समितियां बोर्ड के लिए खास होती हैं, इसलिए जरूरी है कि वे बोर्ड की भावी प्राथमिकताओं तथा कंपनी की आवश्यकताओं को पूरा करने के मकसद से काम करें। बता रहे हैं अमित टंडन
अब कारोबार का काम अधिक से अधिक मुनाफा कमाना ही नहीं रह गया है। उसका काम शेयरधारकों और सभी हितधारकों के लिए लाभ की स्थिति तैयार करना, कंपनी की दीर्घकालिक और लगातार सफलता को बढ़ावा देना तथा समाज हित में योगदान करना है। कारोबार या व्यवसाय अब काफी जटिल हो गया है।
डिजिटल क्रांति, साइबर सुरक्षा, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई), कर्मचारियों की भर्ती एवं उन्हें अपने साथ बनाए रखना, जलवायु परिवर्तन, भू-राजनीति हाल में सामने आए ऐसे कुछ मसले हैं, जिन पर कंपनियों के निदेशक मंडलों (बोर्ड) को ध्यान देना चाहिए। बोर्ड समस्याओं और मसलों की इस लगातार बढ़ती सूची से बोर्ड समितियों के जरिये निपटते हैं।
समितियों की मदद से उन्हें व्यापक समझ वाले निर्णय लेने में मदद मिलती है। इनमें कुछ समितियां निगरानी (ऑडिट समिति) और कुछ सलाह-मशविरे (तकनीकी समिति) के लिए होती हैं ताकि कंपनियों का काम अच्छी तरह चल सके।
पिछली बार की गई गिनती के मुताबिक बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) और नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) पर सूचीबद्ध कंपनियों में कुल 626 समितियां थीं। इनमें ज्यादातर समितियों के नाम अलग-अलग थे मगर उनके काम का जिम्मा और अधिकार एक जैसे ही थे।
जैसे आईटी स्टीयरिंग कमेटी, आईटी स्ट्रैटजी कमेटी, आईटी स्टीवर्डशिप कमेटी, आईटी स्ट्रैटजी ऐंड डिजिटल पेमेंट कमेटी और इन्फॉर्मेशन सिस्टम्स सिक्योरिटी कमेटी आदि। अन्य समितियां खास कामों के लिए बनाई गई थीं, जैसे कानूनी एवं गैर-निष्पादित परिसंपत्ति पुनर्गठन समिति, सरकार की ओर से यूरिया खरीदने के लिए अधिकार प्राप्त समिति या शेयर आवंटन समिति शामिल हैं।
एक बार शेयर आवंटन होने या यूरिया की खरीदारी होने पर कुछ समितियां संभवतः बंद हो जाएंगी मगर पर्यावरण, सामाजिक और संचालन समिति जैसी समितियां चलती रहेंगी। समितियों की संख्या इस कदर बढ़ने के बाद भी तीन बातें स्पष्ट दिखती हैं।
पहली, ज्यादातर काम कुछ गिनी-चुनी समितियां ही करती हैं। दूसरी, जिन मामलों के लिए जटिल और विशिष्ट ज्ञान चाहिए, उनके लिए समितियां प्राय: अलग ही होती हैं। तीसरी, तेजी से उभरते क्षेत्रों के लिए अलग समितियां गठित होती हैं। इन पर और विस्तार से चर्चा करते हैं।
कंपनियों के बोर्ड मुख्य रूप से उन्हीं समितियों पर निर्भर रहते हैं जिनका गठन नियामकों ने अनिवार्य कर दिया है। कंपनी कानून के अनुसार कंपनियों में ऑडिट समिति, नामांकन एवं पारिश्रमिक समिति (एनआरसी), शेयरधारक संबंध समिति और कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) समिति का गठन अनिवार्य है।
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) की सूचीबद्धता से संबंधित अनिवार्यताओं एवं जानकारी संबंधी आवश्यकताओं के सुधार के लिए गठित कोटक समिति ने 2019 में कहा कि शीर्ष 500 कंपनियों में जोखिम प्रबंधन समिति होनी ही चाहिए। वर्ष 2021 में यह शर्त शीर्ष 1,000 कंपनियों के लिए लागू कर दी गई।
ऑडिट, एनआरसी, सीएसआर और जोखिम समितियों की कार्यसूची (एजेंडा) को नियामकों ने हमेशा स्पष्ट और व्यापक रूप से बताया है। कहा तो यहां तक जाता है कि इनमें काफी बातें सुझाई गई हैं।
