पश्चिम एशिया में तनाव और युद्ध के हालात बिगड़ने के साथ ही तेल की कीमतों और संभवत: तेल की आपूर्ति में इस वर्ष पहले से अधिक अनिश्चितता रहेगी। तेल कीमतों पर दांव लगाना लंबे समय से पैसा गंवाने का तय जरिया रहा है लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि निकट भविष्य में ये ऊंचे स्तर पर बनी रहेंगी।
भारत के लिए यह बुरी खबर है क्योंकि 2022-23 में हम अपनी जरूरत के तेल के 88 फीसदी हिस्से के लिए आयात पर निर्भर रहे। यानी प्रतिदिन करीब 45 लाख बैरल आयातित तेल की जरूरत पड़ी। रूस से रियायती तेल मिलने के बावजूद तेल आयात का बिल 160 अरब डॉलर के करीब रहा।
देश में सस्ते ईंधन की जरूरत को देखते हुए इंटरनैशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज में भारत ने सफलतापूर्वक यह बात मनवा ली कि कोयले का उत्पादन और उसका इस्तेमाल चरणबद्ध तरीके से कम किया जाएगा, न कि उसे एकबारगी बंद किया जाएगा। बहरहाल, बीते दो वर्षों में कोयला उत्पादन बढ़ा है और अब यह 89 करोड़ टन है और एक अरब टन का लक्ष्य ज्यादा दूर नहीं है।
अन्य जीवाश्म ईंधनों के लिए आईपीसी का सुझाव गैर किफायती सब्सिडी को समाप्त करने का है लेकिन घरेलू उत्पादन में कमी से पर्यवेक्षक यह नतीजा भी निकाल सकते हैं कि भारत ने तेल उत्पादन में चरणबद्ध कमी का निर्णय लिया है। सन 2012-13 में नकारात्मक वृद्धि नजर आने लगी और यह सिलसिला 2022-23 तक चला।
इस बीच घरेलू तेल उत्पादन घटकर 2.92 करोड़ टन तक आ गया जो 2011-12 के 3.8 करोड़ टन से 25 फीसदी कम था। चूंकि पेट्रोलियम उत्पादों की मांग लगातार बढ़ती रहती है इसलिए आयात बढ़कर 23 करोड़ टन हो गया। इस प्रकार हम वैश्विक अनिश्चितताओं के हवाले हो गए। गाजा में छिड़े युद्ध के खाड़ी में पैलने की आशंका भी उन्हीं अनिश्चितताओं में से एक है।
चीन के समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स ने हाल ही में बहुत संतोष के साथ कहा कि भारत रूसी तेल के लिए ‘युआन’ में भुगतान करने को लेकर असहज है और यही वजह है कि रूसी कच्चे तेल के सात कार्गो का भुगतान अटका हुआ है क्योंकि रूस ने रुपये में और अधिक भुगतान लेने के लिए मना कर दिया है।
अखबार ने यह भी लिखा कि युआन जहां कारोबारी वित्त में सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाली तीसरी बड़ी मुद्रा है, वहीं रुपये का अंतरराष्ट्रीय प्रचलन इतना अधिक नहीं है कि कई देश लेनदेन में उसका इस्तेमाल करेंगे। यह भी कि रुपये की विनिमय दर अस्थिर है जिसके चलते रूस के मुनाफे में कमी आ रही है।
अखबार ने यह बताने की आवश्यकता नहीं समझी कि भारी तेल आयात के कारण भारत का चालू खाता घाटा बढ़ रहा है और यह भी अस्थिरता की एक वजह रही।
सन 2016 में पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा हाइड्रोकार्बन एक्सप्लोरेशन ऐंड प्रोडक्शन पॉलिसी (हेल्प) को अपनाने के बाद से ही इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सुधार हुए हैं लेकिन तेल से जुड़ी दिक्कतें बरकरार हैं। जैसा कि हमने हाल ही में मंत्रालय की नौ वर्ष की उपलब्धियों से संबंधित एक प्रकाशन में देखा बीते कुछ वर्षों में सुधारों की गति तेज हुई है। छोटे तेल क्षेत्रों की नीलामी की गई और पांच में उत्पादन आरंभ भी हो चुका है।
करीब 10 लाख वर्ग किलोमीटर के तटवर्ती क्षेत्र को तेल खनन और उत्पादन के लिए खोला गया और 99 फीसदी ऐसे क्षेत्र खोले गए जहां कथित रूप से इसकी अनुमति नहीं थी।
विभिन्न मंत्रालयों और विभागों ने वहां खनन और उत्पादन पर रोक लगाई थी। 134 अलग-अलग ब्लॉक में दो लाख वर्ग किलोमीटर इलाका तेल खनन और उत्पादन के लिए दिया गया। ये उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं।
