देश के बासमती निर्यातक इसके न्यूनतम मूल्य में बार-बार होने वाले संशोधन की मार से बचने की तैयारी में जुटे हैं। वे उन उपायों की तलाश कर रहे हैं, जिससे कि उनका मार्जिन प्रभावित न हो।
शीर्ष कंपनियों के आधिकारिक सूत्रों के अनुसार वे भविष्य में प्रभावी होने वाले उन समझौतों पर फोकस कर रहे हैं, जो न्यूनतम निर्यात मूल्य में होने वाली बढ़ोतरी से निपट सकें। एक शीर्ष निर्यातक ने कहा कि हम अपने निर्यात समझौते में एक विशेष प्रावधान करने जा रहे हैं। इस प्रावधान के मुताबिक, समझौते वाले मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य में से जो भी ज्यादा प्रभावी होगा, वही कारगर होगा।
यह प्रावधान निर्यातकों के हित को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है। इससे बासमती निर्यात पर सरकारी अंकुश लगाने की कोशिशों को धक्का पहुंचेगा।सरकार ने 5 मार्च को बासमती का न्यूनतम निर्यात मूल्य 800 डॉलर प्रति टन निश्चित किया था। पर 27 मार्च को यह बढ़ाकर 1100 डॉलर प्रति टन कर दिया गया। जल्द ही कीमत निर्धारित करने वाली मंत्रिमंडलीय समिति ने इसे 31 मार्च को 1200 डॉलर प्रति टन करने का निश्चय किया।
ऐसा 15 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह में महंगाई दर के रिकॉर्ड 6.68 फीसदी को छूने के बाद किया गया था। 3 अप्रैल को तो डीईपीबी समर्थन भी वापस ले लिया गया। जानकारों के मुताबिक, ये सभी कदम घरेलू उपलब्धता को बढ़ाने और निर्यात को हतोत्साहित करने के लिए उठाये गए।
मौजूदा संशोधन के बारे में ज्यादातर निर्यातकों की राय है कि इस पर एक बार फिर विचार होना चाहिए क्योंकि उनके अधिकांश सौदे 900 से 1000 डॉलर प्रति टन की दर से किये गए हैं।
कुछ ने तो सौदे को मूर्त रूप भी दे दिया है। इंडिया गेट बासमती चावल ब्रांड के मालिक समूह केआरबीएस के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक अनिल मित्तल ने बताया कि पिछले साल किये गए समझौते का हम क्रियान्वयन कर रहे हैं। जबकि नये सौदे का न्यूनतम निर्यात मूल्य 1300 डॉलर प्रति टन या उससे अधिक का होने की उम्मीद है।