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डेरिवेटिव संकट का दुरूह पहलू

Last Updated- December 05, 2022 | 7:41 PM IST

डेरिवेटिव्स शब्द आजकल काफी बदनाम हो चुका है। साथ ही यह लोगों के लिए चिंता का विषय भी बन गया है।


यहां बता दें कि डेरिवेटिव्स से आशय अनुबंधों की वैसी कैटिगरी से है, जिसमें बॉन्ड और शेयर जैसी संपत्तियों की भविष्य की कीमत तय की जाती है। डेरिवेटिव अनुबंधों के तहत कई भारतीय कंपनियां अपना काफी पैसा गंवा चुकी हैं।


इस नुकसान के मद्देनजर ये कंपनियां संबंधित बैंकरों को जिम्मेदार ठहराते हुए उन पर मुकदमा ठोंक रही हैं या अपने मुख्य वित्तीय अधिकारी (सीएफओ) को हटाने में लगी हैं।मिसाल के तौर पर सॉफ्टवेयर कंपनी हेक्सावेयर ने सीनियर मैनेजमेंट और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स से जानबूझकर खतरनाक लेनदेन संबंधी जानकारी छुपाने के आरोप में अपने एक वरिष्ठ अधिकारी को नौकरी से निकाल दिया।


इसी तरह चेन्नई स्थित एक छोटी कंपनी ने बैंकर को कोर्ट में घसीट लिया है। कंपनी का कहना है उसके सीफओ के इरादे तो नेक थे, लेकिन उसे संबंधित बैंक ने सौदे के लिए बेवकूफ बना दिया। सीफओ इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हो चुके थे कि डेरिवेटिव्स लेनेदेन से कंपनी अच्छी खासी कमाई करने में सफल होगी और इसके मद्देनजर उन्होंने कंपनी को इस अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के लिए राजी कर लिया।


कंपनी ने बाद में कहा कि बैंक ने हमें बेवकूफ बनाया और सीएफओ इस बात को भांप नहीं सके। इस बारे में बैंक का कहना है कि वह किसी कंपनी के सीफओ के साथ सौदा कर रही थी, न कि किसी अकाउंट क्लर्क से। बैंक ने सीएफओ व कंपनी के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों और बैंक अधिकारियों के बीच हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग भी कोर्ट में पेश की है। इसमें लेनदेन के संभावित खतरों पर चर्चा की गई थी।


दक्षिण भारत स्थित एक अन्य कंपनी का कहना है कि उसने डेरिवेटिव्स सौदे के तमाम पहलुओं के लिए अपने सीफओ को अधिकृत किया था और बैंक ने सीफओ को इस सौदे के लिए लुभाने के लिए झूठे वादों का सहारा लिया। बहरहाल, इन दावों-प्रतिदावों की वैधता अदालत तय करेगी, लेकिन मैनेजमेंट सलाहकार कंपनियों का कहना है कि इन मामलों में एक बात आम है।


वह यह कि ज्यादातर कंपनियां कॉरपोरेट गर्वनेंस मानकों के मामले में कमजोर हैं। साथ ही सामूहिक जिम्मेदारी को स्वीकार नहीं करने की बात भी जाहिर होती है। एक सलाहकार के मुताबिक, जब तक इन अनुबंधों के जरिये अच्छी खासी कमाई हो रही थी, सभी कंपनियों के बोर्ड इसकी सफलता का सेहरा अपने सिर पर बांध रहे थे। हालांकि उस वक्त भी उन्हें यह बात बखूबी पता थी कि डेरिवेटिव सौदे एक तरह की सट्टेबाजी ही हैं।


अब जब डेरिवेटिव का खुशनुमा माहौल खत्म हो चुका है, वे इसका ठीकरा बैंकों और सीफओ के सिर पर फोड़ने में जुटे हैं। एक अन्य सलाहकार के मुताबिक, कंपनियों का यह दावा बिल्कुल झूठ है कि बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मंजूरी के बगैर इन सौदों को अंजाम दिया गया।


