मेरे सहकर्मी प्रदीप साहा आजकल सुंदरबन डेल्टा स्थित टापू घोरमारा में फिल्मांकन में जुटे हैं।
दरअसल, वह यह जानने की कोशिश कर रहे हैं पानी और जमीन के बीच बंटे इस जोन में लोग जमीन के घटते स्तर के अलावा किसी और चीज के बारे में बात क्यों नहीं करते।
सविता नामक महिला इस मूड के बारे में तफसील से बताती हैं। दो साल पहले यहां का जलस्तर बढ़ने की वजह से उनका सब कुछ लुट गया। इस वजह से उन्हें अपने मकान और खेती योग्य जमीन से वंचित होना पड़ा। सरकार ने उनके इस नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए कुछ नहीं किया। इस त्रासदी के बाद वह इस जोन के ऊपरी इलाके की ओर बस गईं।
अपना नया मकान बनाने के लिए उन्हें खुद से जमीन खरीदनी पड़ी। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि पानी अब उनके इस नए मकान में भी घुसने लगा है। वह कैमरामैन को अपने घर की हालत को कैमरे में कैद करने के लिए कहती हैं। जब भी समुद्र में ज्वार आता है, सविता चौकन्ना हो जाती हैं। उन्हें हमेशा यह डर सताता रहता है कि ज्वार-भाटा कहीं उनके घर के वजूद को लील न जाए।
अगर यहां की स्थानीय पंचायत के जमीन के आंकड़े का जायजा लें तो आप सहज भाव से स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगा सकते हैं। आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 20 साल में इस टापू का रकवा 13,800 हेक्टेयर से घटकर 4,290 हेक्टेयर हो गया है।
हालांकि न तो यह घटना नई है और न ही असामान्य। इस तरह के टापू नदियों के मुंह में समाए हुए हैं। इसके मद्देनजर कटाव स्वाभाविक और अपरिहार्य है। इस हकीकत से अच्छी तरह परिचित होने के बावजूद इस डेल्टा के गांवों में रहने वाले लोग आजकल काफी चिंतित नजर आ रहे हैं।
दरअसल, ये लोग एक भयंकर बदलाव को भांप रहे हैं। अब तक जब भी कटाव होता था, तो ये लोग ऊपरी जमीनों का रुख करते थे। लेकिन अब सुंदरबन डेल्टा स्थित सबसे बड़े टापू सागर की भी हालत खराब होती जा रही है। दरअसल, कटाव की गति काफी तेजी बढ़ रही है।
यहां के लोग कटाव को मीटरों में मापने या इस पूरी घटना की व्याख्या करने में भले ही सक्षम न हों, लेकिन उन्हें यह पता है कि ऐसी हालत का सामना करना अब मुमकिन नहीं है। ये लोग बांध बनाते हैं, कीचड़ से सनी दीवारों को बांस की मदद से फिर से खड़ा करते हैं। लेकिन यह सब कुछ काफी कम और काफी देर से उठाया गया कदम है।
जब बंगाल की खाड़ी में इस रियलिटी शो का फिल्मांकन हो रहा था, उस वक्त मैं गोवा में थी, जहां देश का सवश्रेष्ठ ओसिनोग्राफी (समुद्री अध्ययन से जुड़ा संस्थान) इंस्टिटयूट मौजूद है। इन दोनों मामलों को जोड़ने की जरूरत थी। दरअसल मैं इस बारे में कुछ जवाब चाहती थी।
गोवा में मैं जिन वैज्ञानिकों से मिली, वे काफी जानकार हैं, लेकिन उन्हें इस बात को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं थी कि उन्होंने समुद्र के बढ़ते जलस्तर की प्रवृत्तियों के बारे में अभी सीखना शुरू ही किया है। इन वैज्ञानिकों के मुताबिक, समुद्री जलस्तर के बढ़ने की प्रवृत्तियों को बंदरगाहों के पास ज्वार-भाटा संबंधी रेकॉर्डों के जरिये मापा जा सकता है। यह रेकॉर्ड समुद्री अध्ययन से जुड़ी अथॉरिटी के पास मौजूद होता है।
