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महंगाई के नाग को नाथना ही होगा

Last Updated- December 10, 2022 | 4:20 PM IST

भारत में महंगाई की दर तकरीबन 7 फीसदी के आसपास पहुंच चुकी है। यह दर पिछले 5 साल में सबसे ज्यादा है।


अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी जैसी हालत और इसके मद्देनजर ग्लोबल अर्थव्यवस्था भी इसकी चपेट में है। इस वजह से भारत में निवेश में भी कमी आने की आशंका पैदा हो गई है। जाहिर है इसका असर विकास दर पर पड़ेगा और इसमें भी कमी आ सकती है। गर्मी का मौसम शुरू हो चुका है और फिजाओं में खतरे की महक महसूस की जाने लगी है।


साथ ही लोग इस बात पर भी काफी अटकलें लगा रहे हैं कि यूपीए सरकार कब तक टिकेगी – जुलाई, अक्टूबर, दिसंबर या फिर कब तक? संक्षेप में कहें तो देश के राजनीतिक और आर्थिक भविष्य पर सवालिया निशान खड़ा हो गया है। इसके मद्देनजर सवाल यह उठता है कि क्या विकास दर लुढ़ककर 6 फीसदी के आसपास पहुंच जाएगी? क्या राजनीतिक अनिश्चितता की वजह से विकास दर को गंभीर नुकसान झेलना पड़ेगा?


जहां तक राजनीतिक पहलू की बात है, मैंने कुछ हफ्ते पहले इस बाबत अपना आकलन पेश किया था। जहां तक मैं समझता हूं, जब तक खरीफ फसल का चक्र नहीं पूरा हो जाता, तब तक चुनाव नहीं होंगे। अगर वाम दल सरकार से समर्थन वापस भी ले लेते हैं ( जो मेरे विचार से होना ही है) तो भी यूपीए अल्पमत सरकार के रूप में दिसंबर तक सत्ता में बनी रहेगी। इसे देखते हुए अगर चुनाव जल्द भी होते हैं, तो दिसंबर या अगले साल जनवरी में होंगे।


हालांकि यह सच है कि इस वजह से सरकार नीतियों के मामले में पंगु हो जाएगी, क्योंकि करात और उनके वाम सहयोगी सरकार की टांग खींचने से बाज नहीं आएंगे। कुल मिलाकर आर्थिक संदर्भ में राजनीतिक अनिश्चितता बरकरार रहेगी।जहां तक अर्थव्यवस्था का सवाल है, इस हालत में कोई भी वही कर सकता है, जो अक्सर अर्थशास्त्री किया करते हैं।


ऐसी परिस्थितियों में अर्थशास्त्री सकारात्मक पहलुओं को ध्यान में रखे गए बगैर ‘बेदिमागी’ विश्लेषण करते रहते हैं। या फिर अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारकों की सकारात्मक पड़ताल की जा सकती है। हालांकि विश्लेषण के लिए दोनों विधियों में जिस विधि का भी इस्तेमाल किया जाए, इसमें दो महत्वपूर्ण पहलू भविष्य की परिस्थितियों का निर्धारण करेंगे।


ये पहलू हैं – मॉनसून और घरेलू मांग का स्तर। दोनों के बीच संबंधों को भले ही कितना भी नजरअंदाज किया जाए, लेकिन घरेलू मांग को तय करने में मॉनसून की भूमिका काफी अहम होगी। बुरा मॉनसून जितनी चोट अर्थव्यवस्था को पहुंचा जा सकता है, कोई भी बाहरी कारक उतनी चोट अर्थव्यवस्था को पहुंचाने में सक्षम नहीं है।


मॉनसून के प्रभावों के बारे में अगस्त के मध्य से पहले किसी भी तरह की भविष्यवाणी करना मुमकिन नहीं है। इसलिए अभी कुछ भी कहने का मतलब नहीं बनता। जहां तक मांग की बात है, भारत में विकास को आगे बढ़ाने में घरेलू मांग की भूमिका काफी अहम होती है। हालांकि इसमें काले धन का पहलू भी काफी अहम है और पूरे गुणा-गणित में यह काफी महत्वपूर्ण तत्व है।