दूसरी ध्यान देने लायक बात यह है कि कारोबार से जुड़ी जरूरतें विशेष समितियों के जरिये पूरी की जा रही हैं मगर उनकी रफ्तार नियामक ही तय कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए सेबी ने परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनियों में निवेश समिति का गठन अनिवार्य बना दिया है। भारतीय बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण अपेक्षा करता है कि बीमा कंपनियां पॉलिसीधारक सुरक्षा समिति का गठन करें और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने प्रस्ताव दिया है कि बैंक उधार लेने वालों को इरादतन कर्ज नहीं चुकाने वालों यानी डीफॉल्टर की श्रेणी में डालने और उनके नामों की घोषणा करने के लिए समिति गठित करें।
कारोबार में जटिलता जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे ही कंपनी के कर्मचारियों की समितियां बनती जाती हैं। किसी वित्तीय संस्थान में परिसंपत्ति-देनदारी प्रबंधन समिति, उद्यम जोखिम प्रबंधन समिति, सूचना सुरक्षा समिति और उत्पाद नवाचार एवं समीक्षा समिति जैसी समितियां बनाए जाने के प्रावधान हैं।
कंपनियां पर्यावरण के अनुकूल बनने या तकनीक से जुड़ी समस्याएं कैसे सुलझाती हैं? वे इसके लिए या तो डिजिटल कायाकल्प समिति अथवा ईएसजी समिति जैसी अतिरिक्त समिति बनाएंगी या इनसे निपटने का जिम्मा पहले से बनी किसी समिति को सौंप देंगी, जैसे ईएसजी के लिए सीएसआर समिति को कहा जा सकता है।
कुछ ऐसी बातें हैं, जिन पर कंपनियों को ध्यान देने की जरूरत है। सबसे पहले उन्हें समिति के विधान एवं दायित्वों पर पुनर्विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिए शेयरधारक संबंध समिति की भूमिका स्पष्ट नहीं है। यह समिति ‘समावेशी निर्णय लेने’ और ‘पारदर्शिता एवं विश्वास’ बनाने पर जोर देती है। यह समिति पहले शेयरधारक शिकायत निवारण समिति के नाम से जानी जाती थी और इसे शेयर ट्रांसफर या लाभांश नहीं मिलने जैसी शिकायतें सुलझाने का काम मिला था।
हमारे शेयर बाजार तकनीकी रूप से इतने आगे बढ़ चुके हैं कि शेयरधारक संबंध समिति को अपनी भूमिका नए सिरे से तय करने की जरूरत है। यह समिति इन्वेस्टर कॉल में शरीक होकर निवेशकों के सवाल सुनेगी तो बेहतर भूमिका निभा पाएगी। उसे बिक्री पक्ष से जुड़ी रिपोर्ट, रेटिंग एजेंसियों की टिप्पणी पढ़नी और प्रॉक्सी एडवाइजरी कंपनियों के सुझावों पर विचार करना चाहिए।
यदि वे व्यापार प्रदर्शनी में भाग लेंगी तो उन्हें आपूर्ति के पक्ष की चुनौतियां बेहतर ढंग से समझ आएंगी और वे अधिक योगदान कर पाएंगी। बोर्ड को इस समिति के मौजूदा कामों की समीक्षा करनी चाहिए और वांछित बदलाव के लिए उनमे संशोधन करना चाहिए।
अन्य समितियों की कार्यसूची की भी इसी तरह समीक्षा की जानी चाहिए। कंपनियों के लिए अपनी प्रतिस्पर्द्धियों पर नजर रखना और उनकी विभिन्न समितियों की समीक्षा करना फायदेमंद होगा।
बोर्ड में अब काफी बदलाव हुए हैं और नए निदेशक अपने साथ नए हुनर ला रहे हैं। उन्हें उपयुक्त समितियों में शामिल करने से कंपनियां उनके ज्ञान एवं अनुभव का लाभ ले पाएंगी। बोर्ड को इस अवसर का इस्तेमाल कर अपनी विभिन्न समितियों के सदस्यों को लाने का कार्यक्रम तैयार करना चाहिए और यह भी बताना चाहिए कि उनसे क्या अपेक्षाएं हैं।
समितियां बोर्ड के लिए खास होती हैं, इसलिए उनका ढांचा दुरुस्त रखना जरूरी है ताकि बोर्ड कारगर तरीके से काम कर सके। लिहाजा, यह जरूरी है कि विभिन्न समितियां बोर्ड की भविष्योन्मुखी नीतियों और कंपनियों की जरूरतों पर ध्यान दें।
(लेखक इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर एडवाइजरी सर्विसेज इंडिया लिमिटेड के साथ जुड़े हैं)