समुद्री जलस्तर के ट्रेंड का जायजा लेने के लिए इससे जुड़े 60 साल से भी ज्यादा के रिकॉर्ड की जरूरत होगी। भारत में मुंबई बंदरगाह के तट पर हुए ज्वार-भाटा का 100 साल से भी ज्यादा का रेकॉर्ड उपलब्ध है, जबकि अन्य बंदरगाहों के डेटा काफी अलग-अलग हैं। वैज्ञानिक ए. एस. उन्नीकृष्णन और डी. शंकर ने ऐसे डेटा के 40 साल के रेकॉर्ड को इकट्ठा किया।
इसके तहत उन्होंने हिंद महासागर और अरब सागर से जुड़े 10 बंदरगाहों से जुड़े डेटा इकट्ठा किए। डेटा संबंधी अनियमितता को दूर करने के बाद उनके पास महज 5 बंदरगाहों से जुड़े ज्वार-भाटा के रेकॉर्ड बचे। इनमें अरब सागर में स्थित कराची, मुंबई, और कोच्ची और बंगाल की खाड़ी में मौजूद विशाखापत्तनम के बंदरगाह शामिल थे।
कुल मिलाकर डेटा के नतीजों के मुताबिक, समुद्री जलस्तर में 1.06 मिलीमीटर सालाना से 1.75 मिलीमीटर सालाना के बीच बढ़ोतरी दर्ज की गई है, जो औसत सालाना 1.29 मिलीमीटर सालाना है। हालांकि इन आंकड़ों में कोलकाता के डायमंड हार्बर और सुंदरबन के सागर का कोई जिक्र नहीं है। इस बाबत मिले छिटपुट आंकड़ों के मुताबिक, इन इलाकों मे समुद्री जलस्तर 5.74 मिलीमीटर सालाना के हिसाब से बढ़ रहा है।
वैज्ञानिक इसके पीछे भौगोलिक और टेक्टोनिक कारण मानते हैं। इसके अलावा भूजलस्तर में कमी भी ऐसी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार हो सकती है, क्योंकि हर साल इसमें 4 मिलीमीटर की कमी आ रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो समुद्री जलस्तर बढ़ने के बजाय जमीन के स्तर में कमी हो रही है।
इस क्षेत्र के प्रमुख वैज्ञानिक एस. आर. शेत्ये का कहना है कि इस मामले में कई सवाल अब भी अनसुलझे हैं। उनका कहना है कि हकीकत यह है कि धरती पर हो रहे इन बदलावों को समझने के लिए मानव की क्षमता काफी सीमित है। इसके अलावा ऑसिनोग्राफी पढ़ाने के मौजूदा तौर-तरीकों से चीजों को समझना मुश्किल हो जाता है।
दरअसल इस बाबत पढ़ाई जानी वाली चीजें वर्तमान समय के मुकाबले काफी पुरानी पड़ चुकी हैं। इस वजह से भारत में इस क्षेत्र में रिसर्च की हालत अच्छी नहीं है। इसे तत्काल दुरुस्त करने की जरूरत है।
बहरहाल सवाल यह है कि ऐसी परिस्थितियों में सविता जैसे लोग क्या करें? वह इस बात पर माथापच्चची नहीं कर सकतीं कि समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी हो रही है या जमीन घट रही है। यह भी साफ है कि जलवायु परिवर्तन इस संकट को और बढ़ा रहा है और यह सबसे ज्यादा खतरा है। ज्यादा से ज्यादा कटाव के रूप में नतीजा हमारे सामने है।
सविता को एक बार फिर से अपनी जमीन गंवानी पड़ेगी। वह एक बार पहले ही आजीविका का साधन गंवा चुकी हैं। उनके पास गुजर-बसर करने का दूसरा उपाय नहीं है। अब वह जाएं तो जाएं कहां?
क्या यह आने वाले उस वक्त की झांकी है, जिसमें न सिर्फ सुंदरबन बल्कि घनी आबादी वाले दुनिया के सभी तटीय इलाकों में समुद्री जलस्तर अपने उफान पर है?