सन 1989 में जब शिव सेना की ओर से बालासाहेब ठाकरे और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ओर से प्रमोद महाजन सीटों के लिए समझौता करने बैठे तो महाजन ने अपनी पार्टी को यह समझाने में कड़ी मेहनत की कि आखिरकार संतुलन का लाभ भाजपा के पक्ष में जाएगा।
कुछ बातें जो महाजन और उनके साथियों को चिढ़ाती थीं उनमें से एक तो यह थी कि बालासाहेब अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच शेखी बघारते हुए भाजपा को ‘कमलाबाई’ के अपमानजनक नाम से पुकारते थे। मुरली मनोहर जोशी ने एक बार निजी बातचीत में बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा था कि वह इस बात की खास सावधानी बरतते थे कि उन्हें कभी ठाकरे के साथ मंच साझा न करना पड़े क्योंकि उनका बुनियादी रूप से संविधान विरोधी रुख होता था।
उन्होंने कहा था, ‘मेरी पार्टी और उनकी पार्टी के बीच गठबंधन हो सकता है। लेकिन मैं कभी उनकी तरह की राजनीति का समर्थन नहीं करूंगा।’ सिगार ठाकरे को इतने पसंद थे कि वे उन्हें निहत्था कर सकते थे लेकिन उनकी पार्टी के साथ सौदेबाजी करना उतना ही मुश्किल था। महाजन को अपनी पार्टी के शीर्ष नेताओं को यह समझाने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी कि इस समझौते से भाजपा को नुकसान नहीं बल्कि लाभ होगा।
दो दलों के बीच राजनीतिक मोलभाव एक दुर्लभ कला है क्योंकि आपको रणनीतिक जीत हार का समायोजन करना होता है। इसमें प्रोटोकॉल और पदानुक्रम का बहुत ध्यान रखना पड़ता है। अगर सामने वाले पक्ष को लगता है कि दूसरा पक्ष संगठनात्मक रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं है तो वह आपको गंभीरता से नहीं लेगा।
शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) और भाजपा का गठबंधन कृषि कानूनों की वजह से टूट गया। परंतु एसएडी के प्रमुख गठबंधन वार्ताकार नरेश गुजराल ने स्वीकार किया था कि जब तक अरुण जेटली जीवित थे, भाजपा के साथ बात करना बहुत आसान था।
ओडिशा में भाजपा और बीजू जनता दल (बीजद) के रिश्तों की बात करें तो वह एक पेचीदा संतुलन का मामला था जहां राज्य के भाजपा नेताओं मसलन केवी सिंह देव, धर्मेंद्र प्रधान, जुएल ओरांव की हताशा और बीजद के साथ गठबंधन के फायदों की मार्केटिंग के बीच बारीक संतुलन कायम करना शामिल था।
इस दौरान पार्टी को उन छोटे राजनीतिक दलों पर भी नजर रखनी पड़ी जो बीजद को समाप्त कर सकते थे। यह गठबंधन करीब एक दशक तक कारगर रहा लेकिन 2009 में पूर्व भाजपा नेता चंदन मित्रा जिन्हें लाल कृष्ण आडवाणी के निजी दूत के रूप में व्यवस्था की समीक्षा के लिए भेजा गया था उन्हें नाकामी हाथ लगी।
कई लोग मानते हैं कि नवीन पटनायक और चंदन मित्रा के बीच के पदसोपान की विसंगति भी इसकी एक वजह थी। लेकिन भाजपा की राज्य इकाई ने भी मित्रा के हस्तक्षेप को नकार दिया था।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रह चुके गुलाम नबी आजाद की आत्मकथा हाल ही में सामने आई है जिसमें उन्होंने राजनीतिक वार्ताकार की मुश्किलों के बारे में काफी कुछ बताया है। वह कहते हैं कि कांग्रेस में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के रूप में दो सत्ता केंद्रों के बीच उलझन पैदा होने के कारण हिमंत विश्व शर्मा कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए।
