फिलहाल हम खाद्य पदार्थों की कमी और उनकी ऊंची कीमतों से जूझ रहे हैं।
हालांकि, बहस इस बात पर हो रही है कि महंगाई की दर को नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक नीति को और सख्त बनाया जाना चाहिए या नहीं? बेशक यह मुद्दा भी काफी अहम है, लेकिन इससे भी ज्यादा अहम आगामी खरीफ फसल का बेहतर उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना है।
कमोडिटी की कीमतों में वैश्विक स्तर पर हो रही बढ़ोतरी की वजह से दुनिया के विभिन्न देशों में महंगाई की दर आसमान छू रही है। अगर इंदिरा गांधी इस वक्त जिंदा होतीं, तो उन्हें लगता महंगाई संबंधी आकलन में वह बिल्कुल सही हैं। दरअसल, वह महंगाई को वैश्विक परिघटना मानती थीं। भारत में महंगाई 40 महीनों के शीर्ष पर है और विकास दर में गिरावट का आलम है। खाद्य पदार्थों की कीमतें उछलने के कारण महंगाई की दर में हुई बढ़ोतरी से गरीबी से लड़ने की कोशिशों को भारी झटका लगा है।
ऐसे में भारत के नीति निर्माताओं के लिए काफी दुविधापूर्ण स्थिति पैदा हो गई है। महंगाई से किसी का भी भला नहीं होता, कम से कम गरीबों को तो बिल्कुल नहीं। साथ ही विकास दर जितनी कम होगी, गरीबी से लड़ना उतना मुश्किल होगा। मौद्रिक नीति को और सख्त बनाने का तर्क दो वजहों से कमजोर पड़ जाता है। पहला यह कि वित्त वर्ष 2007-08 में मुद्रा आपूर्ति की विकास दर गिरकर पहले ही 20 फीसदी के आसपास पहुंच गई है। इसके अलावा रीयल एस्टेट और इक्विटी बाजार में सुस्ती जैसी स्थिति है।
जनवरी में टॉप पर पहुंचने के बाद शेयरों की कीमतों में 30 फीसदी की कमी दर्ज की गई है और जहां तक रीयल एस्टेट की बात है, कीमतें या तो स्थिर हैं या कई जगहों पर कीमतों में हल्की गिरावट देखने को मिली है। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? तात्कालिक रूप से हम जो कर सकते थे, वह पहले ही किया जा चुका है। इसके तहत निर्यात को प्रोत्साहित करने वाले कदमों पर रोक लगाई गई है, आयात शुल्क में कटौती की गई है और स्टील जैसे प्रमुख उद्योगों को कीमतें नहीं बढ़ाने को कहा जा चुका है। आर्थिक विकास दर में गिरावट से कम से कम रोजगार के अवसरों का कम होना तय है।
नतीजतन खाद्य पदार्थों की मांग कम होगी और इससे इन चीजों की कीमतें भी कम होंगी, लेकिन इससे एक और समस्या पैदा हो जाएगी। हालांकि वैश्विक स्तर पर खाद्य पदार्थों और कच्चे माल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी से चढ़ी महंगाई को सरकार या कोई भी शख्स इस तरीके से काबू करने की वकालत नहीं करेगा। दरअसल, खाद्य पदार्थों की कीमतों में हो रही बढ़ोतरी और पूरी दुनिया में इसकी कमी से इकोनॉमिक इमरजेंसी जैसे हालात पैदा हो रहे हैं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या वैश्विक फूड राशन प्रणाली के लिए हमें आपात योजना बनाने की जरूरत है? फिलहाल हमारे पास ऐसी स्थिति नहीं आने की उम्मीद करने और अच्छे मॉनसून के लिए आकाश की ओर निहारने और इसके मद्देजनर ज्योतिष से मशवरा करने के अलावा कोई चारा नहीं है। अच्छे नतीजों की उम्मीद करते हुए सरकार को ऐसी नीति बनाने की जरूरत है, जिसके जरिये किसानों को ज्यादा से ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने के लिए प्रेरित किया जा सके।
