कच्चे तेल की कीमत में आयी रेकॉर्डतोड़ वृद्धि का असर अब तांबा उद्योग पर भी दिखने लगा है। महज साल भर में ही तेल की कीमतों के दोगुनी हो जाने से परेशान कई तांबा कंपनियों ने तो अब मूल्य निर्धारण प्रणाली को ही बदल डालने का फैसला किया है।
दो प्रमुख तांबा कंपनियां हिंडाल्को इंडस्ट्रीज और स्टरलाइट इंडस्ट्रीज ने तय किया है कि वो अपने उत्पादों जैसे कॉपर कैथौड और कॉपर छड़ की कीमत को उपभोक्ताओं के हिसाब से तय करेगी। पहले की मूल्य प्रणाली में जहां इसकी कीमत देश के सभी उपभोक्ताओं के लिए एक समान हुआ करती थी, वहीं अब नयी मूल्य प्रणाली में ग्राहक के बदलने से इसकी कीमत भी बदल जाएगी।
उद्योग से जुड़े सूत्रों ने बताया कि तांबे उत्पादों की कीमत अब इस बात पर निर्भर करेगी कि इसकी डिलीवरी कहां होनी है। स्मेल्टर से दूरी के अनुसार ही यह परिवर्तित होगा। तेल की बढ़ी कीमतों के असर को कम करने के लिए इन कंपनियों ने अपने उत्पादों पर प्रति किलोग्राम 2 रुपये की दर से लेवी लगाने का फैसला किया है।
मुंबई में तांबे के कारोबार का हब कहे जाने वाले कीका स्ट्रीट के कारोबारियों के अनुसार, नयी मूल्य प्रणाली में भाव न केवल तांबा उत्पादकों के हिसाब से परिवर्तित होंगे बल्कि इससे बाजार भी कीमत निर्धारण के लिए स्वतंत्र हो जाएंगे। हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड (एचसीएल) ने फैसला किया है कि वो इस भेड़चाल में शामिल नहीं होगी।
पहले की ही तरह यह कंपनी अब भी देशभर के ग्राहकों को माल ढुलाई में छूट देती रहेगी। एक स्मेल्टर से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि पिछले साल भर में कच्चे तेल की कीमत में दोगुनी तेजी आयी है और अब यह 139 डॉलर तक जा पहुंचा है। इसके चलते तांबे की स्मेल्टिंग लागत काफी बढ़ गयी है। हिंडाल्को इंडस्ट्रीज के स्वामित्व वाली तांबा कंपनी बिड़ला कॉपर के पास तीन स्मेल्टर हैं। पर लागत बढ़ने से इसने 80 हजार टन की क्षमता वाला अपना एक स्मेल्टर बंद कर दिया है।
फिलहाल इसके जो दो स्मेल्टर काम कर रहे हैं वो 2.05 लाख टन और 1.70 लाख टन क्षमता के हैं। इस तरह इस कंपनी की कुल उत्पादन क्षमता के केवल 72 फीसदी का ही दोहन हो पा रहा है। हालांकि स्टरलाइट इंडस्ट्रीज अपनी क्षमता का शत-प्रतिशत दोहन कर रहा है और यह 4 लाख टन की कुल क्षमता वाले अपने स्मेल्टरों से उत्पादन जारी रखे हुए है।
स्मेल्टर को जलाने में भारी पैमाने पर डीजल का इस्तेमाल होता है। जबकि इसे चलाए रखने के लिए काफी मात्रा में फर्नेस ऑयल की जरूरत होती है। ढुलाई लागत के बढ़ने से तो मानो तांबा उत्पादकों के जले जख्मों पर नमक ही छिड़क दिया गया है। जानकारों के मुताबिक, शुरू से लेकर आखिर तक तांबे के कुल उत्पादन खर्च का 10 से 12 फीसदी केवल ईंधन में ही लग जाता है। इसी में 1 फीसदी परिवहन खर्च भी शामिल होता है।
एक कारोबारी ने बताया कि ईंधन की कीमतों के बढ़ने से तांबे की तात्कालिक मांग पर तो कोई असर नहीं पड़ा है। उनके अनुसार, यदि कच्चे तेल की कीमत इसी तरह लंबे समय तक बढ़ती रही तो निश्चित तौर पर कई नए प्रोजेक्टों पर इसका नकारात्मक असर देखने को मिल सकता है।
उनके मुताबिक, हो सकता है कि कई प्रोजेक्टों पर ताले ही पड़ जाएं। तांबे का इस्तेमाल कंस्ट्रक्शन, इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योगों में खूब होता है। अभी इसका भाव 8 हजार डॉलर प्रति टन है जबकि आज से तीन साल पहले इसका भाव 3500 डॉलर प्रति टन था।