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विश्वास और विश्वसनीयता का संकट कैसे हो दूर?

Last Updated- December 15, 2022 | 7:49 AM IST

रूस का एक सूत्र वाक्य है कि यकीन करो लेकिन पुष्टि भी करो। मिखाइल गोर्बाचेफ को चिढ़ाने के लिए रोनाल्ड रीगन प्राय: दोनों देशों की बैठकों में इसे दोहराते रहते थे। विश्वास करना और पुष्टि करना निस्संदेह नागरिकों और सरकार के बीच सफल रिश्ते के बुनियादी तत्त्व हैं। इसी तरह भारत को अपनी सीमाओं की रक्षा करनी होती है और अपने आर्थिक साझेदारों को देश की सुरक्षा में साझेदार बनाना होता है। इसके लिए वह व्यापार और निवेश संबंध कायम करता है।
मीडिया में आई रिपोर्ट के अनुसार चीन की सेना गलवान घाटी में पैंगोग झील के उत्तरी किनारे पर फिंगर 4 और फिंगर 8 के बीच के इलाके तथा उससे लगी पहाडिय़ों पर काबिज है। अब तक यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि गत 22 जून को दोनों देशों के बीच सैन्य स्तर पर हुई वार्ता के बाद क्या चीन के सैनिक पिछले वर्ष की स्थिति में लौटेंगे या नहीं। भारत और चीन के बीच सीमा पर कोई औपचारिक सहमति नहीं है। इसके बजाय करीब 3,460 किलोमीटर लंबी तथाकथित वास्तविक नियंत्रण रेखा है जो दोनों देशों को अलग करती है। भारत सरकार के सेवानिवृत्त अधिकारियों का कहना है कि दोनोंं देशों की सेनाएं एलएलसी के आसपास गश्त करती हैं लेकिन उन्हें स्थायी ढांचा खड़ा करने की अनुमति नहीं है। चीन सीमांकन को लेकर ढिलाई बरतता रहा है और एलएसी के आसपास कोई स्थायी ढांचा न विकसित करने को लेकर भारत के साथ कोई स्पष्टता नहीं है। एक के बाद एक भारतीय सरकारों ने चीन की इस हरकत के बावजूद ऐसे मानचित्र जारी नहीं किए जो एलएसी को लेकर भारत की समझ को एकदम स्पष्ट करते हों। क्या भारतीयों को हमेशा एलएसी पर भारत की स्थिति को लेकर अंधेरे में रखा जाएगा?
सन 1993 में चीन का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी)1.7 लाख करोड़ डॉलर था जो भारत के 1.2 लाख करोड़ डॉलर के जीडीपी से 1.4  गुना था। सन 2019 में यह अंतर बहुत बढ़ गया है और चीन के 27.3 लाख करोड़ डॉलर के जीडीपी के बजाय भारत का जीडीपी 11 लाख करोड़ डॉलर रह गया है। यानी चीन की अर्थव्यवस्था भारत से ढाई गुना बड़ी हो चुकी है (स्रोत: आईएमएफ)। चीन की बढ़ती आर्थिक और सैन्य शक्ति को देखते हुए लगता है चीन ने भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते और सन 2008 में वित्तीय संकट के बाद भारतीय जमीन हथियाने का मन बना लिया था।
अप्रैल 2017 में जब दलाई लामा तवांग की यात्रा पर गए थे तब चीन ने कड़ा विरोध किया था। उसने दावा किया था कि अरुणाचल प्रदेश दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा है। भारत सरकार चीन के ऐसे प्रतिरोध को नकारती रही है। शायद चीन धीरे-धीरे भारत के उत्तर में उन इलाकों को हथियाना चाहता है जहां बौद्ध आबादी अधिक है। वह इस हिस्से को तिब्बत मेंं मिलाना चाहता है। भारत को दवाओं, वाहन, मोबाइल फोन और बिजली के उपकरणों के मामले मेंं चीन के आयात पर अत्यधिक निर्भरता कम करनी होगी। इसके साथ ही भारत के आधिकारिक वक्तव्यों में इन बातों का उल्लेख होना चाहिए कि कैसे तिब्बत के प्रवासी अपने घर से अलग-थलग हैं। उसे ताइवान तक पहुंच बनानी चाहिए। भारत की यह आशंका हो सकती है कि चीन कश्मीर में और पूर्वोत्तर के राज्यों में जवाबी कार्रवाई करेगा।
