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कर्ज जोखिम की काली परतों से उठता पर्दा

Last Updated- December 05, 2022 | 9:41 PM IST

डेरिवेटिव बाजार में चल रहीं मौजूदा घटनाएं बैंकों के लिए काफी अहम मानी जा सकती हैं।


ये घटनाएं काउंटरपार्टी कर्ज जोखिम से संबंधित हैं। काउंटरपार्टी का मतलब कर्ज की प्रक्रिया में शामिल पार्टियाें से है। अमेरिका में इस बात को लेकर काफी शंकाएं हैं कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने इन्वेस्टमेंट बैंक बेयर सर््टन्स को संकट से उबारने के लिए 30 अरब डॉलर की पब्लिक मनी देने का वादा किया। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि बेयर सर््टन्स कई ट्रिलियन डॉलर के डेरिवेटिव सौदों की काउंटरपार्टी थी और यदि उसे मदद नहीं दी जाती तो इससे पूरे बैंकिंग तंत्र की हालत चरमरा सकती थी।काउंटरपार्टी कर्ज जोखिम का मुद्दा भारतीय बाजार के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है।


 यहां भी करंसी डेरिवेटिव से जुड़े कुछ मामलों में तो मार्क-टु-मार्केट वैल्यू (बुक वैल्यू के मुकाबले मौजूदा बाजार मूल्य) काफी नकारात्मक पाई गई हैं और कई बार तो इनकी रकम कॉरपोरेट कंपनियों की कुल संपत्ति का अच्छाखासा प्रतिशत होती हैं। मिसाल के तौर पर, एक मामले में तो यह कंपनी की कुल संपत्ति का 150 फीसदी तक हो गई।कॉरपोरेट ग्राहकों के लिए जो मार्केट रिस्क हैं, बैंकों के मामले में वे क्रेडिट रिस्क हो जाते हैं। इसके कामयाब प्रबंधन के लिए ट्रांजैक्शन को आंकने की क्षमता विकसित किए जाने और नकारात्मक मूल्य की सही सीमा तय किए जाने पर जोर देने होगा।


साथ ही इस बात का भी ख्याल रखना होगा कि यदि बिना सिक्युरिटी या गारंटी राशि दिए नकारात्मक मूल्य की लिमिट पूरी हो जाए, तो सौदे का तोड़ दिया जाए। मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि कई मामलों में इन बुनियादी बातों का भी ख्याल क्यों नहीं रखा गया।कुल मिलाकर बैंक बचत करने वालों और उधार लेने वालों के बीच एक बिचौलिए की भूमिका निभाते हैं। साफ है कि ऐसे में यह बैंकों की मुख्य जिम्मेदारी है कि वे कर्ज जोखिम के आकलन और प्रबंधन पर शिद्दत से नजर डालें। कई मामलों में तो इस बात पर ही शंका होने लगती है कि बैंक के कर्ज विभाग ने इस तरह की इजाजत दी होगी। डेरिवेटिव सौदों के मामलों में तो कर्ज विभाग से ज्यादा हीला-हवाली ट्रेजरी की ओर से की जाती है, जिनके द्वारा ठोस मानकों के पालन की जरूरत महसूस नहीं की जाती।


कथित परिपक्व बाजारों में बैंकों द्वारा क्रेडिट डेरिवेटिव के मामलों में मार्क-टु-मार्केट वैल्यू में होने वाले नुकसान का उदाहरण भी इसकी पुष्टि करता है। शुरू में विश्लेषक इस तरह के नुकसान की रकम 400 अरब डॉलर के आसपास बता रहे थे। पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने पिछले हफ्ते एक आकलन पेश किया है, जिसके मुताबिक इस नुकसान की रकम 1 ट्रिलियन डॉलर के आसपास है।बेयर सर््टन्स के मामले ने क्रेडिट डेरिवेटिव मार्केट में काउंटरपार्टी कर्ज जोखिम के मामले से काफी सुर्खियों में ला दिया है। क्रेडिट डिफॉल्ट स्वैप का आंकड़ा 2001 में 1 ट्रिलियन डॉलर के आसपास था, जो पिछले साल जून तक बढ़कर 45 ट्रिलियन डॉलर हो गया है।


लिहाजा इस बात पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या बैंक कर्जों के मामले की निगरानी प्रभावी तरीके से कर पा रहे हैं? सीडीएस मार्केट में हुई बड़ी गड़बड़ी की वजह से हालिया सब-प्राइम संकट पैदा हुआ है, जिसे शुरू में काफी छोटा करार देकर खारिज किया जा रहा था। हालांकि जॉर्ज सोरोस ने इसके बारे में कहा – ‘यह हमारी जिंदगी का सबसे गंभीर वित्तीय संकट है।’ सोरोस ने बेसल-2 को बेतुका करार दिया और बेसल-3 की जरूरत बताई। पर बैंक अब भी बेसल-2 के मामले में उलझे हुए हैं।भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने भारतीय बैंकिंग तंत्र के लिए बेसल-2 नियमों को लागू किए जाने के लिए जारी गाइडलाइन में इंटरनल कैपिटल एडिक्वेसी असेसमेंट प्रोसेस (आईसीएएपी) की व्यवस्था की बात कही है।


आरबीआई के सर्कुलर में कहा गया है – आईसीएएपी की डिजाइनिंग और उसे लागू किए जाने की पूरी जिम्मेदारी बैंकों के बोर्ड की है।’ यह एक अलग सवाल है कि सरकारी बैंकों के बोर्ड को इन चीजों की पेशेवर जानकारी व विशेषज्ञता है या नहीं और वे अपनी जिम्मेदारियों को कितने सही तरीके से निभाते हैं। इनमें से कुछ की भर्तियां राजनीतिक दखल से होती हैं और ऐसा सुना जाता है कि इनके द्वारा दिया जाने वाला अजेंडा एक-एक हजार पृष्ठों का होता है। लिहाजा कोई भी इतने लंबे-चौड़े अजेंडे के साथ सही मायने में न्याय नहीं कर सकता।


ऐसे में अजेड़ों का साइज छोटा किए जाने की दिशा में कुछ किए जाने की जरूरत है, क्योंकि जब तक ऐसा नहीं किया जाता बैंक के बोर्ड के मेंबर इसे पढ़ने, समझने और इस पर सही मायने में बहस करने की स्थिति में नहीं होंगे।पर जब हम भारतीय डेरिवेटिव बाजार की ओर वापस लौटते हैं तो रुपये से संबंधित डेरिवेटिव की कुल रकम 128 ट्रिलियन के आसपास है। यह रकम काफी बड़ी है और इससे भी जाहिर तौर पर काउंटरपार्टी क्रेडिट रिस्क का पहलू और प्रबंधन जुड़ा हुआ है।दुनिया भर के क्रेडिट डिफॉल्ट स्वैप मार्केट की तरह देसी ब्याज दर स्वैप मार्केट में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है।


लिहाजा यह सही वक्त है जब इस बारे में एक ठोस क्लियरिंग और सेटलमेंट सिस्टम की शुरुआत की जाए। शायद इस काम को पूरा करने के लिए सीसीआईएल सबसे अच्छी एजेंसी साबित हो सकती है। मैं इस बारे में निजी पक्षपात को स्वीकार करने को तैयार हूं, क्योंकि मैं इसके बोर्ड में हूं।

First Published - April 16, 2008 | 12:07 AM IST

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