प्रमोद महाजन की आत्मा फिरकी खा रही होगी। जिस उद्देश्य के पीछे उन्होंने अपना जीवन और राजनीति न्योछावर कर दी, वही अब टुकड़ों में है।
दरअसल महाजन की कई खूबियां थीं, लेकिन सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह कई गुटों और दलों को एकसाथ पंचायत में बिठा कर साथ लेकर चलने की क्षमता रखते थे। एक मायने में उन्हें डिक्टेटर माना जाता था, क्योंकि वह किसी एक गुट की चलने नहीं देते थे।
गुटबंदी की राजनीति भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में पनप ही नहीं पाती थी, क्योंकि महाजन ऐसा होने नहीं देते थे। जब उन्हें अंदेशा होता था कि अमुक का गुट हावी हो रहा है तो वे दूसरे को ला कर बिठा कर ऐसी बंदरबांट करते थे कि पार्टी के कार्यकर्ता जल-भुन कर चुप हो जाते थे। राजस्थान, गुजरात, दिल्ली तक के भाजपा के यूनिटों में गुटबाजी होना आम बात थी। लेकिन महाराष्ट्र में कभी किसी ने सुनी है गुटबाजी की रिपोर्ट?
इस प्रक्रिया के फलस्वरूप महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य उभर कर आया, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी पहचान ठीक मायने में बढ़ा नहीं पाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वर्चस्व वहां है, जहां भाजपा के कार्यकर्ता एक-दूसरे को मारकाट कर खत्म करने में लगे रहते हैं। लेकिन जब झगड़ा या विवाद घर में ही सुलझ जाए तो संघ की क्या भूमिका हो? इसी पसोपेश ने महाराष्ट्र में संघ की सीमाएं बांध दीं।
प्रमोद महाजन यदि यह सब कर पाए तो उनके व्यूह कौशल का खाका बनाया गोपीनाथ मुण्डे ने। महाराष्ट्र में ब्राह्मण राजनीति के लिए ज्यादा जगह नहीं है। अत: वे दिल्ली आ गए और राज्य को सौंपा मुण्डे को जो बाद में उनके बहनोई बने।
1990 में मुण्डे ने भाजपा की पहचान बनानी शुरू की। जमाना यात्राओं का था। उन्होंने राज्य भर में यात्रा निकाली। दो साफ मुद्दे थे- शरद पवार को निकम्मा और अवसरवादी सिध्द करना। इसके लिए सबूत तो पर्याप्त था, लेकिन उन्होंने दो सवाल उठाए।
एनरॉन जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को कैसे महाराष्ट्र की जनता को बेवकूफ बनाते हुए रहने दिया गया और महाराष्ट्र में माफिया गिरोहों का बेलगाम आतंक। इन दोनों सवालों ने वोटरों को प्रभावित किया। मुण्डे महाराष्ट्र में जाना-माना चेहरा हो गए और 1995 में जब राज्य में चुनाव फिर हुए तो मुण्डे शिवसेना और भाजपा की मिलीजुली सरकार में गृहमंत्री बने।
मुण्डे को बनना मुख्यमंत्री था, लेकिन महाजन ने शिवसेना के साथ जो गठबंधन किया उसमें सेना को ज्यादा सीटें आईं और मनोहर जोशी को मुख्यमंत्री बनाया गया। उस समय निश्चित रूप से मुण्डे को यह बात खली होगी, लेकिन महाजन की न सुनते तो कहां जाते?
गृह मंत्री बनने के फौरन बाद उन्होंने माफिया गिरोहों पर सख्ती बरतनी शुरू कर दी। आज एनकांउटर की बहुत बात की जाती है। मुण्डे इस प्रक्रिया के पहले वृतिक हैं।1995 से 2000 तक का भाजपा का कार्यकाल अपने आप में कुछ खास नहीं है। लेकिन एनकांउटर जिस आक्रामक ढंग से हुआ, उससे भाजपा-शिवसेना को नारा मिला- आडवाणी ने महाराष्ट्र को सबसे उत्तम राज्य की संज्ञा दी (प्रशासन के लिहाज से)।
वैसे उनका मतलब एक ऐसे राज्य से था, जहां एक-दूसरे को गिराने के बजाए भाजपा विपक्ष को मात देने में सफल हुई।2004 में चुनाव में महाजन और मुण्डे दोनों दिल्ली आए। उधर संघ परिस्तिथियों की थाह ले रहा था। नितिन गडक़री नागपुर के हैं, प्रतिभाशाली हैं, लोक निर्माण मंत्री रह चुके हैं और मुंबई ही नहीं, बल्कि पूरे महाराष्ट्र में उनके द्वारा निर्मित फ्लाईओवरों की वजह से ट्रैफिक सुचारू रूप से चलता है। गड़करी अज्ञात तो बिलकुल नहीं हैं, हां यह बात जरूर है कि मुण्डे को ज्यादा लोग जानते हैं।
महाजन की मृत्यु के बाद गड़करी ने दृढ़ता से बोलना शुरू किया। उन्हें रोकने के लिए कोई नहीं था। एक के ऊपर एक प्रहार किया गया मुण्डे पर। हालांकि संघ ने राजनाथ सिंह के माध्यम से चीजों को दुरुस्त करने की कोशिश भी की। भाजपा और संघ के बीच जो लकीर महाजन ने बांधी थी, उसे लुप्त होता देख मुण्डे भी अचकचा गए।
अब तक संघ के बाल आप्टे जो अखिल भारतीय परिषद से संबंधित सभी संघों से संबध्द थे, भाजपा में चले गए। जैसे-जैसे प्रमोद महाजन और उनके सहयोगियों का स्वर धीमा पड़ता गया, बाल आप्टे संघ का दृष्टिकोण भाजपा में पहुंचाने लगे। महाराष्ट्र की राजनीति अक्सर मुंबई की राजनीति मानी जाती है- समृध्दि की तड़क-भड़क और पैसे के लावण्य में लिप्त।
तर्क लुभावना है और महाजन के ऊपर जब भी इस तरह के आरोप लगाए गए तो इनका प्रतिवाद करना भी मुश्किल लगा, क्योंकि महाजन किंग स्टाइल जिंदगी जीते थे।महाजन ने भाजपा की बागडोर हमेशा अपने हाथ में रखी, भले ही वह मुंबई से दिल्ली आ गए। लेकिन संगठन महामंत्री शरद कुलकर्णी की आकस्मिक और असमय मृत्यु के कारण रघुनाथ कुलकर्णी को यह पद दिया गया।
यह मुण्डे और उनके साथियों को अच्छा नहीं लगा। रघुनाथ कुलकर्णी इतने लोकप्रिय नहीं हुए और दोनों तरफ शक बढ़ते रहे। विनोद तावड़े महाजन के सहयोगी माने जाते थे। लेकिन उन्होंने सड़क पार कर ली। कुल मिलाकर मुण्डे और उनके सहयोगियों को लगा कि संघ और भाजपा अब उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जाएंगे। गला घोंटवाने से पहले उन्होंने पहले ही इस स्थिति से निजात पाने के लिए बाहर निकलना चाहा। उन्होंने छोटी सी बात पर इस्तीफा दे दिया।
इन परिस्थितियों में भाजपा का बिखर जाना स्वाभाविक है। लेकिन सत्ता की राजनीति और संघ की राजनीति के दो पाटों में पिसते कार्यकर्ताओं को अंधेरी रात का अंत नहीं दिख रहा। व्यावहारिक राजनीति और संघ के आदर्शों के बीच की जमीन खाली पड़ी है और कब्जा करने वालों की भीड़ लगी है।