भारत को विदेशी निवेशकों से रूबरू कराने के लिए 1990 के दशक में विज्ञापन क्षेत्र के महारथी एलेक पद्मसी ने ‘टू इंडियंस’ के नाम से एक विचारणीय प्रस्तुति पेश की। इसमें उन्होंने एक ‘मजबूत भारत’ का ज़िक्र किया था, जो शहरी था और लोग शिक्षित होने के साथ ही आर्थिक रूप से भी संपन्न थे। उन्होंने एक ‘कमजोर भारत’ का भी जिक्र किया, जो ग्रामीण था और जहां शिक्षा एवं आय दोनों ही की नाम मात्र की मौजूदगी थी।
तीस वर्ष बाद भी दो भारत का विचार (एक मजबूत और एक कमजोर) मौजूद है और कुछ दिन पहले संपन्न लोक सभा चुनाव में यह बात परिलक्षित हुई है। इनमें एक विचार मोदी के इर्द-गिर्द घूमता है, जो आशा एवं उम्मीदों से भरपूर, आर्थिक एवं आकांक्षा के संदर्भ में प्रगतिवादी है और लोगों के जीवन स्तर में लगातार सुधार के लिए प्रयासरत रहने की बात करता है।
दूसरा विचार राहुल गांधी के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसमें नाउम्मीदी, आर्थिक प्रगति एवं अपेक्षाओं के लिहाज से ठहराव है और अधिकांश लोग जीवन की दौड़ में पीछे छूट गए हैं। ये दोनों ही विचार भारत के संदर्भ में सही हैं और इन दोनों विचारों की मौजूदगी के सबूत भी हैं। मगर यहां कुछ मामलों में बदलाव काफी गुप्त तरीके से हुए हैं और ऊपर से ऐसा लगता है कि जैसे कुछ ही नहीं, मगर सच्चाई यह है कि कई नाटकीय बदलाव आए हैं।
वर्ष 1991 से भारत के कई हिस्सों वाली यह बहुआयामी स्थिति कई बार बदली है और नए प्रारूप सामने आए हैं। दिलचस्प बात यह है कि पुरानी बातों एवं प्रतीकों के भी नए मतलब सामने आ रहे हैं। वर्तमान में ‘इंडिया’ एक ऐसे राजनीतिक गठबंधन का प्रतीक होने का दावा कर रहा है, जो गरीब एवं पिछड़े लोगों के हितों के बारे में सोचता है। विदेश मंत्री एस जयशंकर की पुस्तक ‘ व्हाई भारत मैटर्स’ में देश की समग्र संस्कृति एव परंपराओं का जिक्र किया गया है।
मगर कॉर्पोरेट इंडिया या उद्योग जगत में ‘भारत’ टियर 2 और टियर 3, ग्रामीण, कम संपन्न एवं कम आधुनिक और एक बड़े बाजार का प्रतिनिधित्व करता है, जो इसके अनुसार खपत बढ़ाने का एक नया जरिया है। नब्बे के दशक में यह चिंता थी कि भारत का संपन्न हिस्सा काफी छोटा जान पड़ता है जो कमजोर हिस्से का बोझ नहीं उठा सकता है और कोशिश भी करेगा तो स्वयं बिखर जाएगा।
हालांकि, अच्छी बात यह है कि कई वर्ष बीतने और नई सरकारों के बाद भी मजबूत भारत इतनी सहज स्थिति में आ गया कि वह देश के कमजोर हिस्से को आगे ले जा सकता है। कम से कम घरेलू और रहन-सहन के आंकड़े तो यही दर्शाते हैं। आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि मजबूत भारत और कमजोर भारत को सामाजिक-आर्थिक रूप से दर्शाने के लिए ‘शीर्ष से आधा’ और ‘नीचे से आधा’ हिस्सा एक अच्छा जरिया हो सकता है।
शीर्ष अर्द्ध भाग का दायरा अब क्षेत्रीय स्तर पर बढ़ चुका है यह भौगोलिक एवं ग्रामीण स्तरों तक फैल चुका है। बिल्कुल नीचे से आधे हिस्से का भी विस्तार हुआ है, मगर इसमें भौगोलिक एवं ग्रामीण क्षेत्रों की अधिक मौजूदगी है। मगर ‘नीचे से आधा’ हिस्से में एक अलग एवं तेजी से बढ़ता खंड है जिसके पास संपर्क, सूचना, सरकारी समर्थन एवं व्यक्तिगत कारण सभी किसी न किसी सीमा तक मौजूद हैं। यह खंड एक बेहतर जीवन की संभावना तलाशने के लिए माध्यम और आवश्यक ऊर्जा का स्रोत खोज लेता है। किशोर बियाणी ने इसे ‘इंडिया 2’ का नाम दिया है।
