facebookmetapixel
Test Post कैश हुआ आउट ऑफ फैशन! अक्टूबर में UPI से हुआ अब तक का सबसे बड़ा लेनदेनChhattisgarh Liquor Scam: पूर्व CM भूपेश बघेल के बेटे चैतन्य को ED ने किया गिरफ्तारFD में निवेश का प्लान? इन 12 बैंकों में मिल रहा 8.5% तक ब्याज; जानिए जुलाई 2025 के नए TDS नियमबाबा रामदेव की कंपनी ने बाजार में मचाई हलचल, 7 दिन में 17% चढ़ा शेयर; मिल रहे हैं 2 फ्री शेयरIndian Hotels share: Q1 में 19% बढ़ा मुनाफा, शेयर 2% चढ़ा; निवेश को लेकर ब्रोकरेज की क्या है राय?Reliance ने होम अप्लायंसेस कंपनी Kelvinator को खरीदा, सौदे की रकम का खुलासा नहींITR Filing 2025: ऑनलाइन ITR-2 फॉर्म जारी, प्री-फिल्ड डेटा के साथ उपलब्ध; जानें कौन कर सकता है फाइलWipro Share Price: Q1 रिजल्ट से बाजार खुश, लेकिन ब्रोकरेज सतर्क; क्या Wipro में निवेश सही रहेगा?Air India Plane Crash: कैप्टन ने ही बंद की फ्यूल सप्लाई? वॉयस रिकॉर्डिंग से हुआ खुलासाPharma Stock एक महीने में 34% चढ़ा, ब्रोकरेज बोले- बेचकर निकल जाएं, आ सकती है बड़ी गिरावट

दुनिया पर कमजोर होती अमेरिका और पश्चिमी देशों की पकड़

दुनिया में वर्तमान हालात में सुरक्षा मामलों से लेकर, तकनीकी विकास, विनिर्माण एवं व्यापार एवं कूटनीतिक मोर्चों पर पूरब से चलने हवा प्रचंड रूप ले रही है।

Last Updated- May 24, 2024 | 11:11 PM IST
Russia_China

तकनीकी एवं कूटनीतिक मोर्चे पर चीन और रूस का दबदबा बढ़ने से वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव साफ दिख रहा है। विश्लेषण कर रहे हैं टी एन नाइनन

पश्चिम देशों और शेष दुनिया के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा के बीच यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश अब भी ताकतवर अवश्य हैं मगर दुनिया पर उनकी पकड़ कमजोर होने लगी है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी नौसेना का दबदबा हुआ करता था मगर अब उसकी भूमिका चीन को रोकने तक सीमित रह गई है।

आर्थिक मोर्चों पर भी अमेरिका ने आक्रामक रवैया (तकनीक, व्यापार एवं आर्थिक प्रतिबंध जैसे कदम) छोड़ दिया है और अब बचाव की मुद्रा (अमेरिकी बाजार के हित सुरक्षित रखने के लिए शुल्कों का सहारा) में आ गया है।

एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि यूक्रेन को पश्चिमी देशों से मिले समर्थन के बावजूद रूस के सैनिक लगातार आगे बढ़ रहे हैं। माओ ने काफी पहले कह दिया था कि पूरब से चलने वाली हवा की गति पश्चिमी दिशा से चलने वाली हवा से अधिक हो गई है। माओ का अभिप्राय यह था कि चीन जैसे देश पश्चिमी देशों को कड़ी चुनौती देने की ताकत रखने लगे हैं।

कई वर्षों तक पश्चिमी देशों के विश्लेषकों एवं पत्रकारों ने चीन और रूस दोनों को ही समझने में भूल की। रूस को आर्थिक रूप से कमजोर समझा गया और यह धारणा बना ली कि व्लादीमिर पुतिन के लिए राजनीतिक चुनौती उन्हें एक दिन किनारे लगा देगी।

पुतिन को गंभीर बीमारी से भी ग्रस्त बता दिया गया। दशकों से यह कयास भी लगाए जा रहे थे कि एक न एक दिन चीन कमजोर पड़ जाएगा और हाल तक इसकी ताकत को अधिक अहमियत नहीं दी गई। इन कयासों के बीच रूस ने पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का उम्मीद से कहीं बढ़कर मजबूती से सामना किया है और अब यूक्रेन में उनकी सेना नए इलाकों पर कब्जा कर रही है। पुतिन एक बार फिर राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं।

इस बीच, चीन आय के स्तर पर पश्चिमी देशों को टक्कर देने के साथ दुनिया में सर्वाधिक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल रहा है।

हाल में अमेरिका ने चीन के कुछ उत्पादों पर शुल्क काफी बढ़ा दिया है मगर यह कदम दोनों देशों के बीच पूर्ण व्यापार युद्ध शुरू होने का संकेत नहीं दे रहा है। इसका कारण यह है कि अमेरिका द्वारा शुल्क में बढ़ोतरी उन उत्पादों पर की गई है जिन्हें चीन अमेरिका को बहुत अधिक नहीं बेचता है।