मंत्रालय की उपलब्धियों में तेल खनन और उत्पादन में तीन अरब डॉलर की निर्यात प्रतिबद्धता की बात कही गई है जो वैश्विक तेल उद्योग के सालाना 500 अरब डॉलर के निवेश की तुलना में कम है। ये प्रतिबद्धताएं भी तभी मान्यताएं रखेंगी जब निवेश वास्तविकता में बदल जाए।
गयाना, नामीबिया, मोजांबिक जैसे देश जिनकी भूगर्भीय स्थिति कभी भारत जैसी खराब थी, उनके यहां इससे कई गुना अधिक निवेश आया है। वे वैश्विक हाइड्रोकार्बन क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण होने जा रहे हैं।
भारत में असली समस्या यह है कि घरेलू तेल क्षेत्र पर बहुत अधिक कर लगता है, यहां नियमन बहुत अधिक है और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में यह क्षेत्र बहुत अधिक मुकदमे झेलने वाले क्षेत्रों में से एक है। देश के तेल क्षेत्र से जुड़े पुराने दिग्गज निजी तौर पर इस बात की पुष्टि करते हैं कि विदेशी और भारतीय कंपनियां जिन्होंने हेल्प आदि के गठन के बाद भारत में पैसा और उम्मीद दोनों लगाईं, अब वे भारी कर और अंतहीन मुकदमों से परेशान हैं।
निष्कर्ष यह है कि वित्त मंत्रालय के नेतृत्व में भारत सरकार तेल उत्पादकों को राजस्व बढ़ाने के नजरिये से देखती है और तेल उद्योग के नियामक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में अहम योगदान करने वाले इस क्षेत्र के कारोबारियों को सुविधा देने के बजाय उन्हें शंका की दृष्टि से देखते हैं।
राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा का विचार या एक उल्लेखनीय नए निवेश चक्र की शुरुआत अथवा व्यापक रोजगार संभावनाएं इस आकलन में नहीं आतीं। इसीलिए तेल क्षेत्र का निवेश अधिक व्यावहारिक देशों को चला जाता है और उनकी अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय बदलाव आता है। गयाना का जीडीपी पिछले वर्ष 50 फीसदी से अधिक बढ़ा।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के मुताबिक 2027 तक भारत चीन को पछाड़कर अतिरिक्त तेल का आयात करने वाला सबसे बड़ा देश बन जाएगा। जाहिर सी बात है कि दुनिया के बड़े तेल निर्यातक इससे खुश ही होंगे।
कहा जा सकता है बाजार की शक्तियां हमारी कूटनीतिक क्षमताओं में इजाफा कर रही हैं लेकिन असल बात यह है कि देश में बढ़ा हुआ तेल उत्पादन तथा विदेशी आपूर्तिकर्ताओं के लिए मूल्यवान ग्राहक होना हमारी आवश्यकताओं को देखते हुए परस्पर विशिष्ट नहीं है।
भारत वैकल्पिक और हरित ऊर्जा के क्षेत्र में वैश्विक नेता बन कर उभर रहा है लेकिन इसके बावजूद हालात के मुताबिक तो 2040 में हम आज से भी अधिक तेल और गैस का उपयोग कर रहे होंगे। हमें अपने भूमिगत तेल गैस भंडार को छोड़ देना चाहिए या फिर ईंधन की कमी से निपटने के लिए उसका इस्तेमाल करना चाहिए और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करनी चाहिए, यह निर्णय नीति निर्माताओं को लेना है।
अमेरिका हरित ऊर्जा क्षेत्र में अग्रणी होने का दावा करता है लेकिन वह दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक है। वह सबसे बड़े तेल एवं गैस निर्यातकों में भी शामिल है।
यूनाइटेड किंगडम ने भी रुख बदला है और वह नए तेल खनन के लिए लाइसेंस जारी करने वाला है। चीन शिनच्यांग में 10 किलोमीटर खुदाई करके अत्यधिक गहरे तेल भंडार का पता लगाना चाह रहा है। ऊर्जा बदलाव में निवेश के बीच भी दुनिया से सबक लेते रहने की जरूरत है।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं)
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