बीते पांच वर्ष में भारत का रक्षा व्यय जीडीपी के करीब 2.5 फीसदी रहा और इसका 53 फीसदी हिस्सा वेतन और पेंशन में गया। देश की रक्षा तैयारी कम लागत में नहीं हो सकती है और इस व्यय को बढ़ाकर जीडीपी के 4 फीसदी तक पहुंचाना होगा। यदि स्वरोजगार वाले लोग अपनी सही आय घोषित करे तो सरकार इसके लिए जरूरी वित्तीय संसाधन जुटा सकती है। वर्ष 2019 में 25 लाख लोगों ने आय कर में यह जानकारी दी
थी कि उनकी आय प्रति माह 83,000 से अधिक है।
मौजूदा कोविड-19 महामारी की बात करें तो अगर केंद्र और राज्य सरकारोंं के बीच आपसी विश्वास मौजूद हो तो परिणाम कहीं अधिक बेहतर हो सकते हैं। उदाहरण के लिए करीब एक पखवाड़ा पहले देश के टेलीविजन में दिल्ली के गंगा राम अस्पताल में एक चिकित्सक को आम आदमी पार्टी के विधायक से विवाद करते हुए दिखाया गया। चिकित्सक का कहना था कि मौजूदा तनावपूर्ण समय में अगर दिल्ली सरकार निजी अस्पतालों के चिकित्सकों पर यकीन नहीं करती तो कोई सार्थक चर्चा नहीं हो सकती।
आखिरकार नर्स और चिकित्सक ही अपनी जान जोखिम में डालकर कोविड तथा अन्य मरीजों का इलाज कर रहे हैं। किसका इलाज किया जाए, कोविड जांच की कीमत क्या रखी जाए और अस्पतालों में कमरों की कीमत क्या रखी जाए यह सब केंद्र और राज्य सरकारों तथा निजी चिकित्सकों को पहले लॉकडाउन की घोषणा के एक सप्ताह के भीतर तय
कर लेना था यानी यह काम मार्च 2020 तक हो जाना चाहिए था। यह आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि निजी अस्पतालों में इसकी दरों का कोई मानकीकरण नहीं है जबकि अस्पतालोंं के लिए जमीन का आवंटन रियायती दर पर किया जाता है।
देश की सर्वोच्च अदालत को हर तरह के विवाद में अंतिम निर्णय देना पड़ता है, फिर चाहे वह पूजा स्थल से जुड़ा हो, क्रिकेट से या फिर कॉर्पोरेट अधिग्रहण और करों से। न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद राज्यपाल और विभिन्न आयोगों के सदस्य बन जाते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद के ये लाभ ही हितों में टकराव की स्थिति पैदा करते हैं। इन परिस्थितियों के बीच तार्किक यही होगा कि सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का वेतन 500 फीसदी बढ़ा दिया जाए लेकिन इस शर्त के साथ कि वे सेवानिवृत्ति के बाद कोई लाभ का पद नहीं लेंगे। देश में निजी बैंकों और स्टॉक एक्सचेंज के सीईओ प्रति माह 30 लाख से 80 लाख रुपये तक पाते हैं। वहीं बड़े वकील भी अदालत में पेश होने के लिए भारी भरकम राशि लेते हैं।
उनके फैसलों के प्रभाव को देखते हुए कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को 20 लाख रुपये का मासिक वेतन देना बहुत अधिक नहीं होगा और उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद कोई पद लेने से रोकने के लिए इतना तो किया ही जा सकता है। इससे सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों में निष्पक्षता पर यकीन बढ़ेगा।
घरेलू और विदेशी कंपनियों तथा व्यक्तियों के लिए यह आवश्यक है कि देश की जांच एजेंसियों, नियामकों और अदालतों के समक्ष दशकों से लंबित मामले तेजी से निपटाए जाएं। अंतहीन देरी से भरोसा कम होने लगता है। जहां तक चीन तथा अन्य देशों के साथ रिश्तों की बात है, भारत को शिखर सम्मेलन जैसे आयोजनोंं के बजाय अनुमान आधारित विश्लेषणों के साथ काम करना होगा।

First Published - June 30, 2020 | 12:20 AM IST

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