इसके तहत गेहूं और चावल के अलावा अन्य अनाजों (तिलहन समेत) का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया जाना चाहिए। साथ ही राज्य सरकारों के साथ मिलकर खाद्यान्नों की सरकारी खरीद को और बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है। इसी तरह राज्य सरकारों के साथ मिलकर किसानों के लिए वॉटर हार्वेस्टिंग (हालांकि इस सीजन के लिए काफी देर हो चुकी है) और उर्वरकों की उपलब्धता जैसे कार्यक्रम को तुरंत तेज करना चाहिए। अगर पानी और उर्वरकों के मामले में किसानों को बेहतर सुविधा मिलती है, तो अगली खरीफ फसल पर इसका सकारात्मक असर देखने को मिलेगा।
इन उपायों को हम रबी फसल के लिए दोहरा सकते हैं, जिससे कृषि उत्पादन को और बढ़ावा मिल सकेगा। इस बात पर सभी लोग सहमत हैं कि किसानों को उम्दा क्वॉलिटी के बीज और खाद की सख्त जरूरत है। साथ ही उन्हें यह भी बताने की जरूरत है कि खेतों में किस तरह संतुलित तरीके से खाद का छिड़काव किया जाए। हर 10 में से 9 शख्य को इस तरह की सेवाओं की जरूरत के बारे में मालूम है, लेकिन इसे प्रभावकारी तरीके से कैसे लागू किया जाए, अब तक यह पहेली है।
इसके लिए शायद राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात कर इस संबंध में कारगर अजेेंडा तैयार करने की जरूरत है। यह तभी मुमकिन हो सकता है, जब यह भावना पैदा हो जाए कि खाद्यान्नों के मामले में राष्ट्रीय इमरजेंसी जैसी स्थिति है। फसलों की कटाई के बाद अगला सवाल इसकी कीमतों और वितरण से जुड़ा हुआ है। खाद्य पदार्थों के निर्गम मूल्य पर नियंत्रण रखने के लिए फूड सब्सिडी में बढ़ोतरी (खासकर गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे लोगों के लिए) की दलील दी जा रही है।
निर्गम मूल्यों को नहीं बढ़ाए जाने से खुले बाजार में खाद्यान्नों की कीमतें सुस्त हो जाएंगी, जिससे कई और समस्याएं उत्पन्न हो जाएंगी। ऊपर बताई गई प्रशासनिक पहलों के अलावा बीपीएल राशन कार्डों को जारी करने में भी काफी सावधानी बरतने की जरूरत है। बीपीएल राशन कार्ड को मुहैया कराते वक्त इस बात को ख्याल रखना बेहद अनिवार्य है कि जो इस दायरे में नहीं आते हैं, उन्हें यह कार्ड नहीं मिले। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि राशन दुकानों में पर्याप्त स्टॉक हो।
चूंकि इन उपायों से बजट घाटे में बढ़ोतरी तय है, इसलिए इस बाबत अनुमानों का फिर से आकलन कर इसे जारी किया जाना चाहिए, ताकि विश्लेषकों और अर्थशास्त्रियों को यह पता चल सके कि इसके क्या नतीजे निकलेंगे और इसमें और क्या करने की जरूरत है। हालांकि इन उपायों से ऊर्जा और खनिज की बढ़ती कीमतों की समस्या हल नहीं होगी। इसके लिए इस वैश्विक दुनिया में अर्थशास्त्र के पारंपरिक सिध्दांतों को ताक पर रखना होगा। चीजों का बेहतर बनाने का सरकार और लोगों का अजेंडा ही इसका समाधान है – ऊर्जा की बचत। सवाल यह है कि क्या सेल स्टील के उत्पादन में ऊर्जा की बचत वाले उपायों को तवाो दे रही है।
क्या टाटा स्टील ने अपने प्लांट में इतना निवेश किया है, जिसके माध्यम से उत्पादन प्रक्रिया में ऊर्जा की बचत हो सकती है? क्या हम ऑफिस के लिए कार की जगह बस लेना पसंद करते हैं?