इसके मद्देनजर भारत पर वैश्विक मंदी का असर बहुत ज्यादा नहीं पड़ेगा और इस वजह से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में महज आधा फीसदी का फर्क पड़ेगा। इस पहलू को देखते हुए मुझे बहुत हैरानी होगी, अगर वित्तीय वर्ष 2008-09 में सकल घरेलू उत्पाद 8.5 फीसदी से कम रहता है। मेरे हिसाब से इसकी दर दुनिया में चीन के बाद सबसे ज्यादा होगी।


यहां सवाल यह उठता है कि अगर विकास दर समस्या नहीं तो मसला है क्या? समस्या है महंगाई की दर। विरोधाभासी बात यह है कि महंगाई की दर में बढ़ोतरी उच्च विकास दर की वजह से होती है। जहां तक भारत की बात है, यहां विकास दर में घरेलू मांग का प्रमुख योगदान होता है और अगर आप महंगाई की दर को नीचे लाना चाहते हैं तो आपको विकास की दर को भी नीचे लाना पड़ेगा।


यह बात जरूर है कि आप कोशिश कर पूर्ति में बढ़ोतरी कर सकते हैं और सरकार खाद्य सामग्रियों पर सीमा शुल्क में कटौती कर ऐसा करने की कोशिश कर भी रही है। हालांकि सस्ती खाद्य सामग्री से मांग में कमी नहीं होगी। हकीकत में इससे मांग में और बढ़ोतरी होगी। ऐसी परिस्थिति में क्या किया जाए, इस बात को लेकर अर्थशास्त्रियों में काफी तेजी से बहस हो रही है। इनमें एक छोटा तबका ऐसा भी है, जो रुपये को बढ़ने देने की वकालत कर रहा है।


उनका तर्क है कि इससे आयात सस्ता होगा और महंगाई की दर कम हो सकेगी। यूरोपीय देशों में कीमतों में बढ़ोतरी का सिलसिला शुरू होने पर यूरोपीय यूनियन कुछ ऐसे ही उपाय करता है।  एक्सचेंज रेट का इस्तेमाल कर यूरोपीय यूनियन महंगाई को नियंत्रित करता है। हालांकि एक बड़े ग्रुप का मानना है कि ब्याज दरों में कटौती की जानी चाहिए, ताकि निवेश और विकास दर को बढ़ावा देने के लिए कर्ज सस्ते हो सकें।


हालांकि सस्ते कर्ज के कारण मांग में ज्यादा से ज्यादा बढ़ोतरी होगी और अगर पूर्ति में तुरंत बढ़ोतरी नहीं होती है, तो कीमतों पर दबाव बढ़ेगा। ऐसी हालत में अगर पूरी दुनिया में मांग काफी ज्यादा है, तो उच्च ब्याज दरों और महंगे कर्ज के अलावा कोई भी चीज हालात को बेहतर करने में मददगार नहीं होगी। हालांकि भारत में सिस्टम के अलग होने से स्थितियां अलग हैं।


इसका मतलब यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया रुपये की उड़ान को काबू में रखना जारी रखेगा और यह डॉलर के मुकाबले 40 रुपये के आसपास ही रहेगा। बहरहाल, इस पूरी बहस में सबसे चिंता महंगाई को काबू करने की है। एक नए सिध्दांत के मुताबिक, वर्तमान मुद्रास्फीति पर मौद्रिक नीति का कोई असर नहीं पड़ने वाला। यह बिल्कुल सच नहीं है।


महंगाई की दर को रोकने के लिए दीर्घकालिक समाधान चाहे जो कुछ भी हो, फिलहाल मौद्रिक नीति के जरिए ही महंगाई की दर को काबू करने की लड़ाई लड़ी जा सकती है। अगर कोई दूसरा विकल्प सुझाता है, तो उसे बेवकूफ की संज्ञा दी जा सकती है। फिलहाल हम इंतजार और अच्छे मॉनसून की उम्मीद कर सकते हैं, जैसा कि हम पिछले ढाई हजार साल से करते आए हैं।

First Published - April 4, 2008 | 11:46 PM IST

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