स्टार्टअप हमारी नजर में तब आती हैं जब उनके बढ़ते मूल्यांकन के आधार पर जश्न मनाया जाता है या जब उनके मूल्यांकन में कमी आती है। तीन साल पहले इस तरह का जश्न थमने का नाम नहीं ले रहा था और इनके मूल्यांकन में लगातार बढ़ोतरी दिख रही थी। हर दूसरे दिन एक नया सूनीकॉर्न (50 करोड़ डॉलर से 1 अरब डॉलर के बीच मूल्यांकन या 4,000 करोड़ से 8,000 करोड़ रुपये के बीच के मूल्यांकन वाली स्टार्टअप) या एक यूनिकॉर्न (1 अरब डॉलर या 8,000 करोड़ रुपये से अधिक की मूल्यांकन वाली स्टार्टअप) बन रही थी। अब अचानक ऐसा लगता है कि इसके रुझान गायब से हो गए हैं।
आखिर अचानक हताशा जैसी स्थिति क्यों बन गई? इसकी सरल व्याख्या इस तरह की जा सकती है कि पूंजी के प्रवाह के साथ मूल्यांकन भी प्रभावित हुआ। जैसे ही सरकारी खजाना खुला, पूंजी प्रवाह बढ़ा और संपत्तियों की कीमतें तेजी से बढ़ीं और स्टार्टअप भी इससे अछूती नहीं रहीं। एक बार जब रुझान बदला तब पूंजी महंगी साबित होने लगी और मूल्यांकन में कमी आई। यह एक तरह से आंशिक स्पष्टीकरण है क्योंकि इससे अंदाजा मिलता है कि स्टार्टअप की तकदीर खुद स्टार्टअप नहीं बल्कि वृहद आर्थिक परिस्थितियों के हिसाब से तय होती है।
स्टार्टअप की सफलता और विफलता कई कारकों पर निर्भर होती है जिनमें से कुछ उनके नियंत्रण में जबकि कुछ उनके प्रभाव से बाहर हैं। लेकिन एक परिसंपत्ति वर्ग के रूप में स्टार्टअप शासन पर ध्यान दे सकती हैं जिसमें कंपनी के भीतर निर्णय लेने की प्रक्रिया, पारदर्शिता, जवाबदेही जैसे पहलू शामिल हैं क्योंकि बेहतर प्रशासन के अभाव में भी कारोबार के टूटने जैसी स्थिति बनती है जिनके उदाहरण के तौर पर सिपली, भारतपे, ट्रेल, गोमैकेनिक, बैजूस, मोजोकेयर, जिलिंगो, जेस्टमनी जैसे नाम लिए जा सकते हैं।
स्टार्टअप शासन प्रणाली में बहुत सारी कमियां हैं लेकिन सूचीबद्ध कंपनियों में शासन कुछ बेहतर है। यह कॉरपोरेट प्रशासन के जी20/ओईसीडी सिद्धांतों के माध्यम से मान्य होता है और संस्थागत निवेशक सलाहकार सेवा (आईआईएएस, जहां मैं काम करता हूं) द्वारा अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम और बीएसई लिमिटेड के साथ संयुक्त रूप से तैयार किया गया स्कोरकार्ड भी इसकी पुष्टि करता है। आईआईएएस का हर साल बाजार पूंजीकरण की 70 फीसदी से ज्यादा हिस्सा रखने वाले बीएसई 100 सूचकांक पर आधारित मूल्यांकन भारत के कॉरपोरेट जगत के शासन को प्रतिबिंबित करता है। यह मूल्यांकन पिछले छह वर्षों से लगातार सुधार दिखा रहा है।
एक लॉ फर्म सिरिल अमरचंद श्रॉफ के प्रबंधन अधिकारी सिरिल श्रॉफ के मुताबिक जो स्टार्टअप सूचीबद्ध होने पर नियामकीय दुनिया से रूबरू होते हैं उनके लिए यह बिल्कुल नया और विपरीत माहौल होता है। उनका कहना है, ‘एक स्टार्टअप बाजार में जब सूचीबद्ध होता है तब उनके सामने कई नियमों का पालन करने जैसी चुनौतियां सामने आ खड़ी होती हैं और उनके सामने संबंधित पक्ष के लेन-देन, आधी जांच, प्रतिनिधि सलाहकारों के साथ-साथ पर कुछ ऐसी चीजें सामने आती हैं जिनके बारे में उन्होंने पहले नहीं सोचा होता है। सूचीबद्धता के पहले छह महीने में जब तस्वीर साफ होती है तब उन्हें उससे काफी झटका लगता है। इन स्टार्टअप को लगता है कि यह केवल बाजार पूंजीकरण हासिल करने से जुड़ा मामला है लेकिन फिर उन्हें यह अहसास होता है कि यह भी कई शर्तों के साथ आता है। यह सब कुछ ऐसा है जिसका उन्हें अहसास नहीं होता है।’
अमांसा कैपिटल के फंड प्रबंधक आकाश प्रकाश भी इसी तरह के विचार जाहिर करते हैं और अपने निवेशकों को समान रूप से जिम्मेदार ठहराते हैं। वह कहते हैं, ‘मुझे हैरानी होती है कि निजी कंपनियों में जो चीजें बेहद महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं वे बाजार की कसौटी पर कभी नहीं टिकेंगी।’
