कारण बंबई शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक में 54 फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई।जाहिर सी बात है कि शेयर बाजर में इस जबरदस्त गिरावट के बाद सबकी निगाहें नए साल पर टिकी हैं।

लेकिन शायद इस साल भी कम से कम पहले छह महीने में तो बाजार से कुछ खास उम्मीदें नहीं की जा सकती हैं और ज्यादातर विश्लेषक इसी तरह के हालात बने रहने की  उम्मीद कर रहे हैं।

बाजार में सरकार द्वारा जान फूंकने की कोशिश के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर कमजोर ही रहने की आशंका जताई जा रही है।

सिटीग्रुप की अभी सबसे ताजा जारी रिपोर्ट के अनुसार जीडीपी के 7.5 या इससे थोड़ा ऊपर रहने की संभावना है। इसके अलावा विकास में क मी आने की बात तो की ही जा रही है और लगता है कि यह चक्र शुरू हो चुका है।

भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर के बारे में ज्यादातर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह  वर्ष 2009-10 में 6 से 6.5 फीसदी के बीच रह सकती है जबकि कुछ लोग इस दर के 6 फीसदी से भी नीचे रहने की आशंका जता रहे हैं।

अर्थव्यवस्था की विकास रफ्तार कम होने से निश्चित तौर पर रोजगार, लोगों की खर्च करने की क्षमता और उनके विश्वास में भी कमी आएगी।

शेयर बाजार में आई जबरदस्त गिरावट से यह बात पहले भी साबित हो चुकी है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो उपभोक्ताओं में खर्च करने की प्रवृत्ति में कमी आएगी जिसका असर सीधे तौर पर विनिर्माण और सेवा क्षेत्र पर पड़ेगा।

इसके पीछे एक वजह है ब्याज दर जिसमें कटौती तो की जा रही है, लेकिन इसके बावजूद ब्याज दरों के उस स्तर पर पहुंचने की उम्मीद नहीं है जहां से उपभोक्ताओं या निवेशककों को कर्ज लेने के लिए प्रेरित किया जा सके।

लोग उधार लेने की बजाय बैंकों में बचत करने को ज्यादा तवज्जो देंगे क्योंकि बैंक जमाओं पर अभी बहुत बेहतर ब्याज मिल रहा है। अगर कंपनियों की बात करें तो मंदी की शिकार कंपनियां इस साल अपनी विस्तार योजनाएं शुरू करने से परहेज ही करेंगी क्योंकि घरेलू और विदेशी दोनों बाजारों में मांग की स्थिति काफी खराब बताई जा रही है।

इस हालत में कंपनियां अपने कारोबार में किसी भी तरह केविस्तार की बजाय अपने मौजूदा कारोबार को ही और ज्यादा मजबूत करने की कोशिश करेंगी। भारतीय अर्थव्यवस्था के जबरदस्त विकास की कहानी लिखने में विदेशी मुद्राओं का एक अहम योगदान रहा है।

पिछले चार-पांच साल में विदेशी मुद्राओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नई गति प्रदान की है लेकिन इस साल लगता है कि वे दूर ही रहेंगी।

वर्ष 2007-08 में भारत में करीब 108 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा आई जबकि पिछले पांच सालों में भारत में विदेशी मुद्रा का कुल प्रवाह 224 अरब डॉलर रहा।

निजी क्षेत्र के लिए सस्ती दर पर पूंजी जुटाए बिना कारोबार करना काफी कठिनाई भरा होगा और उसकेलिए अपनी नई या मौजूदा परियोजनाओं को पूंजी मुहैया करा पाना काफी मुश्किल होगा।

अगर सीएलएसए के उनमानों पर नजर दौड़ाएं तो वर्ष 2008 में सेंसेक्स में भारी गिरावट के कारण इसके अगले वर्ष यानी 2008-09 में पिछले वर्ष की तुलना में 3.6 फीसदी की ही तेजी आएगी।

यहां तक कि  विश्लेषकों के अनुसार 140-150 कंपनियों के मुनाफे में भी इस साल मात्र 10 फीसदी की ही बढ़ोतरी होने की संभावना जताई जा रही है।

विश्लेषकों का अनुमान है कि साल की पहली छमाही में अपेक्षाकृत विकास की रफ्तार पर ज्यादा असर पड़ेगा और कंपनियों के राजस्व पर ज्यादा असर दिखाई देगा। 

एक बात तो खास तौर पर कही जा सकती है कि कम से कम नए साल की पहली छमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास की कहानी थमी ही रहेगी।

हालांकि साल की दूसरी तिमाही से काफी उम्मीदें की जा रही है क्योंकि तब तक कम आधार प्रभाव और ब्याज दरों के अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थिर हो जाने से प्रगति का मार्ग एक बार फिर प्रशस्त हो सकता है।

इस बात की भी संभावना है कि  दूसरी छमाही आने के पहले आम चुनाव भी पूरे हो जाएंगे और तब तक एक नई सरकार केंद्र में सत्तासीन हो जाएगी।

First Published - December 31, 2008 | 9:12 PM IST

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