इस तरह, यह कदम जो बाइडन ने घरेलू राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए उठाया है। कारण जो भी हो, चीन इनमें कई उत्पादों का अब भी बड़ा उत्पादक है और वह इनके लिए बाजार आसानी से खोज सकता है।

शुल्कों से दिक्कत अमेरिका के आयातकों को हो सकती है जिनके पास कुछ वस्तुओं की आपूर्ति के वैकल्पिक स्रोत मौजूद नहीं हैं। चीन तीसरी दुनिया के देशों में कारखानों के जरिये इनकी आपूर्ति कर सकता है। दूसरी तरफ, अमेरिकी उपभोक्ताओं को मुद्रास्फीति के कारण अधिक भुगतान करना होगा।

ऐसी रक्षात्मक नीतियां (सब्सिडी के दम पर अमेरिका में विनिर्माण को पटरी पर लाने के दुष्प्रभाव) पूर्व में दिखे आक्रामक रवैये के विपरीत हैं।

उम्मीद तो यह की जा रही थी कि ये आक्रामक कदम अमेरिका के दुश्मनों को जकड़ लेंगे। यह सच है कि प्रतिबंधों से रूस पर असर जरूर हुआ है मगर इसका प्रभाव आंशिक ही रहा है।

रूस को इसके तेल एवं गैस के लिए नए ग्राहक मिल गए हैं जबकि यूरोप को सस्ती ऊर्जा के किफायती स्रोत से हाथ धोना पड़ा है। इससे जर्मनी जैसी मजबूत अर्थव्यवस्थाओं को भी नुकसान पहुंचा है।

दूसरी तरफ रूस की अर्थव्यवस्था लगातार आगे बढ़ रही है। रूस और चीन दोनों ही ने भुगतान प्रणाली विकसित कर ली है जो डॉलर और बैंकिंग संवाद प्रणाली जैसे ‘स्विफ्ट’ (सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनैंशियल टेलीकम्युनिकेशन) को दरकिनार कर आगे बढ़ रही है।

रूस और चीन के बीच 95% व्यापार स्थानीय मुद्राओं में

रूस और चीन के बीच 95 प्रतिशत व्यापार स्थानीय मुद्राओं में हो रहा है। रूस के पास डॉलर की तुलना में अब रेनमिनबी का भंडार अधिक है। चीन सोना खरीदने में काफी सक्रियता दिखा रहा है और पिछले 18 महीनों में इसने भारी मात्रा में यह पीली धातु खरीदी है।

द पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना के पास 2,250 टन सोना है जो दुनिया में कुल भंडार का 5 प्रतिशत से कम है मगर तब भी यह अब तक के उच्चतम स्तर पर है।

तकनीक के मोर्चे पर चीन अन्य देशों की तुलना में काफी पहले कदम उठाया और तेजी से आगे बढ़ा और अब वह इलेक्ट्रिक वाहन, सौर ऊर्जा और लीथियम बैटरी खंड में प्रभावी भूमिका में आ गया है। इन उद्योगों के लिए जरूरी विशेष सामग्री की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए भी चीन ने तेजी से कदम बढ़ाया है। वह इलेक्ट्रॉनिक्स, जीव विज्ञान और रक्षा विनिर्माण में आने वाली तकनीकी बाधाओं को पार करने की ताकत जुटा चुका है।

उदाहरण के लिए हुआवे ने हाल में 7 नैनोमीटर चिप से लैस स्मार्टफोन के साथ पश्चिमी देशों को चकित कर दिया। कंपनी अब 5 नैनोमीटर की चिप लाने की तैयारी कर रही है। चीन अगले वर्ष तक चिप विनिर्माण में 70 प्रतिशत तक आत्म-निर्भरता हासिल करने का लक्ष्य लेकर चल रहा है।

इस बीच, पश्चिमी देशों की दवा कंपनियां भी बायोफार्मा और जीव विज्ञान में चीन के बढ़ते प्रभुत्व को स्वीकार कर रही हैं। रक्षा क्षेत्र में चीन चौथा विमानवाहक पोत बना रहा है जो परमाणु ऊर्जा से संचालित किया जा सकता है। यह भी एक तकनीकी बाधा को पार करने का संकेत है। सच्चाई यह है कि तकनीक के मोर्चे पर चीन की प्रगति रोकने में काफी देर हो गई है।

सुरक्षा के मोर्चे पर पश्चिमी टीकाकारों को इस बात का डर सता रहा है कि अगर रूस यूक्रेन पर अपनी पकड़ यूं ही मजबूत बनाता रहा तो उनके लिए इसके कई गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