हालांकि, यह बात हरेक जगह लागू नहीं हो सकती, मगर अधिकांश पाठक इसे अपने अनुभवों से जोड़कर देखेंगे। मध्य प्रदेश के एक छोटे शहर में साधारण परिवार की एक लड़की देखभाल सेवा देने वाली एक एजेंसी से जुड़ गई। इस एजेंसी ने उस लड़की को 90 वर्ष से अधिक आयु वाले एक व्यक्ति की सेवा के लिए तमिलनाडु के किसी शहर में भेज दिया। वह कुछ पैसा जमा कर मध्य प्रदेश में प्री-नर्सिंग टेस्ट में हिस्सा लेना चाहती है जिससे उसे एक सस्ते सरकारी नर्सिंग कॉलेज में दाखिला मिल सकेगा।
उत्तर प्रदेश के एक गांव में रहने वाली एक युवा महिला शिक्षिका बनना चाहती है। उनके पिता (अशिक्षित) के नियोक्ता से जब उस महिला की बात हुई तो वह उसकी प्रतिभा से प्रभावित हो गए और उसकी शिक्षा का पूरा खर्च उठाने के लिए तैयार हो गए। उत्तर प्रदेश का ही एक युवा मुंबई में कोई छोटी-मोटी नौकरी कर रहा था। फिर वह भारत-तिब्बत सीमा पुलिस परीक्षा में शामिल हुआ क्योंकि उसके गांव में सेना की ‘भर्ती’ नहीं हो रही है।
एक सब्जी बेचने वाला, जो यह जानता है कि कारोबार कैसे बढ़ाना है, होम डिलिवरी सेवा देने के साथ एक छोटी दुकान शुरू करने की तमन्ना रखता है। व्हाट्सऐप और यूपीआई के दम पर रोजगार करने वाले कर्मी या छोटे उद्यमी भारत के हरेक हिस्से में मिल जाते हैं। वे जिस भी क्षेत्र या खंड में काम करते हैं उन्हें उसकी पूरी जानकारी रहती है। यह ऊपर से आधा और आकांक्षी लोगों का बिल्कुल नीचे से आधा हिस्सा मोदी के विचार का हिस्सा हैं। ‘इंडिया शाइनिंग’ जैसी तो कोई बात नहीं है मगर हालात पहले की तरह भी खराब नहीं हैं। अब भारत पहले की तरह नहीं रह गया है जहां नौकरी जाने या निकाले जाने की स्थिति में खाने तक के लाले पड़ जाते थे।
राहुल के भारत का विचार उन लोगों से जुड़ा है जो निराश हो चुके हैं, जिनके पास रोजगार नहीं हैं, डर एवं गरीबी में जीवन बिता रहे हैं और सामाजिक न्याय चाह रहे हैं, न कि आर्थिक अवसर। दोनों विचारों में कल्याणकारी राज्य की संकल्पना भी अलग है। एक विचार विभिन्न तरीकों से क्षमता निर्माण पर जोर देने का दावा करता है ताकि लाभार्थी आर्थिक अवसर का लाभ उठा सके जबकि दूसरा कई नए तरीकों से आरक्षण बढ़ाने और धन के पुनर्वितरण का वादा करता है।
अगर एक आपको ‘मछली पकड़ने का साधन देने’ का दावा करता है तो दूसरा ‘हमेशा मछली घर पर पहुंचाने’ का वादा करता है। इन दोनों में प्रत्येक विचार भारत के एक वर्ग के साथ मेल खाता है। इनमें किस विचार का दायरा बड़ा है? चुनाव नतीजों के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है मगर ऐसा नहीं है कि इसे सरल तरीके से नहीं समझा जा सकता है।
जिस तेजी के साथ डिजिटल सुविधाओं एवं माध्यमों का इस्तेमाल हो रहा है और जिस तेजी के साथ बुनियादी सेवाओं और उच्च शिक्षा एवं प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन के आंकड़े आ रहे हैं, उन्हें देखते हुए ‘आकांक्षाएं एवं उम्मीदें रखने वाले भारत’ का दायरा ‘बेउम्मीद लग रहे भारत’ से अधिक बड़ा लग रहा है और ‘आर्थिक अवसर’ की उपलब्धता ‘सामाजिक न्याय’ से कहीं अधिक वजनदार एवं महत्त्वपूर्ण लग रही है।
मगर इन दोनों विचारों के पुरोधाओं के लिए कार्य तय हो गए हैं। एक विचार उन्मुक्त आकांक्षाओं के साथ आगे बढ़ रहा है जिससे अवश्य पूरा किया जाना चाहिए। इसके लिए नए नीतिगत उपाय करने होंगे ताकि लाखों लोगों के लिए अवसर सृजित हो सकें। यानी उनकी आकांक्षाओं को संभावनाओं के धरातल पर लाना होगा।
दूसरा विचार अगर वास्तव में वंचित लोगों को सशक्त बनाना चाहता है तो उसे ऐसे लोगों के लिए सक्षम उपाय करने होंगे ताकि वे अतीत में न झांक कर नए भारत का हिस्सा बनाने के लिए प्रेरित हो सके और समावेशी व्यवस्था का हिस्सा बन जाएं।