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समर्थन मूल्य बढ़ने का फायदा नहीं मिल रहा किसानों को

Last Updated- December 07, 2022 | 11:05 PM IST

इस साल कई कृषि जिंसों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में की गई जबरदस्त बढ़ोतरी के बावजूद किसानों को उपज के एवज में अच्छा पैसा नहीं मिल पा रहा है।


नैशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चर इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च (एनसीएपी) के ताजा अध्ययन में यह बात सामने आयी है। एनसीएपी में प्रोफेसर रमेश चांद जिनके निर्देशन में यह शोध कार्य संचालित किया गया, के मुताबिक चावल, गेहूं, गन्ना और कपास का समर्थन मूल्य केवल कुछ राज्यों में ही उपयोगी हो पाता है।

पश्चिम बंगाल में जूट और धान की खरीदारी में शामिल रहे किसान समूह और लोग इस बात से सहमत दिखे कि किसानों की आय बढ़ाने में न्यूनतम समर्थन मूल्य का बहुत थोड़ा योगदान होता है। ऐसा इसलिए कि खुले बाजार में कृषि जिंसों की कीमत एमएसपी की तुलना में बहुत कम है।

2008-09 सीजन के लिए कच्चे जूट की एमएसपी सरकार ने 195 रुपये बढ़ाकर 1,250 रुपये प्रति क्विंटल कर दी है। इसके बावजूद अगले सीजन के लिए कच्चे जूट के रकबे में 25 फीसदी की कमी हो गई।

जूट उद्योग के सूत्रों ने बताया कि खुले बाजार में कच्चे जूट की कीमत इसकी एमएसपी से भी कम हो गई है। मिल मालिक जूट की एमएसपी भी देने को तैयार नहीं हैं। इसके चलते अब किसानों के लिए जूट उपजाना फायदेमंद नहीं रह गया है। हालांकि ज्यादातर मामलों में जूट मिल मालिक कागजों में दिखाते हैं कि वे किसानों को एमएसपी से ज्यादा कीमत दे रहे हैं।

पश्चिम बंगाल में अग्रगामी किसान सभा के महासचिव हाफीज आलम सैरानी के मुताबिक, किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का तरीका ही दोषपूर्ण है। प्राय: देखा जाता है कि जब न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू किया जाता है तो बाजार लुढ़क जाता है। इसी समय ज्यादातर छोटे और मंझोले किसान अपनी फसल बेचते हैं।

ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा केवल बड़े किसानों को ही मिल पाता है। जूट के मामले में जूट की एजेंसियों जैसे भारतीय जूट निगम जो एमएसपी से संबंधित क्रियाकलापों का संचालन करती है वह कच्चे जूट के कुल उत्पादन का महज 10 से 15 फीसदी की खरीद कर पाती है।

किसानों की लॉबी तो मांग कर रही है कि अगले सीजन से जूट की एमएसपी 1,645 रुपये प्रति क्विंटल तय की जाए। आलू के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ जिसे एमएसपी के स्तर पर बेच पाने में नाकामी हासिल हुई है। परिणाम यह कि किसानों को इसकी खेती से तगड़ा नुकसान हो रहा है।

इस साल मार्च में पश्चिम बंगाल सरकार ने पहली बार आलू की एमएसपी तय की थी। तब एक किलो आलू की कीमत 2.5 रुपये प्रति किलो रखी गई थी। हालांकि आलू के बाजार भाव में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ जब तक कि सरकार ने आलू कि लिए ट्रोंसपोर्ट सब्सिडी घोषित नहीं कर दी। सैरानी ने बताया कि ज्यादातर दुकानों में तो धान की कीमत भी एमएसपी से कम पायी जा रही है।

चांद के अनुसार विभिन्न राज्यों के राजनीतिज्ञ एमएसपी की बात तो करते हैं लेकिन कोई भी इसे लागू करने को लेकर चिंतित नहीं है। आधिकारिक दस्तावेज बताते हैं कि अक्सर कई फसलों का बाजार भाव उस फसल की एमएसपी से कम रहता है। इससे पता चलता है कि जब एमएसपी को लेकर कोई भी कार्रवाई नहीं होती तो निसंदेह उत्पादकों के लिए भी इसका कोई मतलब नहीं रह जाता।

First Published - October 8, 2008 | 11:46 PM IST

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