सोनिया गांधी ने राहुल गांधी से कहा था कि वह विश्व शर्मा को आश्वस्त करें लेकिन राहुल गांधी ने उनसे कहा कि विश्व शर्मा को जाने दिया जाए। एक अन्य वार्ता जिसे केंद्रीय मंत्री एसएस आहलूवालिया ने पीवी नरसिंह राव की ओर से तमिलनाडु में अंजाम दिया था वह थी 1996 में जी के मूपनार की बगावत के बाद।
आहलूवालिया और राव के प्रयासों से कांग्रेस अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (अन्नाद्रमुक) के साथ समझौता करने में कामयाब रही। मूपनार गठबंधन के खिलाफ थे और उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर तमिल माणिला कांग्रेस का गठन किया। अन्नाद्रमुक गठबंधन को 1998 के विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में भी हार का सामना करना पड़ा लेकिन सन 1998 के चुनाव में पार्टी को भारी पराजय का सामना करना पड़ा और कांग्रेस अपनी जगह माणिला कांग्रेस के हाथों गंवा बैठी।
निश्चित रूप से वार्ताकार की राह कांटों से भरी होती है। 2017 में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को भी इसका अहसास हुआ। गोवा में कांग्रेस को 40 सदस्यीय विधानसभा में 17 सीटों पर जीत मिली और उसे सरकार बनाने के लिए चार विधायकों के समर्थन की जरूरत थी। या तो उन्हें अधिकार नहीं था या फिर वे स्वतंत्र विधायकों से वार्ता करने में चूक गए।
पार्टी को अपना नेता चुनने में भी वक्त लगा और इस बीच 13 सीटों वाली भाजपा ने तेजी से कदम उठाए और छोटे दलों और स्वतंत्र विधायकों का समर्थन जुटाकर सरकार बना ली। कांग्रेस के लिए वार्ता शुरू होने के पहले ही नाकाम हो गई।
आने वाले दिनों में एक बार फिर राजनीतिक वार्ताओं की कड़ी परीक्षा होगी। कर्नाटक में कांग्रेस के वापस सत्ता में आने की अच्छी संभावना है। लेकिन वहां सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार दोनों मुख्यमंत्री पद के तगड़े दावेदार हैं। परंतु मुख्यमंत्री तभी बना जा सकता है जब विधायकों का समर्थन हासिल हो। दोनों समूहों ने अपनी-अपनी पसंद के लोगों को टिकट दिलाने का हरसंभव प्रयास किया।
कांग्रेस मानती है कि नेताओं को शांत करने के लिए 15 से 20 विधानसभा सीटों के टिकट गलत लोगों को दे दिए गए। यानी ऐसे नेताओं को जिनके जीतने की उम्मीद नहीं है। कहीं न कहीं इसमें भाजपा के लिए भी सबक है। जब प्रमुख वार्ताकार स्वयं एक राजनीतिक कारक हो तो दिक्कत की बात है। भाजपा के संगठन सचिव बीएल संतोष की महत्त्वाकांक्षाएं बीएस येदियुरप्पा की महत्त्वाकांक्षाओं से टकरा रही हैं और इसका नुकसान भाजपा को उठाना पड़ सकता है।
बहरहाल 2024 के आम चुनावों के पहले इस दिशा में सबसे बड़ी परीक्षा का सामना नीतीश कुमार को करना होगा। विपक्ष के कई नेताओं के उलट कांग्रेस को लगता है कि कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के बीच होने वाली चुनावी जंग में भाजपा के हारने की कोई गारंटी नहीं। लेकिन उन्होंने नीतीश को प्रयास करने देने का निर्णय लिया।
क्या वे उन्हें नाकाम करने की तैयारी कर रहे हैं? नीतीश इस खेल में नए नहीं हैं लेकिन उनकी यह कोशिश भारत को कहां ले जाएगी यह तो 2024 में ही पता चलेगा।