ट्रांसमिलेनियो। यह नाम है कोलंबिया की राजधानी बगोटा में चल रहे बस रैपिड ट्रांजिट (बीआरटी) सिस्टम का।
बगोटा में रोजमर्रा सफर करने वाले 14 लाख लोगों के लिए ट्रांसमिलेनियो जीवनरेखा से कम नहीं है। इस बीआरटी सिस्टम के तहत 850 बसें रोजाना 85 किलोमीटर तक आती-जाती हैं। सिस्टम की खासियतें अद्भुत हैं।
लोग अपनी मंजिल तक का सफर 32 फीसदी कम वक्त में तय करते हैं, हादसों में 90 फीसदी की कमी दर्ज की गई है और गैस उत्सर्जन 40 फीसदी कम हुआ है।लातिनी अमेरिकी देशों, कुछ अमेरिकी देशों और यहां तक कि बांग्लादेश और पाकिस्तान में सफलतापूर्वक चल रहे बीआरटी सिस्टम का भारत में शुरुआती प्रयोग हो तो रहा है, पर दिल्ली की कुछ सड़कों पर यह प्रयोग एक डरावने सपने जैसा साबित हो रहा है।
इसकी मुख्य शिकार निजी गाड़ियां हैं, जिनमें स्कूल बसें भी शामिल हैं।लेकिन यहां नीतिगत खामियों पर किसी की नजर नहीं जा रही, बल्कि सारा ठीकरा बीआरटी सिस्टम के सिर फोड़ा जा रहा है। बीआरटी सिस्टम के तहत चलने वाली बसों के लिए अलग से एक खास लेन (कॉरिडोर) बनाई जाती है, जिसमें ये बसें निर्बाध रूप से चलती हैं।
यदि दिल्ली शहर के नीतिनिर्माता यहां बीआरटी सिस्टम के लिए की जा रही शुरुआती पहलों को बंद करने का फैसला करते हैं, तो यह बच्चे को नहलाने के बाद बचे गंदे पानी के साथ-साथ बच्चे को भी नाली में फेंक देने जैसा होगा।
यह सही है कि दिल्ली में बीआरटी सिस्टम के लिए तैयार किए जा रहे कॉरिडोर की वजह से ट्रैफिक संबंधी दिक्कतें आ रही हैं और ये मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं। पर इस समस्या से निपटने के लिए कॉरिडोर या अलग लेन बनाए जाने का काम तब शुरू किया जाना चाहिए था, जब स्कूलों में छुट्टियां चल रही हों या फिर ऐसी जगह का चुनाव किया जाना चाहिए था, जहां ट्रैफिक थोड़ा कम हो।
सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) का कहना है कि सालाना कुछ सौ नई बसें दिल्ली की सड़कों पर उतरती हैं, जबकि यहां रोजाना 400 कारों की बिक्री होती है। सीएसई की सुनीता नारायण कहती हैं – ‘निजी वाहनों में इस तरह की बढ़ोतरी के बावजूद दिल्ली के 60 फीसदी ट्रैफिक को ढोने का काम बसों द्वारा ही किया जाता है।’
बकौल सुनीता, यही वहज है कि हमें एक ऐसे सिस्टम की जरूरत है जिससे रोजमर्रा आवाजाही करने वालों के बड़े जत्थे को सुचारु रूप से लाया-ले जाया जा सके। बीआरटी हमें इस तरह का विकल्प मुहैया कराता है। दिल्ली में करीब 1 करोड़ 60 लाख पैसेंजरों की आवाजाही होती है, जिनमें से सिर्फ 90 लाख लोगों को बसों की सेवा हासिल हो पाती है।
दरअसल, बीआरटी की कामयाबी की पहली कहानी ब्राजील के क्युरितिबा शहर में लिखी गई। वहां 1950 और 1960 के दशक में ही यह सेवा शुरू हो चुकी थी। आखिर क्युरितिबा के लोगों ने बीआरटी सिस्टम को क्यों अपनाया? ऐसा नहीं था कि उनके पास फैंसी कारें नहीं थीं और उन्होंने मजबूरन इस सेवा को अपनाया।
सचाई यह है यह प्रति व्यक्ति कार संख्या के मामले में ब्राजील का दूसरा बड़ा शहर है। वहां हर तीन व्यक्ति पर एक कार है। पर क्युरितिबा में प्रति व्यक्ति पेट्रोल का खर्च वहां के 8 शहरों में लोगों द्वारा की जाने वाली पेट्रोल खपत के मुकाबले 30 फीसदी कम है।
दिल्ली इंटेग्रेटिड मल्टी-मॉडल ट्रांजिट सिस्टम (डीआईएमटीएस) शहर में 5.6 किलोमीटर सड़क पर अपनी शुरुआती दौड़ लगा रहा है। अहमदाबाद में अगले साल से इस तरह की सेवा शुरू किए जाने की योजना है। ऐसा हो रहा है और इसे कोई रोक भी नहीं सकता।
आखिर इसे रोके जाने का क्या तुक है? क्या यह किसी लाल बत्ती या जाम में घंटों फंसी गाड़ियों को ‘मुक्ति’ दिलाने का सही जरिया नहीं है? वास्तविकता यह है कि 100 कारें जितने लोगों को ढो सकती हैं, महज 3 बसें उस काम को अंजाम देने के लिए काफी हैं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित पर्यावरण प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) प्राधिकरण के चेयरपर्सन भूरे लाल ने पिछले हफ्ते बीआरटी सिस्टम लागू किए जाने के पक्ष में अपनी बात रखी। यह बात दीगर है कि कारों का इस्तेमाल करने वालों ने उनके इस कदम का भारी विरोध किया और इसके खिलाफ प्रदर्शन किए।
अब निजी गाड़ियां रखने वालों को खुद फैसला करना है कि क्या वे स्वच्छ हवा के साथ और कम वक्त में अपनी मंजिल तय करना चाहते हैं या फिर उनकी रेंगते ट्रैफिक की वजह से मिनटों की दूरी घंटों में तय करने की ख्वाहिश है।