ज्यादातर कंपनियों में हालत यह है कि छोटे स्तर पर कर्ज लेने के लिए भी बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मंजूरी लेनी पड़ती है। इसके मद्देनजर इस बात को पचाना नामुमकिन है कि फॉरेक्स डेरिवेटिव्स सौदों के लिए सिर्फ सीएफओ को अधिकृत कर दिया गया था।


लिस्टिंग समझौते के उपखंड 49 के तहत, कंपनी द्वारा जोखिम के निर्धारण और अन्य कार्यों के लिए फैसले लिए जाने से पहले बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को इस बाबत जानकारी देना जरूरी है। इसके अलावा जब भी कोई कंपनी जोखिम लेती है, तो उसे इस काम को एक सुनिश्चित ढांचे के जरिये अंजाम देना चाहिए। मसलन, कई कंपनियां रिस्क मैनेजमेंट सिस्टम के बगैर ऐसे सौदे कर डालती हैं।


यदि मैकलाई फाइनैंशल सर्वे पर यकीन किया जाए तो 5 में 2 कंपनियां करंसी रिस्क  का आकलन करने की बिल्कुल भी परवाह नहीं करतीं और 50 फीसदी से ज्यादा कंपनियों के पास कोई रिस्क मैनेजमेंट पॉलिसी नहीं है। हालांकि यह बात जरूर है कि इसमें सिर्फ भारतीय कंपनियां ही शामिल नहीं हैं। दुनियाभर में ऐसी कंपनियों की कमी नहीं है, जो डेरिवेटिव्स सौदों के लिए तुरंत अपने बैंकों या सीएफओ पर दोष मढ़ देती हैं।


कुछ महीने पहले गिब्सन ग्रीटिंग कंपनी को डेरिवेटिव व्यापार में 2 करोड़ 50 लाख डॉलर (करीब 100 करोड़ रुपये) का नुकसान झेलना पड़ा था और इसके लिए उसने बैंकर्स ट्रस्ट पर मुकदमा ठोंक दिया। कंपनी का आरोप था कि ट्रस्ट ने धोखाधड़ी के जरिये सीएफओ को इस सौदे के लिए राजी किया। इसी तरह इटली की बड़ी निर्यातक कंपनियों में शुमार डिवानिया ने यूरोप के दूसरे सबसे बड़े बैंक यूनिक्रेडिट पर मुकदमा ठोंका है।


कंपनी का आरोप है कि इस बैंक की वजह से उसे डेरिवेटिव व्यापार में 10 करोड़ डॉलर (लगभग 400 करोड़ रुपये) गंवाने पड़े और कंपनी को बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि इस बर्बादी के पीछे कहानी यह थी कि यूनिक्रेडिट ने डिवानिया को इस सौदे के लिए मजबूर किया था। कंपनी ने क्रेडिट की मदद बंद होने के खतरों के मद्देनजर इस सौदे पर अपनी सहमित जताई थी। संयोगवश डिवानिया ने चुपके से बैंक सलाहकारों के साथ कंपनी की हुई बातचीत को चुपके से कैमरे में कैद कर लिया था।


बहरहाल, इस पूरे मामले में उम्मीद की किरण यह है कि कुछ कंपनियां और बैंक इस भीड़ में शामिल नहीं हैं। मसलन, मुंबई स्थित आलोक इंडस्ट्रीज में कोई फैसला सामूहिक रूप से लिया जाता है। कंपनी द्वारा किए गए किसी भी सौदे पर कंपनी के ट्रेजरी प्रमुख, सीएफओ और एमडी के हस्ताक्षर होते हैं।


इसी तरह कुछ बैंकों ने ऐसे सौदों के लिए बाकायदा कोड ऑफ कंडक्ट तैयार कर रखा है, जबकि कुछ इस बाबत बने नियम-कायदे का सख्ती से पालन करते हैं। उदाहरण के लिए स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक अपने अधिकारियों को वैसी कंपनियों को फॉरेक्स डेरिवेटिव्स प्रॉडक्ट बेचने की अनुमति नहीं देता, जिनके पास संबंधित सौदे के बराबर जोखिम लेने की क्षमता नहीं होती।

First Published - April 9, 2008 | 11:37 PM IST

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