डॉनल्ड ट्रंप अगर अमेरिका के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और उन्होंने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) से बाहर निकलने की धमकी पर अमल किया तो पश्चिमी देशों के लिए हालात और बिगड़ सकते हैं। मानव संसाधन, उपकरण, लड़ने की क्षमता और रक्षा उत्पादन में यूरोप के हाथ काफी तंग होने से शीत युद्ध के बाद पहली बार यूरोपीय देश स्वयं को इतने असुरक्षित महसूस करेंगे।

हालांकि, अब यूरोप का रक्षा बजट सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत तक जरूर पहुंच गया है मगर अमेरिकी मदद (परमाणु हथियार सहित) के बिना अपनी रक्षा में पूरी तरह सक्षम होने में इसे कम से कम एक दशक लग जाएगा।

यूरोपीय देशों एवं अमेरिका की तुलना में रूस और चीन एक दूसरे के काफी करीब आ गए हैं और दुनिया के अन्य हिस्सों में कूटनीतिक बढ़त भी हासिल कर ली है। रूस सीरिया में अपने दांव में सफल रहा है और उसे ईरान से ड्रोन भी मिल रहे हैं।

चीन ने पिछले साल ईरान और सऊदी अरब के बीच संबंध सामान्य बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आर्थिक संसाधनों की कमी का सामना कर रहे अफ्रीका में चीन अमेरिका से अधिक खर्च कर रहा है।

अफ्रीका में कई देश देश फ्रांस और अमेरिकी सैनिकों को जाने के लिए कह रहे हैं। उनकी जगह वे सुरक्षा देने के लिए रूसी सैनिकों को आमंत्रित कर रहे हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन पर निर्भर देश अमेरिका को तरजीह देने के मूड में नहीं हैं।

कम होती जा रही है अमेरिका की विश्वसनीयता

एक भरोसेमंद साथी के रूप में अमेरिका की विश्वसनीयता कम होती जा रही है। यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति में अमेरिका के लचर रवैये से यह बात काफी हद तक साबित भी हो गई है। ये सभी पहलू अमेरिका के खिलाफ जा रहे हैं जिससे चीन को सीधा फायदा मिल रहा है। पश्चिमी देश के यूक्रेन और गाजा में विरोधाभासी रुख को भी आर्थिक रूप से कमजोर एवं विकासशील देश पचा नहीं पा रहे हैं।

पश्चिमी देशों के टीकाकार कारण के साथ तर्क दे रहे हैं कि लंबे समय से चीन कारोबारी रणनीति के साथ आगे बढ़ता और भारी भरकम सरकारी समर्थन से उद्योगों को बढ़ावा देता रहा है। उनके अनुसार निर्यात बढ़ाने के लिए चीन जान बूझकर अपनी मुद्रा का अवमूल्यन नहीं रोकता है।

इन टीकाकारों के अनुसार चीन की इन हरकतों को देखते हुए ही पश्चिमी देशों ने उसके खिलाफ एहतियाती उपाय किए हैं। यह तर्क अपनी जगह ठीक है मगर पश्चिमी टीकाकार यह नहीं कह रहे हैं कि चीन के घरेलू बाजार में प्रतिस्पर्द्धा काफी तेज है।

उदाहरण के लिए वहां लगभग 139 कंपनियां इलेक्ट्रिक वाहन बनाती हैं। जो सबसे उपयुक्त होगी वही अपना अस्तित्व बचा पाएगी, इसलिए बीवाईडी जैसी कंपनियां दुनिया की संभावित दिग्गज कंपनी के रूप में उभर रही हैं।

हालांकि, निर्यात के बड़े बाजार तक पहुंच नहीं होने से चीन के लिए चुनौती जरूर बढ़ेगी। मगर भारत का अनुभव बताता है कि महज शुल्क लगाने से चीन के उत्पाद को आने से नहीं रोका जा सकता है। वास्तव में चीन जल्द ही तकनीक और बाजार में प्रवेश देने के मामले में पश्चिमी देशों एवं अमेरिका के खिलाफ जवाबी कदम उठाने की स्थिति में होगा।

पश्चिमी देशों के दबाव के जवाब में संभवतः वह इसी तरह के कदम उठाएगा जो जापान से अलग होंगे। 1980 के मध्य में अमेरिका और जापान के बीच व्यापार युद्ध चल रहा था। अमेरिकी दबाव के जवाब में जापान ने निर्यात नियंत्रित कर लिया था और अपनी मुद्रा येन को मजबूत होने दिया था।

दुनिया में वर्तमान हालात में सुरक्षा मामलों से लेकर, तकनीकी विकास, विनिर्माण एवं व्यापार एवं कूटनीतिक मोर्चों पर पूरब से चलने हवा प्रचंड रूप ले रही है।

(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के पूर्व संपादक एवं चेयरमैन हैं)

First Published - May 24, 2024 | 10:11 PM IST

संबंधित पोस्ट