पिछले महीने की शुरुआत में तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक की बैठक से निकले नतीजे ने वॉशिंगटन पोस्ट और न्यूजवीक के एडिटर (कंट्रीब्यूटिंग) रॉबर्ट सैम्युलसन को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि ओपेक एक ऐसा संगठन है जो वाकई काम करता है।
पिछले कुछ सालों में कम ही मौके ऐसे आए हैं, जब 47 देशों के इस संगठन ने तय उत्पादन की सीमा रेखा को पार किया हो।
मुश्किल दौर
सदस्य देशों के लिए मुश्किल वक्त में प्रबंधन करने में ओपेक की उपयोगिता रही है। जैसे कि अभी तेल से अधिकतम राजस्व प्राप्त करने की है। संगठन जब चाहे तेल का उत्पादन कम कर देता है, जिससे मांग तो उतनी ही बनी रहती है , लेकिन आपूर्ति कम होने से कीमतें चढ़ जाती हैं।
अभी भी एकदम ताजा है कि सऊदी अरब ने कैसे एशियाई वित्तीय संकट के दौरान ओपेक के अलावा अन्य बड़े तेल उत्पादक देशों को कम उत्पादन के लिए सहमत किया था, जिसने तेल की मांग को बढ़ा दिया था। जिसका नतीजा यह निकला कि तेल की कीमतें बढ़ गई थीं। दुनिया ने कुछ इसी तरह का मामला दोबारा तब देखा, जब 2006 की आखिरी छमाही में तेल की कीमतों में तेजी से गिरावट आई थी।
सदस्य देशों ने कीमतें चढ़ाने के लिए दो चरणों में उत्पादन में कमी की, जिससे 2007 के आखिर तक तेल का स्टॉक तीन साल के न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया था। कोई भी सैम्युलसन के तर्क से सहमत हो सकता है क्योंकि ओपेक देशों ने तब तक उत्पादन नहीं बढ़ाया, जब तक तेल की कीमतें मजबूत होकर 100 डॉलर प्रति बैरल के स्तर को पार न कर गईं।
आशा के विपरीत
तेल का आयात करने वाले देशों को ओपेक की इस बैठक से उम्मीद थी कि ओपेक देश उत्पादन बढ़ाने पर सहमत हो जाएंगे, जिससे तेल की तेज होती कीमतों की मार झेलने से उन्हें निजात मिल सके। बाजार में तेल की अधिक आपूर्ति को सुनिश्चित करने की बजाय अमेरिकी मंदी का भी दुनिया पर असर पड़ेगा। ओपेक के मंत्री इस बात को लेकर धमका सकते हैं कि यदि तेल की कीमतों में गिरावट आई तो आपूर्ति को कम कर दिया जाएगा।
आर्थिक पुनरुद्धार
सैम्युलसन इस बात पर तर्क करते हैं कि तेल की कीमतों का गिरना अपने आप में एक मैकेनिज्म है, जो किसी भी तरह की आर्थिक मंदी को प्रभावित करता है। उनका कहना है कि तेल की कम कीमतें किसी भी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को संभालने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। उन्होंने इसको ‘ऑटोमैटिक स्टैबलाइजर’ कहा है।
उन्होंने बताया कि यदि तेल की कीमतें बढ़ती हैं तो मंदी की मार और बदतर हो सकती है। ओपेक के इस अड़ियल रवैये की वजह से दुनिया को तेल की मजबूत धार को थोड़ा और सहना पड़ेगा। जैसा कि सैम्युलसन दर्शाते हैं कि इस तरह से ओपेक ने दो तरीकों से फायदा उठाया है। पहला तो यह कि 2007 में दुनिया भर में तेल का उपभोग 86 करोड़ बैरल प्रतिदिन तक पहुंच गया जोकि 1999 के उपभोग स्तर से 13 फीसदी ज्यादा है।
दूसरा यह है कि उत्पादन में कोई अप्रत्याशित कटौती नहीं की गई। किसी देश के हस्तक्षेप (वेनेजुएला) या किसी लड़ाई (इराक) या फिर गृहयुद्ध (नाइजीरिया) की स्थिति में दुनिया कम से कम 45 लाख बैरल तेल के कम उत्पादन को नहीं झेल सकती है।
कीमतों का शतक बनाना
हमारे लिए भविष्य क्या है? ओपेक की ओर से संकेत मिल चुके हैं कि दीर्घ अवधि तक तेल की कीमतों का मीटर कम से कम 90 डॉलर से नीचे नहीं उतरने वाला है। लेकिन ओएनजीसी के चेयरमैन आर. एस. शर्मा कहते हैं कि तेल की दहाई अंकों में कीमतें अब बीते वक्त की बात हो चुकी हैं।
दुनिया में तेल पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करके नये उपायों के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए तभी वे तेल की धार की मार से बचकर विकास की गाड़ी को आगे बढ़ा पाएंगे।