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गरीबी मिटाने का बेहतर हथियार है पशुधन

Last Updated- December 10, 2022 | 5:31 PM IST

देश में पारंपरिक फसलों के खराब प्रदर्शन के बावजूद पशुधन की हालत काफी बेहतर रही है। पशुधन क्षेत्र एक बार फिर नई उछाल के लिए तैयार है।


इस क्षेत्र की सफलता ने एक तरह से आपंदा प्रबंधन में अहम भूमिका निभाई है। फसलों की बर्बादी की क्षतिपूर्ति और सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने में पशुधन का योगदान काफी महत्वपूर्ण है।


नई रणनीति के तहत न सिर्फ इस क्षेत्र का विकास तेज करने की बात है, बल्कि पशुधन के जरिये ह्रदय रोग और अन्य बीमारियों में काम आने वाले उत्पाद तैयार करने की भी योजना है। दूध, अंडे और पशुधन से जुड़े अन्य उत्पादों में औषधीय गुण होते हैं और इनसे कई रोगों का आसान और सस्ता इलाज ढूंढा जा सकता है।


भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के उपमहानिदेशक (पशु विज्ञान) एम. के. बुजरबरुआ के मुताबिक, पशुपालन कुपोषण से लड़ने के अलावा गरीबी उन्मूलन में भी अहम भूमिका निभा सकता है। इसके पीछे उनका तर्क काफी सरल है और सभी लोगों को आसानी से समझ में आ सकता है। वह कहते हैं कि देश का ज्यादातर पशुधन समाज में आर्थिक रूप से सबसे कमजोर तबके सीमांत किसान और भूमिहीन मजदूरों के पास है।


इन वर्गों के पास देश के 72 फीसदी गाय-बैल, 85 फीसदी भैंस, 68 फीसदी पोल्ट्री और 85 फीसदी सूअरों का मालिकाना हक है। इन पशुधनों की उत्पादकता में बढ़ोतरी कहीं-न-कहीं गरीबी उन्मूलन को प्रतिबिंबित करेगी। हालांकि उनका मानना है कि इसके लिए सरकारी अभियानों और पब्लिक-प्राइवेट साझीदारी को बढ़ाने की जरूरत होगी।


एक ओर जहां फसलों के उत्पादन में कमी देखने को मिल रही है, वहीं दूसरी ओर पशुधन क्षेत्र लगातार विकास कर रहा है। इसके तहत दूध का उत्पादन जहां 2000-2001 में 8 करोड़ टन था, वहीं 2006-07 में यह बढ़कर 10 करोड़ टन पहुंच गया।


इस दौरान दुग्ध उत्पादन में 3.2 फीसदी की सालाना बढ़ोतरी दर्ज की गई। 6 साल में इसमें 2 करोड़ टन की बढ़त देखने को मिली। इसी तरह मांस के उत्पादन में सालाना 2.25 फीसदी की दर से बढ़ोतरी देखने को मिली। इस दौरान मांस का उत्पादन 53 लाख टन से बढ़कर 61 लाख टन हो गया। इसके अलावा पोल्ट्री मीट का उत्पादन 13 लाख टन से बढ़कर 20 लाख टन हो गया।


पिछले 6 साल में अंडों के उत्पादन में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखने को मिली है। इस दौरान अंडे का उत्पादन 36 अरब से बढ़कर 50 अरब हो गया।डेरी सेक्टर की सालाना विकास दर जहां 3.5 फीसदी है, वहीं पोल्ट्री सेक्टर में विकास दर इसके मुकाबले काफी ज्यादा 8 फीसदी है। नतीजतन, देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का हिस्सा घटकर 18 फीसदी हो गया है, वहीं पशुधन क्षेत्र का हिस्सा बढ़कर 25.6 फीसदी तक पहुंच गया है।


अगर इसमें मछली पालन को भी जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा बढ़कर 36 फीसदी तक पहुंच जाता है। दुग्ध उत्पादन 10 करोड़ टन के आंकड़े को पार कर चुका है और वस्तुत: इसे देश की सबसे बड़ी ‘फसल’ माना जा सकता है। गौरतलब है कि दुग्ध उत्पादन चावल (9 करोड़ 30 लाख टन) और गेहूं ( 70 करोड़ 50 लाख टन) को पीछे छोड़ चुका है। साथ ही वैल्यू के मामले में भी दूध ने गेहूं और चावल को पछाड़ दिया है।


अगर इस बात को मान लिया जाए कि देश की 80 फीसदी आबादी को मांसाहार खाने से परहेज नहीं है (बशर्ते उनके पास क्रयशक्ति हो) तो इस आधार पर कहा जा सकता है कि पशुधन से जुड़े उत्पादों में और बढ़ोतरी तय है। बढ़ती आबादी और लोगों की आय में हो रही बढ़ोतरी के मद्देनजर इससे संबंधित मांग में भयंकर इजाफा हो सकता है। माना जाता है कि इन उत्पादों के जरिये हर शख्स के लिए आवश्यक प्रोटीन (60 ग्राम) का एकतिहाई हिस्सा (20 ग्राम) प्राप्त करना मुमकिन हो सकेगा।


राष्ट्रीय पोषण नीति में हर शख्स के लिए हर रोज 60 ग्राम प्रोटीन को जरूरी बताया गया है। 20 ग्राम में दूध के जरिये 10 ग्राम, मांस और मछली के जरिये 4-4 ग्राम और अंडों से 2 ग्राम प्रोटीन मुहैया कराने का लक्ष्य तय किया जा सकता है। इसके लिए दूध के वर्तमान उत्पादन 10 करोड़ टन को 2015 तक बढ़ाकर 10 करोड़ 60 लाख टन तक पहुंचाना होगा। इसी तरह अंडों का उत्पादन 50 अरब से बढ़ाकर 120 अरब तक करना होगा।


इसके अलावा मांस का उत्पादन वर्तमान 60 लाख से बढ़ाकर 1 करोड़ 5 लाख टन करना होगा।बुजरबरुआ कहते हैं कि पिछले रेकॉर्ड को देखते हुए यह लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल नहीं है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के वैज्ञानिकों ने इन लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में काम करना भी शुरू कर दिया है। इसके अलावा ये वैज्ञानिक सेहत के प्रति जागरूक लोगों के लिए पशुधन से जुड़े उत्पादों को तैयार करने की दिशा में भी काम कर रहे हैं।


वैज्ञानिकों के मुताबिक, लोग कम कोलेस्ट्रोल वाले अंडे और मांस खाना चाहते हैं। इसके अलावा लोग मांस, दूध और अंडे की वैसी किस्म चाहते हैं, जिसमें औषधीय गुणों का समावेश हो। इस बाबत शुरू की गई पहल के नतीजे अगले 4-5 साल में देखने को मिल सकते हैं। हालांकि, इस तरह के अनुसंधान में बायोटेक्नोलोजी के दखल की जरूरत होगी और इस पर काफी रकम खर्च करने होंगे। इसके मद्देनजर इन अनुसंधानों के लिए फंड की महती जरूरत है।

First Published - April 8, 2008 | 11:49 PM IST

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