इससे यह बात मजबूती के साथ स्थापित होती है कि स्टार्टअप और उनके निवेशकों द्वारा बाजार की पहचान करना, एक उत्पाद को तैयार करना और बाजार हिस्सेदारी पर कब्जा करने को ही सबकुछ माना जाता है और इस बीच कॉरपोरेट प्रशासन पर पर्याप्त तरीके से ध्यान नहीं दिया जाता है। इन स्टार्टअप को लगता है कि कारोबार के साथ ही शासन प्रणाली की चीजें स्वतः होने लगती हैं। इन स्टार्टअप को लगता है कि आईपीओ की पेशकश के दौरान वे प्रशासनिक पहलुओं पर ध्यान देंगे या फिर कंपनी जब एक निश्चित आकार के स्तर पर पहुंचेगी तब इस पहलू पर ध्यान दिया जाएगा।
ऐसा करने के दौरान ये स्टार्टअप भूल जाती हैं कि शासन ही बुनियाद है जिससे निवेशकों में निवेश के लिए भरोसा बनता है और आपूर्तिकर्ताओं को कारोबार में सहूलियत होती है और इसके साथ ही प्रतिभाशाली लोगों को कंपनी से जुड़ने और इसमें टिके रहने का प्रोत्साहन मिलेगा।
भविष्य का तरीका यही है कि कारोबार के साथ-साथ इससे जुड़े शासन तंत्र को भी समानांतर तरीके से तैयार किया जाए। इसका अर्थ यह है कि पूरी तरह से काम करने वाले सक्रिय निदेशक मंडल के बोर्ड, एक अनुपालन टीम और एक वित्तीय रिपोर्टिंग टीम नियुक्त की जाए। इन सभी टीमों में से सभी की भूमिका और जिम्मेदारियां स्टार्टअप के उद्देश्य के अनुरूप होनी चाहिए और कंपनी के सूचीबद्ध होने से पहले ही सार्वजनिक बाजार मानकों के अनुरूप कारोबार का लगातार विस्तार करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर कंपनी के बोर्ड में ऐसे सदस्य होने चाहिए जो कंपनी के प्रबंधन से स्वतंत्र हों। कंपनी के निदेशक मंडल में विभिन्न समितियां होनी चाहिए, जिनके पास कंपनी के लिए महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों, जैसे जोखिम प्रबंधन, सामाजिक जिम्मेदारी और हितधारकों के प्रबंधन पर फैसले लेने का अधिकार हो। कंपनी के निदेशक मंडल और समितियों की कार्यप्रणाली (एजेंडा, काम करने का तरीका) का मूल्यांकन इस उद्योग की अन्य सूचीबद्ध कंपनियों के अनुरूप होना चाहिए।
इसी तरह, अनुपालन और वित्त विभाग उन नियमों को शामिल करना शुरू कर सकते हैं जिनका पालन बड़ी सूचीबद्ध कंपनियां करती हैं और इसके साथ ही वे खुलासे के तरीकों को भी अपना सकती हैं। इनमें संबंधित पक्षों के साथ लेन-देन, हितों का टकराव और अन्य आचार संहिता के साथ ही जोखिम भरे काम भी हैं जिनमें जानकारी की असमान साझेदारी पर ध्यान दिया जाता है।
आईपीओ से ठीक पहले तक शासन तंत्र की व्यवस्था का इंतजार करने का मतलब है कि न तो कंपनी के पास इससे जुड़ी प्रक्रिया तैयार है और न ही इन्हें आंतरिक रूप दिया गया है जिसकी वजह से समय बरबाद होता है। जब मैं आईपीओ के बारे में बात करना शुरू कर रहा हूं तब यह दृष्टिकोण समान रूप से सहायक साबित होता क्योंकि स्टार्टअप सीरीज बी से सीरीज सी और आगे की फंडिंग वाले चरण में जाते हैं।
यदि हम स्टार्टअप के क्षेत्र में अपनी अव्वल दर्जे वाली स्थिति को बनाए रखना चाहते हैं तब बेहतरीन शासन व्यवस्था को अपनाना और निवेशकों तथा हितधारकों का भरोसा जीतना आवश्यक हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह कारोबार की वाणिज्यिक सफलता जितना ही कठिन है, लेकिन दीर्घकालिक मूल्यों के लिहाज से इससे बेहतर कोई रास्ता नहीं है।
आज, भारत में दुनिया के सबसे बड़े और सबसे बेहतर स्टार्टअप तंत्र है और यह वास्तव में देश की उद्यमशीलता की भावना और नवाचार तथा विकास को बढ़ावा देने की इसकी क्षमता का ही एक प्रमाण है। स्टार्टअप के क्षेत्र में अग्रणी स्थिति को बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि बेहतर शासन तंत्र को अपनाया जाए और निवेशकों तथा हितधारकों के भरोसे को बरकरार रखने की कोशिश की जाए। यह कारोबार के वाणिज्यिक पहलू को अच्छी तरह स्थापित करने की तरह ही कठिन है लेकिन दीर्घकालिक मूल्य बनाने का कोई बेहतर तरीका नहीं है।
(लेखक इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर एडवाइजरी सर्विसेज ऑफ इंडिया लिमिटेड से जुड़े हैं। ये उनके निजी विचार हैं)